श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 66 सिरीरागु महला ३ ॥ पंखी बिरखि सुहावड़ा सचु चुगै गुर भाइ ॥ हरि रसु पीवै सहजि रहै उडै न आवै जाइ ॥ निज घरि वासा पाइआ हरि हरि नामि समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: पंखी = पंछी, जीव पंछी। बिरखि = वृक्ष पर,शरीर रूप में (बसता)। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु का नाम। गुर भाइ = गुरु के प्रेम में। पीवै = पीता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। उडै ना = उड़ता नहीं, भब्कता नहीं। आवै = आता, पैदा होता। जाइ = जाता, मरता। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु के चरणों में। नामि = नाम में।1। अर्थ: जो जीव-पंछी इस शरीर वृक्ष पर बैठा हुआ गुरु के प्रेम में रह के सदा स्थिर प्रभु के नाम का चोगा चुगता है, वह खूबसूरत जीवन वाला हो जाता है। वह परमात्मा के नाम का रस पीता है। आत्मक अडोलता में टिका रहता है। (माया पदार्तों के चोगे की तरफ) भटकता नहीं फिरता, (इस वास्ते) जनम मरण के चक्कर से बचा रहता है। उसको अपने (असल) घर में (प्रभु चरणों में) निवास मिला रहता है। वह सदा प्रभु के नाम में लीन रहता है।1। मन रे गुर की कार कमाइ ॥ गुर कै भाणै जे चलहि ता अनदिनु राचहि हरि नाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कमाइ = कर। भाणै = रजा में। चलहि = तू चले। अनदिनु = हर रोज। राचहि = रचा रहेगा, टिका रहेगा। नामि = नाम में।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की बताई कार कर। अगर तू गुरु के हुक्म में चलेगा, तो तू हर समय परमात्मा के नाम में जुड़ा रहेगा।1। रहाउ। पंखी बिरख सुहावड़े ऊडहि चहु दिसि जाहि ॥ जेता ऊडहि दुख घणे नित दाझहि तै बिललाहि ॥ बिनु गुर महलु न जापई ना अम्रित फल पाहि ॥२॥ पद्अर्थ: बिरख = पेड़ों पर। उडहि = उड़ते हैं। दिसि = तरफ। जाहि = जाते हैं। घणे = बहुत। दाझहि = जलते हैं। तै = और। जापई = प्रतीत होता है, लगता है, दिखता है।2। नोट: शब्द ‘तै’ व ‘ते’ का फर्क याद रखने योग्य है: ‘तै’ = और। ‘ते’ = से। अर्थ: जो जीव-पंछी (अपने-अपने) शरीर वृक्षों पर (बैठे देखने में तो) सुंदर लगते हैं (पर माया के पदार्तों के चोगे के पीछे) उड़ते फिरते हैं, चारों तरफ भटकते हैं। वे जितना भी (चोगे के पीछे) उड़ते हैं, उतना ही ज्यादा दुख पाते हैं। सदा खिझते हैं और बिलकते हैं। गुरु की शरण के बगैर उन्हें (परमात्मा का) ठिकाना नहीं दिखता, और ना ही वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल प्राप्त कर सकते हैं।2। गुरमुखि ब्रहमु हरीआवला साचै सहजि सुभाइ ॥ साखा तीनि निवारीआ एक सबदि लिव लाइ ॥ अम्रित फलु हरि एकु है आपे देइ खवाइ ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। सुभाइ = प्रेम में। साखा = टहणीयां। तीनि साखा = तीन टहनियां, माया के तीन गुण। सबदि = शब्द में। लाइ = लगा के। अंम्रित फलु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम फल। देइ = देता है।3। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा का रूप हो जाता है। वह जैसे एक हरा-भरा पेड़ है। (वह भाग्यशाली मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु में जुड़ा रहता है।, आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, प्रभु के प्रेम में मगन रहता है। परमात्मा के महिमा के शब्द में तवज्जो जोड़ के (माया के तीन रूप) तीन टहनियां उसने दूर कर ली हैं। उसको आत्मिक जीवन देने वाला सिर्फ एक नाम फल लगता है। (प्रभु मेहर करके) खुद ही (उसको यह फल) चखा देता है।3। मनमुख ऊभे सुकि गए ना फलु तिंना छाउ ॥ तिंना पासि न बैसीऐ ओना घरु न गिराउ ॥ कटीअहि तै नित जालीअहि ओना सबदु न नाउ ॥४॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। उभै = खड़े खड़े। बैसीऐ = बैठिए। गिराउ = ग्राम, गांव। जालीअहि = जलाए जाते हैं।4। अर्थ: (पर) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य, जैसे, वह वृक्ष हैं जो खड़े खड़े ही सूख गए हैं। उनको ना ही फल लगता है, ना ही उनकी छाया होती है, (भाव, ना ही उनके पास प्रभु का नाम है, और ना ही वे किसी की सेवा करते हैं)। उनके पास बैठना ही नहीं चाहिए, उनका कोई घर घाट नहीं है। (उनको कोई आत्मिक सहारा नहीं मिलता)। वह (मनमुख वृक्ष) सदा काटे जाते हैं और जलाए जाते हैं (भाव, माया के मोह के कारण वे नित्य दुखी रहते हैं)। उनके पास ना प्रभु की महिमा है, ना ही प्रभु का नाम है।4। हुकमे करम कमावणे पइऐ किरति फिराउ ॥ हुकमे दरसनु देखणा जह भेजहि तह जाउ ॥ हुकमे हरि हरि मनि वसै हुकमे सचि समाउ ॥५॥ पद्अर्थ: हुकमै = हुक्म में ही। पइऐ किरति = किए हुए कर्मों के संस्कार के अनुसार। पइऐ = उस कर्म अनुसार जो संस्कारों के रूप में मनुष्य के मन में एकत्र हो चुके हैं। फिराउ = फेरा। समाउ = समाई। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।5। अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या बस? तेरे) हुक्म में ही (जीव) कर्म कमाते हैं। (तेरे हुक्म में ही) पिछले किये कर्मों के संस्कारों के अनुसार उनको जनम मरण का फेरा पड़ा रहता है। तेरे हुक्म अनुसार ही कई जीवों को तेरा दर्शन प्राप्त होता है। जिधर तू भेजता है, उधर जाना पड़ता है। तेरे हुक्म अनुसार ही कई जीवों के मन में तेरा हरि नाम बसता है। तेरे हुक्म में ही तेरे सदा स्थिर स्वरूप में उनकी लीनता बनी रहती है।5। हुकमु न जाणहि बपुड़े भूले फिरहि गवार ॥ मनहठि करम कमावदे नित नित होहि खुआरु ॥ अंतरि सांति न आवई ना सचि लगै पिआरु ॥६॥ पद्अर्थ: बपुड़े = बिचारे। गवार = मूर्ख। हठि = हठ से। होहि = होते हैं।6। अर्थ: कई ऐसे बिचारे मनुष्य हैं जो परमात्मा का हुक्म नहीं समझते, वह (माया के मोह के कारण) गलत रास्ते पर पड़के भटकते फिरते हैं। वह (गुरु का आसरा छोड़ के अपने) मन के हठ से (कई किस्म के निहित धार्मिक) कर्म करते है, (पर विकारों में फंसे हुए) सदा खुआर रहते हैं। उनके मन में शांति नहीं आती, ना ही उनका सदा स्थिर प्रभु में प्यार बनता है।6। गुरमुखीआ मुह सोहणे गुर कै हेति पिआरि ॥ सची भगती सचि रते दरि सचै सचिआर ॥ आए से परवाणु है सभ कुल का करहि उधारु ॥७॥ पद्अर्थ: हेति = प्यार में। दरि = दर पर।7। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले लोगों के मुंह (नाम की लाली से) सुंदर लगते हैं, क्योंकि वह गुरु के प्रेम में गुरु के प्यार में टिके रहते हैं। वह प्रभु की सदा स्थिर रहने वाली भक्ति करते हैं। वह सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं। (इस वास्ते वह) सदा स्थिर प्रभु के दर पे स्वीकार रहते हैं। उन लोगों का ही जगत में आना स्वीकार है, वह अपने सारे कुल का भी पार उतारा कर लेते हैं।7। सभ नदरी करम कमावदे नदरी बाहरि न कोइ ॥ जैसी नदरि करि देखै सचा तैसा ही को होइ ॥ नानक नामि वडाईआ करमि परापति होइ ॥८॥३॥२०॥ पद्अर्थ: नदरी = मिहर की निगाह में। सचा = सदा स्थिर प्रभु। करमि = बख्शिश से।8। अर्थ: (पर, जीवों के भी बस की भी बात नहीं) सारे जीव परमात्मा की निगाह मुताबक ही करम करते हैं। उसकी निगाह से बाहर कोई जीव नहीं, (भाव, कोई जीव परमात्मा से आकी हो के कुछ नहीं कर सकता)। सदा स्थिर रहने वाला प्रभु जैसी निगाह करके किसी जीव की ओर देखता है, वह जीव वैसा ही बन जाता है। हे नानक! (उस की मेहर की नजर से जो मनुष्य उसके नाम में जुड़ता है), उसको आदर सम्मान मिलता है। पर उसका नाम उसकी बख्शिश से ही मिलता है।8।3।20। सिरीरागु महला ३ ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मनमुखि बूझ न पाइ ॥ गुरमुखि सदा मुख ऊजले हरि वसिआ मनि आइ ॥ सहजे ही सुखु पाईऐ सहजे रहै समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने से। बूझ = समझ। ऊजले = रौशन। मनि = मन में। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में।1। अर्थ: गुरु के शरण पड़ने से (ही) परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है। अपने मन के पीछे चलने से (स्मरण की) सूझ नहीं पड़ती। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वह (लोक परलोक में) सदा संतुलित रहते हैं, उनके मन में परमात्मा आ बसता है (और उनके अंदर आत्मिक अडोलता बन जाती है)। आत्मिक अडोलता से ही आत्मिक आनंद मिलता है। (गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य सदा) आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। भाई रे दासनि दासा होइ ॥ गुर की सेवा गुर भगति है विरला पाए कोइ ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवकों का सेवक बन- यही है गुरु की बताई सेवा, यह है गुरु की (बताई) भक्ति। (ये दात) किसी विरले (भाग्यशाली) को मिलती है।1। रहाउ। सदा सुहागु सुहागणी जे चलहि सतिगुर भाइ ॥ सदा पिरु निहचलु पाईऐ ना ओहु मरै न जाइ ॥ सबदि मिली ना वीछुड़ै पिर कै अंकि समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: सुहागु = सौभाग्यं, पति को प्रसन्न रखने का सौभाग्य। भाइ = प्रेम में। निहचलु = अटल, अबिनाशी। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। अंकि = गोद में।2। अर्थ: जो जीव-स्त्रीयां गुरु के प्रेम में (टिक के जीवन-राह पर) चलती हैं, वे परमात्मा पति की प्रसन्नता के सौभाग्य वाली बन जाती हैं। उनका यह सौभाग्य सदा कायम रहता है। (गुरु की शरण पड़ने से) वह पति प्रभु मिल जाता है जो सदा अटल है, जो ना मरता है, ना कभी पैदा होता है। जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द द्वारा उस प्रभु में मिलती है, वह पुनः उससे कभी बिछुड़ती नहीं। वह सदा प्रभु पति की गोद में समाई रहती है।2। हरि निरमलु अति ऊजला बिनु गुर पाइआ न जाइ ॥ पाठु पड़ै ना बूझई भेखी भरमि भुलाइ ॥ गुरमती हरि सदा पाइआ रसना हरि रसु समाइ ॥३॥ पद्अर्थ: बूझई = समझ सकता। भरमि = भटकना, माया की दौड़ भाग में। रसना = जीभ। समाइ = लीन रहता है।3। अर्थ: परमात्मा पवित्र स्वरूप है, बहुत ही पवित्र स्वरूप है। गुरु की शरण के बिना उससे मिलाप नहीं हो सकता। (जो मनुष्य धार्मिक पुस्तकों का) निरा पाठ (ही) पढ़ता है, (वह इस भेद को) नहीं समझता, (निरे) धार्मिक भेखों से (बल्कि) भटकन में पड़ कर गलत राह पर पड़ जाते हैं। गुरु की मति पर चल कर ही सदा परमात्मा मिलता है, और (मनुष्य की) जीभ में परमात्मा के नाम का स्वाद टिका रहता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |