श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माइआ मोहु चुकाइआ गुरमती सहजि सुभाइ ॥ बिनु सबदै जगु दुखीआ फिरै मनमुखा नो गई खाइ ॥ सबदे नामु धिआईऐ सबदे सचि समाइ ॥४॥

पद्अर्थ: सुभाइ = प्रेम में। नो = को। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।

अर्थ: (जो मनुष्य) गुरु की मति के अनुसार (चलता है वह अपने अंदर से) माया का मोह मार लेता है (वह) आत्मिक अडोलता में (टिक जाता है, वह प्रभु के) प्रेम में (लीन रहता है)। गुरु के शब्द के बिना जगत (माया के मोह के कारण) दुखी रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों को माया ग्रसे रखती है।

(हे भाई!) गुरु के शब्द से ही प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है। गुरु के शब्द से ही सदा स्थिर प्रभु में लीन रहा जा सकता है।4।

माइआ भूले सिध फिरहि समाधि न लगै सुभाइ ॥ तीने लोअ विआपत है अधिक रही लपटाइ ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ ना दुबिधा माइआ जाइ ॥५॥

पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, योग साधना में व्यस्त योगी। लोअ = लोक, भवन। वियापत है = (अपना) जोर डाले रखती है। अधिक = बहुत। मुकति = खलासी। दुबिधा = दु चिक्ता पन, दु किस्मा पन।5।

अर्थ: (साधारण लोगों की तो क्या बात, योग साधना में) माहिर योगी भी माया के प्रभाव में आ के गलत रास्ते पे भटकते फिरते हैं। प्रभु प्रेम में उनकी तवज्जो नहीं जुड़ती। ये माया तीनों भवनों में अपना प्रभाव डाल रही है। (सभी जीवों को ही) बुरी तरह से चिपकी हुई है। (हे भाई!) गुरु की शरण के बिना (माया से) खलासी नहीं मिल सकती। माया के प्रभाव के कारण पैदा हुई तेर-मेर (द्वैत) भी दूर नहीं होती।5।

माइआ किस नो आखीऐ किआ माइआ करम कमाइ ॥ दुखि सुखि एहु जीउ बधु है हउमै करम कमाइ ॥ बिनु सबदै भरमु न चूकई ना विचहु हउमै जाइ ॥६॥

पद्अर्थ: किस नो = किस को। दुखि = दुख में। बधु = बंधा हुआ।6।

नोट: ‘किस नो’ में ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण नहीं लगी है। देखो गुरबाणी व्याकरण।

अर्थ: (अगर पूछें कि) माया किस चीज का नाम है? (माया का स्वरूप क्या है? जीवों पे प्रभाव डाल के फिर उनसे ही) माया कौन से काम करवाती है? (तो उक्तर ये है कि माया के प्रभाव में) ये जीव दुख (की निर्वती) में ही सुख (की लालसा) में बंधा रहता है। और, “मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ” की प्रेरणा में सारे काम करता है। गुरु के शब्द के बिना जीव की यह भटकना खत्म नहीं होती। ना ही इसके अंदर से “मैं मेरी” की प्रेरणा दूर होती है।6।

बिनु प्रीती भगति न होवई बिनु सबदै थाइ न पाइ ॥ सबदे हउमै मारीऐ माइआ का भ्रमु जाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ गुरमुखि सहजि सुभाइ ॥७॥

पद्अर्थ: थाइ = जगह में। थाइ न पाइ = स्वीकार नहीं पड़ता। भ्रम = भटकणा।7।

अर्थ: गुरु के शब्द के बिना (मनुष्य के अंदर प्रभु चरणों की प्रीति पैदा नहीं होती, और) प्रीति के बिना (जीव से) परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती, (परमात्मा के दर पे) जीव स्वीकार नहीं होता। गुरु के शब्द द्वारा ही अहम् (मन में से) मारी जा सकती है। गुरु के शब्द द्वारा ही माया की प्रेरणा से पैदा हुठ्र भटकना दूर होती है। गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम (कीमती पदार्थ मिलता है, आत्मिक अडोलता में व प्रभु प्रेम से लीनता होती है)।7।

बिनु गुर गुण न जापनी बिनु गुण भगति न होइ ॥ भगति वछलु हरि मनि वसिआ सहजि मिलिआ प्रभु सोइ ॥ नानक सबदे हरि सालाहीऐ करमि परापति होइ ॥८॥४॥२१॥

पद्अर्थ: न जापनी = प्रतीत नहीं होता, कद्र नहीं पड़ती। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। मनि = मन में। करमि = मेहर से। करमु = बख्शिश।8।

अर्थ: गुरु की शरण के बिना उच्च आत्मिक जीवन के गुणों की कद्र नहीं पड़ती। और, आत्मिक जीवन वाले गुणों के बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। (गुरु के शब्द द्वारा ही) भक्ति के साथ प्यार करने वाला परमात्मा (मनुष्य के) मन में बसता है (आत्मक अडोलता प्राप्त होती है) आत्मिक अडोलता में टिका वह प्रभु को प्राप्त कर लेता है।

हे नानक! गुरु के शब्द से ही परमात्मा की महिमा की जा सकती है। (पर यह दाति) उस की मेहर से ही मिलती है।8।4।21।

सिरीरागु महला ३ ॥ माइआ मोहु मेरै प्रभि कीना आपे भरमि भुलाए ॥ मनमुखि करम करहि नही बूझहि बिरथा जनमु गवाए ॥ गुरबाणी इसु जग महि चानणु करमि वसै मनि आए ॥१॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। भरमि = माया की भटकना में (डाल के)। भुलाए = गलत रास्ते पर डालता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। करहि = करते हैं। गवाए = गवाता है। करमि = मेहर से। मनि = मन में। आए = आ के।1।

अर्थ: मेरे प्रभु ने (खुद ही) माया का मोह पैदा किया है, वह खुद ही (जीवों को माया की) भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाल देता है। (उस भटकन में पड़े हुए) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (निहित धार्मिक) कर्म करते है।, और (यह) नहीं समझते (कि हम गलत राह पर हैं)। (जो भी मनुष्य अपने मन के पीछे चल के माया के मोह में फंसा रहता है, वह अपना) जनम व्यर्थ गवाता है।

सतिगुरु की वाणी इस जगत में (जीवन पथ पर) प्र्रकाश (करती) है। यह वाणी (परमात्मा की) मेहर से (ही) मनुष्य के मन में आ बसती है।1।

मन रे नामु जपहु सुखु होइ ॥ गुरु पूरा सालाहीऐ सहजि मिलै प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सालाहीऐ = स्तुति करनी चाहिए, धन्य धन्य कहना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप। (नाम जपने से ही) आत्मिक आनंद मिलता है। (नाम जपने की दाति गुरु से मिलती है, इस वास्ते) पूरे गुरु को घन्य धन्य कहना चाहिए। गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य आत्मिक अडोलता में (टिकता है, और मनुष्य को) वह परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ।

भरमु गइआ भउ भागिआ हरि चरणी चितु लाइ ॥ गुरमुखि सबदु कमाईऐ हरि वसै मनि आइ ॥ घरि महलि सचि समाईऐ जमकालु न सकै खाइ ॥२॥

पद्अर्थ: भरमु = दौड़ भाग, भटकना। चरणी = चरणों में। घरि = घर में, अंतर आत्मे। महलि = प्रभु के महल में, प्रभु के चरणों में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जमकालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत।2।

अर्थ: (गुरु के द्वारा) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ के (मन की) भटकना दूर हो जाती है। (हरेक किस्म का डर) भाग जाता है। गुरु की शरण पड़ के गुरु का शब्द कमाना चाहिए (भाव, शब्द मुताबिक जीवन व्यतीत करना चाहिए। (इस तरह) परमात्मा मन में आ बसता है, अंतरात्मा में ठहराव आ जाता है। प्रभु चरणों में सदा स्थिर प्रभु में लीन रह सकते हैं। और आत्मिक मौत (सदाचारी जीवन को) खा नहीं सकती।2।

नामा छीबा कबीरु जुोलाहा पूरे गुर ते गति पाई ॥ ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि हउमै जाति गवाई ॥ सुरि नर तिन की बाणी गावहि कोइ न मेटै भाई ॥३॥

पद्अर्थ: जुलाहा = (असल शब्द ‘जोलाहा’ है, यहां ‘जुलाहा’ पढ़ना है)। ते = से। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। बेते = वेक्तागण, जानने वाले। ब्रहम के बेते = परमात्मा के साथ सांझ डालने वाले। सबदु = प्रभु की महिमा की वाणी। पछाणहि = पहचानते हैं, सांझ डालते हैं (वर्तमान काल को भूतकाल के अर्थ में यहां बर्तना है)। हउमै जाति = अहम् की जाति ही, अहम् का मूल ही। सुर = देवते। भाई = हे भाई!।3।

अर्थ: (देखो) नामदेव (जाति का) छींबा (धोबी) था। कबीर जुलाहा था। (उन्होंने) पूरे गुरु से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त की। वे परमात्मा के साथ सांझ पाने वाले बन गए। उन्होंने प्रभु की महिमा के साथ गहरी सांझ पा ली। (और, इस तरह उन्होंने अपने अंदर से) अहम् का बीज नाश कर दिया। हे भाई! (अब) देवते और मनुष्य उनकी (उच्चारण की हुई) वाणी को गाते हैं। कोई भी (उनको मिले हुए इस सत्कार को) मिटा नहीं सकता।3।

दैत पुतु करम धरम किछु संजम न पड़ै दूजा भाउ न जाणै ॥ सतिगुरु भेटिऐ निरमलु होआ अनदिनु नामु वखाणै ॥ एको पड़ै एको नाउ बूझै दूजा अवरु न जाणै ॥४॥

पद्अर्थ: दैत पुतु = हरनाखश दैंत पुत्र, प्रहलाद। करम धरम = कर्मकांड। संजम = इन्द्रियों के वश करने के यत्न। भाउ = प्यार। भेटिऐ = मिलने से। अनदिनु = हर रोज।4।

अर्थ: (हरणाकश्यप) दैंत का पुत्र (भक्त प्रहलाद, निहित) धार्मिक कर्मों व इंद्रियों को वश करने की युक्तियां बताने वाली कोई पुस्तक नहीं था पढ़ता, वह प्रभु के बिना किसी और (देवताओं आदि) के साथ प्यार (करना) नहीं था जानता। पूरा गुरु मिलने (की इनायत) से वह पवित्र (जीवन वाला हो गया), हर समय परमात्मा का नाम जपने लग पड़ा। वह एक (परमात्मा) की महिमा पढ़ता था, एक परमात्मा का नाम ही समझता था। प्रभु के बिना किसी और को (प्रभु के जैसा) नहीं था जानता।4।

खटु दरसन जोगी संनिआसी बिनु गुर भरमि भुलाए ॥ सतिगुरु सेवहि ता गति मिति पावहि हरि जीउ मंनि वसाए ॥ सची बाणी सिउ चितु लागै आवणु जाणु रहाए ॥५॥

पद्अर्थ: खटु = छह। दरसन = भेस। खटु दरसन = छह भेख (जोगी, संन्यासी, जंगम, सरेवड़े, बैरागी, बोधी)। गति = ऊूंची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, जीवन मर्यादा, जीवन जुगति (युक्ति)। मंनि = मन में। वसाए = बसा के। सिउ = साथ। रहाए = खत्म कर देता है।5।

अर्थ: जोगी (हों), संन्यासी (हों, ये सारे ही) छह भेषों के साधु, गुरु की शरण के बिना माया की भटकना में पड़ कर कुमार्ग में पड़े रहते हैं। जब (यह) गुरु की शरण पड़ते हैं, तब परमात्मा का नाम अपने मन में बसा के उच्च आत्मिक अवस्था व (सही) जीवन युक्ति प्राप्त करते हैं।

जिस मनुष्य का चिक्त सदा स्थिर प्रभु की वाणी के साथ तरंगित होता है वह अपना जनम मरन का चक्कर खत्म कर लेता है।5।

पंडित पड़ि पड़ि वादु वखाणहि बिनु गुर भरमि भुलाए ॥ लख चउरासीह फेरु पइआ बिनु सबदै मुकति न पाए ॥ जा नाउ चेतै ता गति पाए जा सतिगुरु मेलि मिलाए ॥६॥

पद्अर्थ: पंडित वखाणहि = पंडित व्याख्यान करते हैं। पढ़ि = पढ़ के। वादु = झगड़ा, बहस। फेरु = फेरा। मुकति = खलासी। मेलि = (प्रभु के) मिलाप में।6।

अर्थ: पंडित (लोक शास्त्र आदि) पढ़ पढ़ के (निरी) चर्चा (ही) करते सुनते हैं, (वह भी) गुरु की शरण के बिना माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। (कोई भी मनुष्य) गुरु के शब्द के बिना (माया के मोह से) निजात हासिल नहीं कर सकता। (गुरु की शरण के बिना) चौरासी लाख योनियों का चक्कर बना रहता है। जब गुरु (मनुष्य को) प्रभु के चरणों में जोड़ता है, जब वह प्रभु का नाम स्मरण करता है, तब वह उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh