श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 74 सुणि गला गुर पहि आइआ ॥ नामु दानु इसनानु दिड़ाइआ ॥ सभु मुकतु होआ सैसारड़ा नानक सची बेड़ी चाड़ि जीउ ॥११॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। पहि = पास। दानु = नाम का दान, और लोगों को नाम जपाना। इसनानु = आत्मिक स्नान, पवित्रता। मुकतु = विकारों से आजाद। सैसारड़ा = बिचारा संसार। सची बेड़ी = सदा स्थिर प्रभु के नाम की बेड़ी में। चाढ़ि = चढ़ के।11। अर्थ: हे नानक! गुरु (जिस जिस को) सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की बेड़ी में बैठाता है वह सारा जगत ही विकारों से बचता जाता है - ये बात सुन के मैं भी गुरु के पास आ गया हूँ, और उसने मेरे हृदय में यह बैठा दिया है किनाम स्मरणा, और लोगों को नाम जपने की ओर प्रेरित करना, पवित्र जीवन बनाना- यही है सही जीवन का राह।11। सभ स्रिसटि सेवे दिनु राति जीउ ॥ दे कंनु सुणहु अरदासि जीउ ॥ ठोकि वजाइ सभ डिठीआ तुसि आपे लइअनु छडाइ जीउ ॥१२॥ पद्अर्थ: दे कंनु = कान दे के, पूरे ध्यान से। सुणहु = (हे प्रभु जी!) तुम सनते हो। ठोकि वजाइ = ठनका के, ठोक बजा के, अच्छी तरह परख के। तुसि = प्रसन्न हो के। लइअनु = उस प्रभु ने लिए हैं।12। अर्थ: (हे प्रभु!) सारी सृष्टि दिन रात तेरी ही सेवा भक्ति करती है। तू (हरेक जीव की) अरदास ध्यान से सुनता है। (हे भाई!) मैंने सारी दुनिया को अच्छी तरह परख के देख लिया है (जिस जिस को विकारों से छुड़ाया है) प्रभु ने खुद ही छुड़ाया है।12। हुणि हुकमु होआ मिहरवाण दा ॥ पै कोइ न किसै रञाणदा ॥ सभ सुखाली वुठीआ इहु होआ हलेमी राजु जीउ ॥१३॥ पद्अर्थ: पै = जोर डाल के। कोइ = कोई भी कामादिक विकार। रवाणदा = दुखी करता। वुठीआ = वश में पड़ी है। हलेमी राजु = विनम्र स्वभाव का राज।13। अर्थ: (जिस जिस पर प्रभु की मेहर हुई है वह) सारा संसार (अंतर आत्मे) आत्मिक आनन्द में बस रहा है, (हरेक के अंदर) इस निम्रता का राज हो गया है। मिहरवान प्रभु का अब ऐसा हुक्म वरता है कि कोई भी कामादिक विकार (शरण आए) किसी को भी दुखी नहीं कर सकते।13। झिमि झिमि अम्रितु वरसदा ॥ बोलाइआ बोली खसम दा ॥ बहु माणु कीआ तुधु उपरे तूं आपे पाइहि थाइ जीउ ॥१४॥ पद्अर्थ: झिंम झिंम = हल्का हल्का, धीरे-धीरे, आत्मिक अडोलता में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाली नाम वर्षा। बोली = मैं बोलता हूँ। पाइहि = तू पाता है। थाइ = जगह में।14। अर्थ: हे प्रभु! हे मेरे पति!! मैं भी तेरी ही प्रेरणा से तेरी महिमा के बोल बोल रहा हूँ। आत्मिक अडोलता पैदा करके तेरा नाम-अमृत मेरे अंदर वर्षा कर रहा है। मैं तेरे ऊपर ही मान (गर्व) करता आया हूँ (मुझे निष्चय है कि) तू स्वयं ही (मुझे) स्वीकार कर लेगा।14। तेरिआ भगता भुख सद तेरीआ ॥ हरि लोचा पूरन मेरीआ ॥ देहु दरसु सुखदातिआ मै गल विचि लैहु मिलाइ जीउ ॥१५॥ पद्अर्थ: पूरन = पूरी कर। लोचा = चाहत, आस।15। अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति करने वाले भाग्यशालियों को सदा तेरे दर्शनों की भूख लगी रहती है। हे हरि! मेरी भी ये तमन्ना पूरी कर। हे सुखों को देने वाले प्रभु! मुझे अपना दर्शन दे, मुझे अपने गले से लगा ले।15। तुधु जेवडु अवरु न भालिआ ॥ तूं दीप लोअ पइआलिआ ॥ तूं थानि थनंतरि रवि रहिआ नानक भगता सचु अधारु जीउ ॥१६॥ पद्अर्थ: दीप = द्वीपों में, देशों में। लोअ = (चौदह) लोकों में। थानि = जगह में। थनंतरि = थान+अंतर, और जगह में। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। सचु = सच, सदा स्थिर प्रभु का नाम। अधारु = आसरा।16। अर्थ: हे प्रभु! तू सारे देशों में सारे भवनों मेंऔर पातालों में बसता है। तेरे बराबर का कोई और (कहीं भी) नहीं मिलता। हे प्रभु! तू हरेक जगह में व्याप्त है। हे नानक! प्रभु की भक्ति करने वाले लोगों को सदा स्थिर प्रभु का नाम ही (जीवन के लिए) सहारा है।16। हउ गोसाई दा पहिलवानड़ा ॥ मै गुर मिलि उच दुमालड़ा ॥ सभ होई छिंझ इकठीआ दयु बैठा वेखै आपि जीउ ॥१७॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। गोसाई = सृष्टि का मालिक प्रभु। पहिलवानड़ा = छोटा सा पहिलवान। गुर मिलि = गुरु को मिल के। उच दुमालड़ा = ऊँचे दुमाले वाला। नोट: अखाड़े में जीतने वाले पहिलवान को ‘माली’ मिलती है। वह ‘माली’ व सिरोपा वह अपने सिर पे बांध कर ऊँचा तुरला छोड़ के अखाड़े में चारों तरफ घूमता है ता कि लोग देख लें। छिंझ = कुश्ती देखने आए लोगों की भीड़। दयु = प्यारा प्रभु।17। अर्थ: मैं मालिक प्रभु का अन्जान सा पहिलवान था। पर, गुरु को मिल के मैं ऊंचे दुमाले वाला (विजयी) बन गया हूँ। जगत अखाड़े में सारे जीव आ इकट्ठे हुए हैं, और (इस अखाड़े को) प्यारा प्रभु स्वयं बैठा देख रहा है।17। वात वजनि टमक भेरीआ ॥ मल लथे लैदे फेरीआ ॥ निहते पंजि जुआन मै गुर थापी दिती कंडि जीउ ॥१८॥ पद्अर्थ: वात = मुंह से बनजे वाले बाजे। टमक = छोटे नगारे। भेरीआ = छोटा नगारा। मल = पहिलवान। निहते = काबू कर लिए। गुरि = गुरु ने। कंडि = पीठ पर।18। अर्थ: बाजे बज रहे हैं, ढोल बज रहे हैं, नगारे बज रहे हैं (भाव, सारे जीव माया वाली दौड़ भाग कर रहे हैं) पहिलवान आ के एकत्र हुए हैं, (अखाड़े के चारों ओर, जगत अखाड़े में) फेरियां ले रहे हैं। मेरी पीठ पर (मेरे) गुरु ने थापी दी, तो मैं (विरोधी) पंजे (कामादिक) जवान काबू कर लिए।18। सभ इकठे होइ आइआ ॥ घरि जासनि वाट वटाइआ ॥ गुरमुखि लाहा लै गए मनमुख चले मूलु गवाइ जीउ ॥१९॥ पद्अर्थ: इकठे होइ = इकट्ठे हो के, मनुष्य जन्म ले के। घरि = घर में। जासनि = जाएंगे। वाट वटाइआ = रास्ता बदल के, भिन्न-भिन्न जूनियों में पड़ के। लाहा = लाभ, नफा। मूलु = असल पूंजी।19। अर्थ: सारे (नर-नारी) मनुष्य जन्म ले के आए हैं, पर (यहां अपने-अपने किए कर्मों के मुताबिक) परलोक घर में अलग अलग जूनियों में पड़ के जाएंगे। जो लोग गुरु के बताए राह पर चलते हैं, वे यहां से (हरि नाम का) मुनाफा कमा के जाते हैं। पर अपने मन के पीछे चलने वाले लोग पहिली राशि पूंजी भी गवा जाते हैं (अर्थात, पहिले किए नेक कामों के संस्कार भी बुरे काम करके मिटा लेते हैं)।19। तूं वरना चिहना बाहरा ॥ हरि दिसहि हाजरु जाहरा ॥ सुणि सुणि तुझै धिआइदे तेरे भगत रते गुणतासु जीउ ॥२०॥ पद्अर्थ: वरन = वर्ण, रंग। चिहन = चिन्ह, निशान। हरि = हे हरि! गुणतासु = गुणों का खजाना प्रभु।20। अर्थ: हे प्रभु! तेरा ना कोई खास रंग है और ना कोई खास चक्र-चिन्ह है। फिर भी, हे हरि! तू (सारे जगत में) प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तेरी भक्ति करने वाले लोग तेरी तारीफ सुन सुन के तुझे स्मरण करते हैं। तू गुणों का खजाना है। तेरे भक्त तेरे प्यार में रंगे रहते हैं।20। मै जुगि जुगि दयै सेवड़ी ॥ गुरि कटी मिहडी जेवड़ी ॥ हउ बाहुड़ि छिंझ न नचऊ नानक अउसरु लधा भालि जीउ ॥२१॥२॥२९॥ पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही। दयै = प्यारे (प्रभु की)। सेवड़ी = सुंदर सेवा। गुरि = गुरु ने। जेवड़ी = रस्सी, फाही। मिहडी = मेरी। बाहुड़ि = फिर दुबारा। न नचऊ = मैं नही नाचूँगा। अउसरु = मौका। भालि = ढूँढ के।21। अर्थ: हे नानक! (कह) गुरु ने मेरा (माया के मोह का) फंदा काट दिया है, और मैं सदा ही उस प्यारे प्रभु की खूबसूरत सेवा भक्ति करता रहता हूँ। (गुरु की कृपा से) ढूँढ के मैंने (स्मरण) भक्ति का मौका प्राप्त कर लिया है, अब मैं बार-बार इस जगत अखाड़े में भटकता नहीं फिरूँगा।21।2।9। नोट: यह अंक 29 बताता है कि यहां तक ये सारी ही अष्टपदियां ही हैं। इनका वेरवा यूँ है; —————@————— ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ पहरे घरु १ ॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हुकमि पइआ गरभासि ॥ उरध तपु अंतरि करे वणजारिआ मित्रा खसम सेती अरदासि ॥ खसम सेती अरदासि वखाणै उरध धिआनि लिव लागा ॥ ना मरजादु आइआ कलि भीतरि बाहुड़ि जासी नागा ॥ जैसी कलम वुड़ी है मसतकि तैसी जीअड़े पासि ॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै हुकमि पइआ गरभासि ॥१॥ नोट: पहरे: शीशे, सुरमा, सलाई, चूड़िआं, मुरकियां आदि जनाना श्रृंगार की छोटी छोटी चीजें ले के गाँव गाँव बेचने वाले को वणजारा कहते हैं। अपने नगर शहर से दूर आया हुआ वणजारा रात के चार पहर जिस गाँव रात पड़ी वही गुजारता है। जीव भी बंजारा है। प्रभु दर से दूर यहां संसार में हरि नाम का बणज व्यापार करने आया जीव जिंदगी की चार पहरी रात यहां गुजारता है। पद्अर्थ: रेणि = रात, जिंदगी रूप रात। पहिलै पहरै = पहले पहर में। वणजारिआ मित्रा = हरि नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! हुकमि = परमात्मा के हुक्म अनुसार। गरभासि = मां के गर्भ में। उरध = उर्ध, उल्टा। अंतरि = (मां के पेट) में। सेती = साथ, आगे। अरदासि वखाणै = अरदास करता है। धिआनि = ध्यान में (जुड़ के)। नामरजादु = ना+मर्याद, मर्यादा के बगैर, नंगा। कलि भीतरि = संसार में (कलि का भाव कलियुग नही है। समय का कोई भी नाम रखा जाए, जीव सदा नंगा ही पैदा होता आया है। जिस समय सतिगुरु नानक देव जी जगत में आए, उस समय का नाम कलियुग प्रसिद्ध था। शब्द ‘कलि’ को साधारण तौर पर ‘संसार’ के अर्थ में इस्तेमाल किया गया है। ये शब्द इसी अर्थ में और भी कई जगह वाणी में बर्ता गया है)। बाहुड़ि = पुनः , दुबारा। जासी = जाएगा। वुड़ी है = चली है। मसतकि = माथे पे। तैसी = वैसी पूंजी, वैसा सौदा। अर्थ: हरि के नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के पहले पहर में परमात्मा के हुक्म अनुसार तूने माँ के पेट में आ के निवास लिया है। हे वणजारे जीव मित्र! माँ के पेट में तु उल्टा लटक के तप करता रहा, पति प्रभु के आगे अरदास करता रहा। (माँ के पेट में जीव) उल्टा (लटका हुआ) खसम प्रभु के आगे अरदास करता है, (प्रभु के) ध्यान में (जुड़ता है), (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ता है। जगत में नंगा आता है, दुबारा (यहां से) नंगा ही चला जाएगा। जीव के माथे पे (परमात्मा के हुक्म अनुसार) जैसी (किए कर्मों के संस्कारों की) कलम चलती है (जगत में आने के समय) जीव के पास वैसी ही (आत्मिक जीवन की राशि पूंजी) होती है। हे नानक! कह: जीव ने परमात्मा के हुक्म अनुसार (जिंदगी की रात के) पहिले पहर में माँ के पेट में आ के निवास लिया है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |