श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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काइआ रोगु न छिद्रु किछु ना किछु काड़ा सोगु ॥ मिरतु न आवी चिति तिसु अहिनिसि भोगै भोगु ॥ सभ किछु कीतोनु आपणा जीइ न संक धरिआ ॥ चिति न आइओ पारब्रहमु जमकंकर वसि परिआ ॥८॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। छिद्र = नुक्स, छेद, ऐब। काढ़ा = फिक्र, चिन्ता। मिरतु = मृत्यु, मौत। अहि = दिन। निसि = रात। जीइ = जिंद में, दिल में। संक = शंका, झाका। कंकर = किंकर, नौकर। वसि = वश में।8।

अर्थ: यदि किसी मनुष्य के शरीर को कभी कोई रंग ना लगा हो, कोई किसी तरह की तकलीफ़ ना आई हो, किसी तरह की कोई चिन्ता फिक्र उसे ना हो। उसे कभी मौत (का फिक्र) याद ना आई हो। यदि वह दिन रात दुनिया के भोग भोगता रहता हो, यदि उसने दुनिया की हरेक चीज को अपना बना लिया हो, कभी उसके चिक्त में (अपनी मल्कियत के बारे में) कोई शंका ना उठा हो। पर, यदि परमात्मा उसके चिक्त में कभी नहीं आया तो वह अंत में यमराज के दूतों के वश पड़ता है।8।

किरपा करे जिसु पारब्रहमु होवै साधू संगु ॥ जिउ जिउ ओहु वधाईऐ तिउ तिउ हरि सिउ रंगु ॥ दुहा सिरिआ का खसमु आपि अवरु न दूजा थाउ ॥ सतिगुर तुठै पाइआ नानक सचा नाउ ॥९॥१॥२६॥

पद्अर्थ: ओह = वह (साधु संग)। रंगु = प्रेम। तुठै = प्रसन्न होने से।9।

अर्थ: जिस (बड़े भाग्यशाली) मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसे संत संग प्राप्त होता है (और यह एक कुदरती नियम है कि) ज्यों ज्यों वह (सत्संग में बैठना) बढ़ाता जाता है त्यों त्यों परमात्मा से प्यार (भी बढ़ता जाता है)। (पर, दुनिया के मोह और प्रभु चरणों का प्यार इन) दोनों तरफ का मालिक परमात्मा स्वयं है (किसी को माया के मोह में फसाए रखता है, और किसी को गुरु चरणों का प्यार बख्शता है। उस प्रभु के बिनां जीवों के लिए) कोई और दूसरा सहारा नहीं है।

हे नानक! (जब प्रभु की मेहर हो तो वह गुरु मिलाता है, और) गुरु के प्रसन्न होने से सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम प्राप्त हो जाता है।9।1।26।

सिरीरागु महला ५ घरु ५ ॥ जानउ नही भावै कवन बाता ॥ मन खोजि मारगु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नही जानउ = मैं नही जानता। कवन बाता = कौन सी बात? भावै = ठीक लगती है। मन = हे मन! मारगु = रास्ता।1। रहाउ।

अर्थ: मुझे समझ नहीं कि परमात्मा को कौन सी बात ठीक लगती है। हे मेरे मन! तू (वह) रास्ता ढूँढ (जिस पे चलने से प्रभु प्रसन्न हो जाए)।1। रहाउ।

धिआनी धिआनु लावहि ॥ गिआनी गिआनु कमावहि ॥ प्रभु किन ही जाता ॥१॥

पद्अर्थ: धिआनी = समाधिआं लगाने वाले। गिआनी = ज्ञानी, विद्वान। किन ही = किसी खास ने।1।

अर्थ: समाधियां लगाने वाले लोग समाधियां लगाते हैं। विद्वान लोग धर्म चर्चा करते हैं। पर परमात्मा को किसी विरले ने ही समझा है (भाव, इन तरीकों से परमात्मा नही मिलता)।1।

भगउती रहत जुगता ॥ जोगी कहत मुकता ॥ तपसी तपहि राता ॥२॥

पद्अर्थ: भगउती = वैश्नव भक्त। जुगता = युक्ति (व्रत, तुलसी माला आदिक संजम)। तपहि = तप में ही। राता = मस्त।2।

अर्थ: वैश्नव भक्त (व्रत, तुलसी माला, तीर्थ स्नान आदि) संजमों में रहते हैं। जोगी कहते हैं कि हम मुक्त हो गए हैं। तप करने वाले साधु तप (करने) में ही मस्त रहते हैं।2।

मोनी मोनिधारी ॥ सनिआसी ब्रहमचारी ॥ उदासी उदासि राता ॥३॥

पद्अर्थ: मोनी = चुप रहने वाले। उदासि = उदासी भेख में।3।

अर्थ: चुप धारन करने वाले साधु चुप रहते हैं। संयासी (सन्यास में), ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य में) और उदासी उदास वेष में मस्त रहते हैं।3।

भगति नवै परकारा ॥ पंडितु वेदु पुकारा ॥ गिरसती गिरसति धरमाता ॥४॥

पद्अर्थ: नवै परकारा = नौ किस्म की (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, चरण सेवा, अर्चन, बंदना, सख्य अथवा मित्रभाव, दास्य व दास भाव तथा अपना आप अर्पण करना)। गिरसति = गृहस्थ में। धरमात्मा = धर्म में मस्त।4।

अर्थ: (कोई कहता है कि) भक्ति नौ किस्मों की है। पण्डित वेद ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। गृहस्थी गृहस्थ-धर्म में मस्त रहता है।4।

इक सबदी बहु रूपि अवधूता ॥ कापड़ी कउते जागूता ॥ इकि तीरथि नाता ॥५॥

पद्अर्थ: इक सबदी = जो एक ही शब्द बोलते हैं, ‘अलख’ ‘अलख’ कहने वाले। बहुरूपि = बहरूपीए। अवधूता = नंगे। कापड़ी = खास किस्म का चोला आदि कपड़ा पहनने वाले। कउते = कवि, नाटक चेटक व स्वांग दिखा के लोगों को खुश करने वाले। जागूता = जागरा वाले, सदा जागते रहने वाले। इकि = अनेक। तीरथि = तीर्थ पे।5।

अर्थ: अनेक ऐसे हैं जो ‘अलख’ ‘अलख’ पुकारते हैं, कोई बहरूपीए हैं, कोई नांगे हैं। कोई खास किस्म का चोला आदि पहनने वाले हैं। कोई नाटक चेटक स्वांग आदि बना के लोगों को प्रसन्न करते हैं। कई ऐसे हैं जो रातें जाग के गुजारते हैं। एक ऐसे हैं जो (हरेक) तीर्थ पर स्नान करते हैं।5।

निरहार वरती आपरसा ॥ इकि लूकि न देवहि दरसा ॥ इकि मन ही गिआता ॥६॥

पद्अर्थ: निरहार = निर+आहार। निरहार बरती = भूखे रहने वाले। आपरसा = किसी से ना छूने वाले। लूकि = छुप के (रहने वाले)। मन ही = अपने मन में ही। गिआता = ज्ञाता, ज्ञानवान।6।

अर्थ: अनेक ऐसे हैं जो भूखे ही रहते हैं। कई ऐसे हैं जो दूसरों के साथ छूते नहीं हैं (ताकि किसी को छूत ना लग जाए)। अनेक ऐसे हैं जो (गुफा आदि में) छुप के (रहते हैं और किसी को) दर्शन नहीं देते। कई ऐसे हैं जो अपने मन में ही ज्ञानवान बने हुए हैं।6।

घाटि न किन ही कहाइआ ॥ सभ कहते है पाइआ ॥ जिसु मेले सो भगता ॥७॥

पद्अर्थ: घाटि = घट, कमजोर। किन ही = किसी ने भी।7।

अर्थ: (इनमें से) किसी ने भी अपने आप को (किसी और से) कम नहीं कहलवाया। सभी यही कहते हैं कि हमने परमात्मा ढूंढ लिया है। पर (परमात्मा का) भक्त वही है जिसको (परमात्मा ने स्वयं अपने साथ) मिला लिया है।7।

सगल उकति उपावा ॥ तिआगी सरनि पावा ॥ नानकु गुर चरणि पराता ॥८॥२॥२७॥

पद्अर्थ: उकति = दलील। उपावा = उपाय। पावा = मैं पड़ा हूँ। पराता = पड़ा हूँ।8।

अर्थ: पर, मैंने तो ये सारी दलीलें और सारे ही उपाय छोड़ दिए हैं और प्रभु की ही शरण पड़ा हूँ। नानक तो गुरु के चरणों में आ गिरा है।8।2।27।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥

जोगी अंदरि जोगीआ ॥ तूं भोगी अंदरि भोगीआ ॥ तेरा अंतु न पाइआ सुरगि मछि पइआलि जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: सुरगि = स्वर्ग में। मछि = मातृ लोक में। पइआलि = पाताल में।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) जोगियों के अंदर (व्यापक हो के तू स्वयं ही) जोग कमा रहा है। माया के भोग भोगने वालों के अंदर भी तू ही पदार्थ भोग रहा है। स्वर्ग लोक में मातृ लोक में पाताल लोक में (बसते किसी भी जीव ने) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया।1।

हउ वारी हउ वारणै कुरबाणु तेरे नाव नो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नो = को।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मैं सदके हूँ तेरे नाम से। वारे जाता हूँ तेरे नाम पे। कुर्बान हूँ तेरे नाम पर।1। रहाउ।

तुधु संसारु उपाइआ ॥ सिरे सिरि धंधे लाइआ ॥ वेखहि कीता आपणा करि कुदरति पासा ढालि जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: सिरे सिरि = हरेक जीव के सिर पर। वेखहि = तू देखता है, तू संभाल करता है। करि कुदरति = कुदरत रच के। पासा ढालि = पासा ढाल के, चौपड़ की नरदें फेंक के।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) तूने ही जगत पैदा किया है। हरेक जीव पर (उनके किये कर्मों के लेख लिख के जीवों को तूने ही माया के) धंधों में फंसाया हुआ है। तू कुदरति रच के (जगत चौपड़ की) जीव-नरदें फेंक के तू स्वयं ही अपने रचे जगत की संभाल कर रहा है।2।

परगटि पाहारै जापदा ॥ सभु नावै नो परतापदा ॥ सतिगुर बाझु न पाइओ सभ मोही माइआ जालि जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: परगटि पहारै = दिखाई देते पसारे में। नावै नो = (प्रभु के) नाम को। सभु = हरेक जीव। परतापदा = प्रताप है। सभ = सारी सृष्टि। जालि = जाल में।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा इस दिखाई देते जगत पसारे में (बसता) दिखाई दे रहा है। हरेक जीव उस प्रभु के नाम की लालसा रखता है। पर, गुरु की शरण के बगैर किसी को प्रभु का नाम नहीं मिला (क्योंकि) सारी सृष्टि माया के जाल में फंसी हुई है।3।

सतिगुर कउ बलि जाईऐ ॥ जितु मिलिऐ परम गति पाईऐ ॥ सुरि नर मुनि जन लोचदे सो सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ ॥४॥

पद्अर्थ: बलि जाईऐ = कुर्बान जाएं। कउ = से। जितु मिलिऐ = जिस (गुरु) को मिलके। परम गति = सभसे ऊूंची आत्मिक अवस्था। सुरि = देवते। सतिगुरि = गुरु ने।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु से कुर्बान जाना चाहिए (क्योंकि) उस (गुरु) के मिलने से ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल की जा सकती है। (जिस नाम पदार्थ को) देवते, मनुष्य, मौनधारी लोग तरसते आ रहें हैं वह (पदार्थ) सत्गुरू ने समझा दिया है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh