श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 68 सतसंगति महि नामु हरि उपजै जा सतिगुरु मिलै सुभाए ॥ मनु तनु अरपी आपु गवाई चला सतिगुर भाए ॥ सद बलिहारी गुर अपुने विटहु जि हरि सेती चितु लाए ॥७॥ पद्अर्थ: उपजै = पैदा होता है। सुभाए = सही तरीके से, प्रेम से। अरपी = मैं अर्पित करूँ। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा दूँ, मैं दूर करूँ। चला = मैं चलूँ। भाए = प्यार में। विटहु = से। जि = जो।7। अर्थ: जब (मनुष्य को) प्यार से गुरु मिलता है (गुरु की कृपा से) सत्संग में रह कर मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम प्रगट होता है। (मेरी यही अरदास है कि) मैं अपना मन अपना तन (गुरु के) हवाले कर दूँ। मैं (गुरु के आगे) अपना स्वै भाव गवा दूँ, और मैं गुरु के प्रेम में जीवन गुजारूँ। जो गुरु परमात्मा के साथ मेरा चिक्त जोड़ देता है मैं अपने उस गुरु से सदा सदके जाता हूँ।7। सो ब्राहमणु ब्रहमु जो बिंदे हरि सेती रंगि राता ॥ प्रभु निकटि वसै सभना घट अंतरि गुरमुखि विरलै जाता ॥ नानक नामु मिलै वडिआई गुर कै सबदि पछाता ॥८॥५॥२२॥ पद्अर्थ: बिंदे = जानता है। रंगि = प्रेम में। घटअंतरि = हृदय में। सबदि = शब्द के द्वारा।8। अर्थ: (ऊूंची जाति का गुमान व्यर्थ है) वही ब्राहमण है, जो ब्रह्म (प्रभु) को पहचानता है। जो प्रभु के प्रेम में प्रभु के साथ रंगा रहता है। (जातियों का कोई भिन्न-भेद नहीं) प्रभु सभ शरीरों में सभी जीवों के नजदीक बसता है। पर यह बात कोई विरला ही समझता है, जो गुरु की शरण पड़े। हे नानक! गुरु के शब्द में जुड़ने से प्रभु के साथ जान पहिचान बनती है, प्रभु का नाम मिलता है और (लोक परलोक में) आदर मिलता है।8।5।22। सिरीरागु महला ३ ॥ सहजै नो सभ लोचदी बिनु गुर पाइआ न जाइ ॥ पड़ि पड़ि पंडित जोतकी थके भेखी भरमि भुलाइ ॥ गुर भेटे सहजु पाइआ आपणी किरपा करे रजाइ ॥१॥ पद्अर्थ: नो = को। सभ = सारी सृष्टि। सहजु = आत्मिक अडोलता, मन की शांति। पढ़ि = पढ़कर। जोतकी = ज्योतिषी। भेखी = छह भेषों के साधु। भुलाइ = कुमार्ग पर पड़ के। गुर भेटे = गुरु को मिलने से। रजाइ = अपनी रजा में, अपनी मर्जी से।1। अर्थ: सारी सृष्टि मन की शांति के लिए तरसती है। पर गुरु की शरण के बिना यह सहज अवस्था नहीं मिलती। पंडित और ज्योतिषी (शास्त्र आदि धार्मिक पुस्तकें) पड़ पड़ के थक गए (पर सहज अवस्था प्राप्त ना कर सके), छह भेषों के साधु भी भटक भटक के कुमार्ग पर ही पड़े रहे (वे भी सहज अवस्था ना पा सके)। जिस पर परमात्मा अपनी रजा मुताबिक कृपा करता है, वे गुरु को मिल के सहज अवस्था प्राप्त करते हैं।1। भाई रे गुर बिनु सहजु न होइ ॥ सबदै ही ते सहजु ऊपजै हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण के बिना (मनुष्य के अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा नहीं होती। गुरु के शब्द में जुड़ने से ही आत्मिक अडोलता (मन की शांति) पैदा होती है, और वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु मिलता है।1। रहाउ। सहजे गाविआ थाइ पवै बिनु सहजै कथनी बादि ॥ सहजे ही भगति ऊपजै सहजि पिआरि बैरागि ॥ सहजै ही ते सुख साति होइ बिनु सहजै जीवणु बादि ॥२॥ पद्अर्थ: राविआ = महिमा की हुई। थाइ पवै = स्वीकार होता है। कथनी = धार्मिक बातों की कहानी। बादि = व्यर्थ। पिआरि = प्यार में।2। अर्थ: परमात्मा के गुणों का कीर्तन करना भी तभी स्वीकार होता है, जब आत्मिक अडोलता में टिक के किया जाए। आत्मिक अडोलता के बिनां धार्मिक बातें कहना व्यर्थ जाता है। आत्मिक अडोलता में टिकने पर ही (मनुष्य के अंदर परमात्मा की) भक्ति (का जज्बा) पैदा होता है। आत्मिक अडोलता से ही मनुष्य प्रभु के प्यार में टिकता है। (दुनिया से) वैराग में रहता है। आत्मिक अडोलता से आत्मिक आनंद व शान्ति पैदा होती है। आत्मिक अडोलत के बगैर (मनुष्य की सारी) जिंदगी व्यर्थ जाती है।2। सहजि सालाही सदा सदा सहजि समाधि लगाइ ॥ सहजे ही गुण ऊचरै भगति करे लिव लाइ ॥ सबदे ही हरि मनि वसै रसना हरि रसु खाइ ॥३॥ पद्अर्थ: सालाही = (तू) महिमा करना। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। रसना = जीभ।3। अर्थ: (हे भाई!) तू आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक अडोलता में समाधि लगा के सदा परमात्मा की महिमा करते रहना। जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाता है, प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़ के भक्ति करता है, गुरु के शब्द की इनायत से ही उसके मन में परमात्मा आ बसता है। उसकी जीभ परमात्मा के नाम का स्वाद चखती रहती है।3। सहजे कालु विडारिआ सच सरणाई पाइ ॥ सहजे हरि नामु मनि वसिआ सची कार कमाइ ॥ से वडभागी जिनी पाइआ सहजे रहे समाइ ॥४॥ पद्अर्थ: कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। विडारिआ = मारा हुआ।4। अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की शरण पड़ के आत्मिक अडोलता में टिक के जिन्होंने आत्मिक मौत को मार लिया। ये सदा साथ निभने वाली कार करने के कारण उनके अंदर परमात्मा का नाम आ बसता है। और, जिन्होंने परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, वह लोग बड़े भाग्यशाली हो गए, वे सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।4। माइआ विचि सहजु न ऊपजै माइआ दूजै भाइ ॥ मनमुख करम कमावणे हउमै जलै जलाइ ॥ जमणु मरणु न चूकई फिरि फिरि आवै जाइ ॥५॥ पद्अर्थ: दूजै भाइ = किसी और के प्यार में। मनमुख करम = मनमुखों वाले कर्म, वह कर्म जो अपने मन के पीछे चलने वाले लोग करते हैं। न चूकई = नहीं खत्म होता।5। अर्थ: माया (के मोह) में टिके रहने से आत्मिक अडोलता पैदा नहीं होती। माया तो (प्रभु के बिना किसी) और प्यार में (फंसाती है)। ऐसे मानवीय कर्म करने से मनुष्य अहंकार में ही जलता है। (अपने आप को) जलाता है। उसका जनम मरन का चक्कर कभी खत्म नहीं होता, वह मुड़ मुड़ पैदा होता रहता है।5। त्रिहु गुणा विचि सहजु न पाईऐ त्रै गुण भरमि भुलाइ ॥ पड़ीऐ गुणीऐ किआ कथीऐ जा मुंढहु घुथा जाइ ॥ चउथे पद महि सहजु है गुरमुखि पलै पाइ ॥६॥ पद्अर्थ: त्रै गुण = तीन गुण (रजो, तमो, सतो)। घुथा जाइ = वंचित हो जाता है, कुमार्ग पर पड़ जाता है।6। अर्थ: माया (के मोह) में टिके रहने से आत्मिक अडोलता पैदा नहीं होती। माया के तीन गुणों के कारण जीव भटकन में फंस कर गलत राह पे पड़ा रहता है। (इस हालात में) धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का विचारने का व और लोगों को सुनाने का कोई लाभ नहीं होता। क्योंकि, जीव अपने मूल प्रभु से विछुड़ के (गलत जीवन-राह पे) चलता है। (माया के तीन गुणों को लांघ के) चौथी आत्मिक अवस्था में पहुँचने से ही मन की शांति पैदा होती है और यह आत्मिक अवस्था गुरु की शरण पड़ के ही प्राप्त होती है।6। निरगुण नामु निधानु है सहजे सोझी होइ ॥ गुणवंती सालाहिआ सचे सची सोइ ॥ भुलिआ सहजि मिलाइसी सबदि मिलावा होइ ॥७॥ पद्अर्थ: निरगुण नामु = उस परमात्मा का नाम जो माया के तीनों गुणों से ऊपर है। सोइ = शोभा।7। अर्थ: तीनों गुणों से निर्लिप परमात्मा का नाम (सभ पदार्तों का) खजाना है, आत्मिक अडोलता में पहुँचने पर ये समझ पड़ती है। गुणवान जीव ही उस प्रभु की महिमा करते हैं। (जो मनुष्य महिमा करता है वह) सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है, उसकी शोभा भी अटल हो जाती है। (वह परमात्मा इतना दयालु है कि वह शरण आए) गलत राह पर पड़े लोगों को भी आत्मिक अडोलता में जोड़ देता है। गुरु के शब्द की इनायत से उस (वडभागी परमात्मा से) मिलाप हो जाता है।7। बिनु सहजै सभु अंधु है माइआ मोहु गुबारु ॥ सहजे ही सोझी पई सचै सबदि अपारि ॥ आपे बखसि मिलाइअनु पूरे गुर करतारि ॥८॥ पद्अर्थ: सभु = सारा जगत। अंधु = अंधा। गुबारु = घुप अंधेरा। अपारि = अपार में, असीमितता में। मिलाइअनु = उसने मिला लिए हैं। करतारि = कर्तार ने।8। अर्थ: मन की शान्ति के बिनां सारा जगत (माया के मोह में) अंधा हुआ रहता है। (जगत पर) माया के मोह का घोर अंधकार छाया रहता है। सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता में जुड़ के (परमात्मा के गुणों की) सूझ पड़ जाती है, वह उस अपार प्रभु में (तवज्जो जोड़ के रखता है)। (ऐसे भाग्यशाली लोगों को) पूरे गुरु ने कर्तार ने स्वयं ही मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लिया होता है।8। सहजे अदिसटु पछाणीऐ निरभउ जोति निरंकारु ॥ सभना जीआ का इकु दाता जोती जोति मिलावणहारु ॥ पूरै सबदि सलाहीऐ जिस दा अंतु न पारावारु ॥९॥ पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। जोति = प्रकाश स्वरूप। निरंकारु = आकार रहित।9। अर्थ: आत्मिक अडोलता में पहुँच कर उस परमात्मा के साथ सांझ बन जाती है, जो इन आँखों से नही दिखता, जिसको किसी का डर नही, जो केवल प्रकाश ही प्रकाश है, और जिसका कोई खास स्वरूप (बताया) नहीं (जा सकता)। वही परमात्मा सब जीवों को सारी दातें देने वाला है, और सभ की ज्योति (तवज्जो) को अपनी ज्योति में मिलाने के समर्थ है। (हे भाई!) पूरे गुरु के शब्द से उस परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके बड़प्पन का उरला व परला छोर नहीं मिल सकता।9। गिआनीआ का धनु नामु है सहजि करहि वापारु ॥ अनदिनु लाहा हरि नामु लैनि अखुट भरे भंडार ॥ नानक तोटि न आवई दीए देवणहारि ॥१०॥६॥२३॥ पद्अर्थ: करहि = करते हैं। लैनि = लेते हैं। अखुट = ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने। देवणहारि = देवनहार ने, दाता ने।10। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं, परमात्मा का नाम ही उनका (असल) धन बन जाता है। वे आत्मिक अडोलता में टिक के इस नाम धन का ही व्यापार करते हैं। वे हर वक्त (परमात्मा का नाम स्मरण करके) परमात्मा का नाम-लाभ ही कमाते हैं। नाम धन से भरे हुए उनके खजाने कभी खत्म नही होते। हे नानक! ये खजाने दाता दातार ने स्वयं उन्हें दिये हुए हैं, इन खजानों में कभी भी तोट नहीं आती।10।6।23। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |