श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतसंगति कैसी जाणीऐ ॥ जिथै एको नामु वखाणीऐ ॥ एको नामु हुकमु है नानक सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ ॥५॥

पद्अर्थ: जिथै = जिस जगह पर।5।

अर्थ: किस तरह के एकत्र को सत संगति समझना चाहिए? (सतसंगति वह है) जहाँ सिर्फ परमात्मा का नाम सलाहा जाता है। हे नानक! सतिगुरु ने ये बात समझा दी है कि (सतसंगति में) सिर्फ परमात्मा का नाम जपना ही (प्रभु का) हुक्म है।5।

इहु जगतु भरमि भुलाइआ ॥ आपहु तुधु खुआइआ ॥ परतापु लगा दोहागणी भाग जिना के नाहि जीउ ॥६॥

पद्अर्थ: भरमि = माया की भटकना में (डाल के)। भुलाइआ = कुमार्ग पर डाला है। आपहु तुधु = तू अपने आप से (हे प्रभु!)। खुआइआ = वंचित कर दिया है। परतापु = प्रताप, दुख।6।

अर्थ: ये जगत माया की भटकना में पड़ के जीवन के सही राह से भटक के कुमार्ग पर जा रहा है। (पर, जीवों के भी क्या वश? हे प्रभु!) तूने स्वयं ही (जगत को) अपने आप से विछोड़ा हुआ है। जिस दुर्भागी जीव स्त्रीयों के अच्छे भाग्य नहीं होते, उनको (माया के मोह में फंसने के कारण आत्मिक) दुख लगा हुआ है।6।

दोहागणी किआ नीसाणीआ ॥ खसमहु घुथीआ फिरहि निमाणीआ ॥ मैले वेस तिना कामणी दुखी रैणि विहाइ जीउ ॥७॥

पद्अर्थ: खसमहु = खसम से। वेस = कपड़े। तिना कामणी = उन स्त्रीयों के। रैणि = रजनि, जिंदगी की रात। विहाइ = बीतती है।7।

अर्थ: दुर्भाग्यशाली जीव स्त्रीयों के क्या लक्षण हैं? (दुर्भाग्यशाली जीव स्त्रीयां वह हैं) जो खसम प्रभु से वंचित हैं और बेआसरा हो के भटक रही हैं। ऐसी जीव स्त्रीयों के चेहरे भी विकारों की मैल के साथ भ्रष्ट हुए दिखाई देते हैं, उनकी जिंदगी-रूप रात दुखों में ही व्यतीत होती है।7।

सोहागणी किआ करमु कमाइआ ॥ पूरबि लिखिआ फलु पाइआ ॥ नदरि करे कै आपणी आपे लए मिलाइ जीउ ॥८॥

पद्अर्थ: पूरबि = पहले जनम में। करे कै = कर के।8।

अर्थ: जो जीव-स्त्रीयां भाग्यशाली कहलाती हैं उन्होंने कौन सा (अच्छा काम) किया हुआ है? उन्होंने पिछले जन्म में की नेक कमायी के लिखे संस्कारों के तौर पर अब परमात्मा का नाम फल प्राप्त कर लिया है। परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करके खुद ही उनको अपने चरणों में मिला लेता है।8।

हुकमु जिना नो मनाइआ ॥ तिन अंतरि सबदु वसाइआ ॥ सहीआ से सोहागणी जिन सह नालि पिआरु जीउ ॥९॥

पद्अर्थ: सहीआं = सहेलियां, सत्संगी। सह नालि = खसम प्रभु के साथ।9।

अर्थ: परमात्मा जिस जीव-स्त्रीयों को अपना हुक्म मानने के लिए प्रेरता है, वह अपने दिल में परमात्मा की महिमा की वाणी बसाती हैं। वही जीव सहेलियां भाग्यशाली होती हैं, जिनका अपने पति प्रभु के साथ प्यार बना रहता है।9।

जिना भाणे का रसु आइआ ॥ तिन विचहु भरमु चुकाइआ ॥ नानक सतिगुरु ऐसा जाणीऐ जो सभसै लए मिलाइ जीउ ॥१०॥

पद्अर्थ: रसु = आनंद। भरमु = भटकना। सभसै = सभ जीवों को।10।

अर्थ: जिस मनुष्यों को परमात्मा की रजा में चलने का आनंद आ जाता है, वे अंदर से माया वाली भटकना दूर कर लेते हैं (पर यह मेहर सतिगुरु की ही है)। हे नानक! गुरु ऐसा (दयाल) है कि वह (शरण आए) सभ जीवों को प्रभु चरणों में मिला देता है।10।

सतिगुरि मिलिऐ फलु पाइआ ॥ जिनि विचहु अहकरणु चुकाइआ ॥ दुरमति का दुखु कटिआ भागु बैठा मसतकि आइ जीउ ॥११॥

पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिऐ = यदि सत्गुरू मिल जाए। जिनि = जिस ने। अहकरण = अहंकार। मसतकि = माथे पर।11।

अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने अंदर से अहंकार दूर कर लिया, उसने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम रस प्राप्त कर लिया। उस मनुष्य के अंदर से बुरी मति का दुख काटा जाता है, उसके माथे के भाग्य जाग पड़ते हैं।11।

अम्रितु तेरी बाणीआ ॥ तेरिआ भगता रिदै समाणीआ ॥ सुख सेवा अंदरि रखिऐ आपणी नदरि करहि निसतारि जीउ ॥१२॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला रस। रिदै = हृदय में। अंदरि रखिऐ = यदि दिल में रखा जाए। सुखसेवा = सुखदायी सेवा। करहि = करता है। निसतारि = तू पार लंघाता है।12।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी महिमा की वाणी (मानो) आत्मिक जीवन देने वाला जल है, ये वाणी तेरे भगतों के दिल में (हर वक्त) टिकी रहती है। तेरी सुखदायी सेवा भक्ति भक्तों के अंदर टिकने के कारण तू उन पर अपनी मेहर की निगाह करता है और उनको पार लंघा लेता है।12।

सतिगुरु मिलिआ जाणीऐ ॥ जितु मिलिऐ नामु वखाणीऐ ॥ सतिगुर बाझु न पाइओ सभ थकी करम कमाइ जीउ ॥१३॥

पद्अर्थ: पाइओ = पाया, मिला। करम = (तीर्थ, व्रत आदि धार्मिक) कर्म।13।

अर्थ: तभी (किसी भाग्यशाली को) गुरु से मिला हुआ समझना चाहिए जब गुरु के मिलने से परमात्मा का नाम स्मरण किया जाए। गुरु की शरण पड़े बिना (परमात्मा का नाम) नहीं मिलता। (गुरु का आसरा छोड़ के) सारी दुनिया (तीर्थ व्रत आदि और-और निहित धार्मिक) कर्म कर के खप जाती है।13।

हउ सतिगुर विटहु घुमाइआ ॥ जिनि भ्रमि भुला मारगि पाइआ ॥ नदरि करे जे आपणी आपे लए रलाइ जीउ ॥१४॥

पद्अर्थ: विटहु = में से। घुमाइआ = कुर्बान। जिनि = जिस ने। भ्रमि = भटकना में (पड़ के)। भुला = कुमार्ग पर पड़ा हुआ। मारगि = रास्ते पर।14।

अर्थ: मैं (तो) गुरु पर से कुर्बान हूँ, जिसने भटक रहे कुमार्ग पर पड़े जीव को सही रास्ते पर डाला है। अगर गुरु अपनी मेहर की निगाह करे, तो वह स्वयं ही (प्रभु चरणों में) जोड़ देता है।14।

तूं सभना माहि समाइआ ॥ तिनि करतै आपु लुकाइआ ॥ नानक गुरमुखि परगटु होइआ जा कउ जोति धरी करतारि जीउ ॥१५॥

पद्अर्थ: तिनि करतै = उस कर्तार ने। आपु = अपने आप को। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। जा कउ = जिस को। करतारि = कर्तार ने।15।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सारे जीवों में व्यापक है। (हे भाई! सारे जीवों में व्यापक होते हुए भी) उस कर्तार ने अपने आप को गुप्त रखा हुआ है। हे नानक! जिस मनुष्य के अंदर गुरु के द्वारा कर्तार ने अपनी ज्योति प्रगट की हुई है, उसके अंदर कर्तार प्रगट हो जाता है।15।

आपे खसमि निवाजिआ ॥ जीउ पिंडु दे साजिआ ॥ आपणे सेवक की पैज रखीआ दुइ कर मसतकि धारि जीउ ॥१६॥

पद्अर्थ: खसमि = खसम ने। निवाजिआ = मेहर की, बड़प्पन दिया। जिउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। दे = दे कर। पैज = लज्जा, इज्जत। दुइ कर = दोनों हाथ। धारि = रख के।16।

अर्थ: पति प्रभु ने (अपने सेवक को) स्वयं ही आदर मान दिया है, जिंद और शरीर दे के खुद ही उसको पैदा किया है। अपने दोनों हाथ सेवक के सिर पर रख कर खसम प्रभु ने खुद ही उसकी लज्जा रखी है (और उसको विकारों से बचाया है)।16।

सभि संजम रहे सिआणपा ॥ मेरा प्रभु सभु किछु जाणदा ॥ प्रगट प्रतापु वरताइओ सभु लोकु करै जैकारु जीउ ॥१७॥

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश में करने के साधन। सभि = सारे। रहे = रह गए, असफल हो गए। सभु लोकु = सारा जगत।17।

अर्थ: इन्द्रियों को वश में करने के सारे प्रयत्न और इस तरह की और सभी सियानप भरे निहित धार्मिक कर्म सेवक को करने की जरूरत नहीं पड़ती। प्यारा प्रभु सेवक की हरेक आवश्यक्ता स्वयं जानता है। परमात्मा अपने सेवक का तेज प्रताप प्रगट कर देता है। सारा जगत उसकी जै जैकार करता है।17।

मेरे गुण अवगन न बीचारिआ ॥ प्रभि अपणा बिरदु समारिआ ॥ कंठि लाइ कै रखिओनु लगै न तती वाउ जीउ ॥१८॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। बिरदु = मूल स्वभाव। समारिआ = चेते रखा, याद रखा। कंठि = गले से। रखिओनु = उस ने रक्षा की।18।

अर्थ: प्रभु ने ना मेरे गुणों का ख्याल किया है, ना ही मेरे अवगुणों की परवाह की है। प्रभु ने तो सिर्फ अपना दया वाला मूल स्वभाव ही चेते रखा है। उसने मुझे अपने गले से लगा के (विकारों से) बचा लिया है, कोई दुख विकार मेरा बाल भी बाँका नही कर सके।18।

मै मनि तनि प्रभू धिआइआ ॥ जीइ इछिअड़ा फलु पाइआ ॥ साह पातिसाह सिरि खसमु तूं जपि नानक जीवै नाउ जीउ ॥१९॥

पद्अर्थ: मनि = मन में, मन से। तनि = तन में, तन से। जीअ = जीअ में। जीअ इछिअड़ा = जिसकी जीअ में इच्छा की। सिरि = सिर पर।19।

अर्थ: मैंने अपने मन में प्रभु को स्मरण किया है, अपने हृदय में परमात्मा को ध्याया है। मुझे वह नाम-फल मिल गया है, जिसकी मैं सदा अपने जी में इच्छा रखा करता था।

हे प्रभु! तू सारे शाहों के सिर पर, तू बादशाहों के सिर पर मालिक है। हे नानक! (बड़े भाग्यों वाला मनुष्य) प्रभु का नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh