श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तुधु आपे आपु उपाइआ ॥ दूजा खेलु करि दिखलाइआ ॥ सभु सचो सचु वरतदा जिसु भावै तिसै बुझाइ जीउ ॥२०॥

पद्अर्थ: आपै = स्वयं ही। आपु = अपने आप को। दूजा खेलु = अपने से अलग तमाशा। करि = कर के, पैदा कर के। सभु = हर जगह। सचो सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही। भावै = चाहता है।20।

अर्थ: हे प्रभु! तूने अपने आप को (जगत रूप में) स्वयं ही प्रगट किया है। (ये तुझसे अलग दिखाई देता) माया का जगत तमाशा तूने स्वयं ही बना के दिखा दिया है।

(हे भाई!) हर जगह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही मौजूद है। जिस पर वह मेहर करता है, उसको (यह भेद) समझा देता है।20।

गुर परसादी पाइआ ॥ तिथै माइआ मोहु चुकाइआ ॥ किरपा करि कै आपणी आपे लए समाइ जीउ ॥२१॥

पद्अर्थ: गुरपरसादी = गुरु की कृपा से। तिथै = उस (हृदय) में। चुकाइआ = दूर कर दिया।21।

अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से (परमात्मा की सर्व व्यापकता का भेद) पा लिया है, उसके हृदय में से प्रभु ने माया का मोह दूर कर दिया है। प्रभु अपनी मेहर करके खुद ही उसको अपने में लीन कर लेता है।21।

गोपी नै गोआलीआ ॥ तुधु आपे गोइ उठालीआ ॥ हुकमी भांडे साजिआ तूं आपे भंनि सवारि जीउ ॥२२॥

पद्अर्थ: नै = नदी,यमुना नदी। गोआलीआ = गोपाल, गाऐं चराने वाला। गोपी = गुआलनि। गोइ = धरती।22।

नोट: यहाँ कृष्ण जी के पर्वत उठाने की ओर इशारा है।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही (गोकुल की) गोपी है, तू स्वयं ही (यमुना) नदी है, तू स्वयं ही (गोकुल का) ग्वाला है। तूने स्वयं ही (कृष्ण रूप हो के) धरती (गौवर्धन पर्वत) उठाई थी। तू अपने हुक्म में स्वयं ही जीवों के शरीर सजाता है, तू खुद ही नाश करता है, तू खुद ही पैदा करता है।22।

जिन सतिगुर सिउ चितु लाइआ ॥ तिनी दूजा भाउ चुकाइआ ॥ निरमल जोति तिन प्राणीआ ओइ चले जनमु सवारि जीउ ॥२३॥

पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। भाउ = प्यार। निरमल = विकारों की मैल से रहित। ओइ = वह लोग। सवारि = सवार के, सुंदर बन के।23।

नोट: ‘जिन’ बहुवचन है। ‘जिनि’ एकवचन है।

नोट: ‘ओइ’ बहुवचन है।

अर्थ: जिस (भाग्यशाली) मनुष्यों ने गुरु के साथ प्यार डाला है, उन्होंने अपने अंदर से माया का प्यार दूर कर लिया है। उन लोगों की आत्मिक ज्योति पवित्र हो जाती है। वह अपना जन्म स्वच्छ करके (जगत से) जाते हैं।23।

तेरीआ सदा सदा चंगिआईआ ॥ मै राति दिहै वडिआईआं ॥ अणमंगिआ दानु देवणा कहु नानक सचु समालि जीउ ॥२४॥१॥

पद्अर्थ: दिहै = दिन में। वडिआईआं = स्तुति, सालाहनाएं। सचु समालि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को याद रख।24।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे सदा कायम रहने वाले गुण (तेरी मेहर से) मैं दिन रात सलाहता हूँ।

हे नानक! कह: प्रभु (जीवों के) मांगने के बिनां ही हरेक दात बख्शने वाला है। (हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु को अपने हृदय में बसाए रख।24।1।

सिरीरागु महला ५ ॥ पै पाइ मनाई सोइ जीउ ॥ सतिगुर पुरखि मिलाइआ तिसु जेवडु अवरु न कोइ जीउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पै = पड़ के, गिर के। पाइ = पैरों पे। मनाई = मैं मनाता हूँ। पुरखि = पुरख ने। सतिगुर पुरखि = सत्गुरू पुरख ने।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) मैं (गुरु के) चरणों में लग के उस (परमात्मा) को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता हूँ। गुरु पुरुष ने (मुझे) परमात्मा मिलाया है। (अब मुझे समझ आई है कि) उस परमात्मा के बराबर और कोई नहीं है।1। रहाउ।

गोसाई मिहंडा इठड़ा ॥ अम अबे थावहु मिठड़ा ॥ भैण भाई सभि सजणा तुधु जेहा नाही कोइ जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: गोसाई = सृष्टि का साईं, परमात्मा। मिहंडा = मेरा। इठड़ा = बहुत प्यारा। अंम = अम्मा, माँ। अबा = अब्बा, पिता। थावहु = से। सभि = सारे।1।

अर्थ: सृष्टि का मालिक मेरा (प्रभु) बहुत प्यारा है। (मुझे अपने) माता-पिता से भी ज्यादा मीठा लग रहा है।

(हे प्रभु!) बहिन भाई व अन्य सारे साक-संबंधी (मैंने देख लिए हैं), तेरे बराबर का और कोई (हित करने वाला) नहीं है।1।

तेरै हुकमे सावणु आइआ ॥ मै सत का हलु जोआइआ ॥ नाउ बीजण लगा आस करि हरि बोहल बखस जमाइ जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: हुकमै = हुक्म में। सावणु = नाम वरखा करने वाला गुरु मिलाप। सत = उच्च आचरण। करि = कर के। बोहल = अन्न का ढेर। बोहल बख्श = बख्शिश का बोहल।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे हुक्म में ही (गुरु से मिलाप हुआ। मानो, मेरे वास्ते) सावन का महीना आ गया। (गुरु की कृपा से) मैंने उच्च आचरण बनाने का हल जोत दिया। मैं यह आस करके तेरा नाम (अपने हृदय रूपी खेत में) बीजने लग पड़ा कि तेरी बख्शिशों का बोहल (अन्न का ढेर) इकट्ठा हो जाएगा।2।

हउ गुर मिलि इकु पछाणदा ॥ दुया कागलु चिति न जाणदा ॥ हरि इकतै कारै लाइओनु जिउ भावै तिंवै निबाहि जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। गुर मिलि = गुरु को मिल के। दुया कागलु = दूसरा कागज, परमात्मा के नाम के बिना और कोई लेखा। चिति = चित्रण। चिति न जाणदा = चित्रना नहीं जानता। इकतै कारै = एक ही कार्य में। लाइओनु = उस ने लगाया है।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) गुरु को मिल के मैंने सिर्फ तेरे नाम के साथ सांझ डाली है। मैं तेरे नाम के बिनां और कोई लेखा लिखना नहीं जानता। हे हरि! तूने मुझे (अपना नाम स्मरण करने के ही) एक ही काम में जोड़ दिया है। अब जैसे तेरी रजा हो, इस काम को सरअंजाम दे।3।

तुसी भोगिहु भुंचहु भाईहो ॥ गुरि दीबाणि कवाइ पैनाईओ ॥ हउ होआ माहरु पिंड दा बंनि आदे पंजि सरीक जीउ ॥४॥

पद्अर्थ: भाईहो = हे भाईयो! गुरि = गुर ने। दीबाणि = दरबार में। कवाइ = पोशाक, सिरोपा। माहरु = चौधरी। पिंड दा = शरीर का। बंनि = बांध के। आदे = ले के आए। सरीक = शरीका करने वाले, विरोधी।4।

अर्थ: हे मेरे सत्संगी भाईयो! तुम भी (गुरु की शरण में आ के) प्रभु के नाम रस का आनंद लो। मुझे गुरु ने परमात्मा की दरगाह में सिरोपा (आदर का प्रतीक कपड़ा) पहिना दिया है (आदर दिलवा दिया है, क्योंकि) मैं अब अपने शरीर का चौधरी (मुखिया) बन गया हूँ, (गुरु की मेहर से) मैंने (कामादिक) पाँचों ही विरोध करने वालों को ला बैठाया है।4।

हउ आइआ साम्है तिहंडीआ ॥ पंजि किरसाण मुजेरे मिहडिआ ॥ कंनु कोई कढि न हंघई नानक वुठा घुघि गिराउ जीउ ॥५॥

पद्अर्थ: सामै = शरण में। तिहंडीआ = तेरी। मुजेरे = मुजारे। मिहडिआ = मेरे। कंनु = कान, कांधा। हंघई = सकता। वुठा = बस पड़ा है। घुघि = संघनी आबादी वाला। गिराउ = ग्राम, गांव।5।

अर्थ: हे नानक! (कह, हे मेरे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ। (तेरी मेहर से) पाँचों (ज्ञान-इंद्रिय) किसान मेरे मुजारे बन गए हैं (मेरे कहे में चलते हैं)। कोई (भी ज्ञानेंद्रिय रूपी किसान मुझसे आकी हो के) सिर नहीं उठा सकता। अब मेरा शरीर रूपी नगर (भले गुणों की) संघनी आबादी से बस गया है।5।

हउ वारी घुमा जावदा ॥ इक साहा तुधु धिआइदा ॥ उजड़ु थेहु वसाइओ हउ तुध विटहु कुरबाणु जीउ ॥६॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। घुंमा जावदा = कुर्बान जाता हूँ। साहा = हे शाह! तुधु = तूझे। थेहु = गिरा हुआ गाँव, वह शरीर रूपी गाँव जिसमें से सारे भले गुण खत्म हो चुके हैं।6।

अर्थ: (हे मेरे शाह-प्रभु!) मैं तुझसे सदके जाता हूँ, मैं तूझसे कुर्बान जाता हूँ। में सिर्फ तुझे ही अपने दिल में टिकाए बैठा हूँ। (हे मेरे शाह प्रभु!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ तूने मेरा उजड़ा हुआ थेह हुआ हृदय-घर बसा दिया है।6।

हरि इठै नित धिआइदा ॥ मनि चिंदी सो फलु पाइदा ॥ सभे काज सवारिअनु लाहीअनु मन की भुख जीउ ॥७॥

पद्अर्थ: इठै = प्यारे को। मनि = मन में। चिंदी = चितवता हूँ। सभे काज = सार काम। सवारिअनु = उसने सवार दिए हैं। लाहीअनि = उसने उतार दी है।7।

अर्थ: (हे भाई!) मैं अब सदा सदा प्यारे हरि को ही स्मरण करता हूँ। अपने मन में मैं जो इच्छा धारे बैठा था, वह नाम फल अब मैंने पा लिया है। उस (प्रभु) ने मेरे सारे काम सवार दिए हैं, मेरे मन की माया वाली भूख उसने दूर कर दी है।7।

मै छडिआ सभो धंधड़ा ॥ गोसाई सेवी सचड़ा ॥ नउ निधि नामु निधानु हरि मै पलै बधा छिकि जीउ ॥८॥

पद्अर्थ: सभो = सारा। धंधड़ा = माया वाली दौड़ भाग। सेवी = मैं स्मरण करता हूँ। सचड़ा = सदा स्थिर रहने वाला। नउ निधि = जगत के नौ ही खजाने। निधान = खजाना। छिकि = कस के, खींच के।8।

अर्थ: (हे भाई! नाम जपने की इनायत से) मैंने दुनिया वाला सारा लालच छोड़ दिया है। मैं सदा स्थिर रहने वाले सृष्टि के मालिक प्रभु को ही स्मरण करता रहता हूँ। (अब) परमात्मा का नाम खजाना ही (मेरे वास्ते) जगत के नौ खजाने हैं, मैंने उस नाम धन को अपने (हृदय के) पल्ले में कस के बांध लिया है।8।

मै सुखी हूं सुखु पाइआ ॥ गुरि अंतरि सबदु वसाइआ ॥ सतिगुरि पुरखि विखालिआ मसतकि धरि कै हथु जीउ ॥९॥

पद्अर्थ: सुखी हूँ सुखु = सुख ही सुख, सबसे श्रेष्ठ सुख। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। पुरखि = पुरख ने। मसतकि = मस्तक पर।9।

अर्थ: गुरु ने मेरे दिल में परमात्मा की महिमा का शब्द बसा दिया है (उसकी इनायत से) मैं (दुनिया के) सारे सुखों से बढ़िया उत्तम आत्मिक सुख ढूँढ लिया है। गुरु पुरख ने सिर पर अपना (मेहर भरा) हाथ रख के मुझे (परमात्मा का) दर्शन करा दिया है।9।

मै बधी सचु धरम साल है ॥ गुरसिखा लहदा भालि कै ॥ पैर धोवा पखा फेरदा तिसु निवि निवि लगा पाइ जीउ ॥१०॥

पद्अर्थ: धरमसाल = धर्म कमाने की जगह। सचु = सदा स्थिर प्रभु का स्मरण। बधी = बनायी है। लहदा = मिलता हूँ। तिसु = उस (गुरसिख) को (जो मुझे मिलता है)। निवि = झुक के।10।

अर्थ: गुरु के सिखों को मैं (यत्न से) ढूँढ के मिलता हूँ। उनकी संगति में बैठना मैंने धर्मशाला बनायी है। जहाँ मैं सदा स्थिर प्रभु को स्मरण करता हूँ। (जो गुरसिख मिल जाए) मैं (जरूरत के मुताबिक) उसके पैर धोता हूं, उसको पंखे से खुद हवा देता हूँ। मैं पूरे अदब से उसकी पैरीं लगता हूँ।10।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh