श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 75 दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा विसरि गइआ धिआनु ॥ हथो हथि नचाईऐ वणजारिआ मित्रा जिउ जसुदा घरि कानु ॥ हथो हथि नचाईऐ प्राणी मात कहै सुतु मेरा ॥ चेति अचेत मूड़ मन मेरे अंति नही कछु तेरा ॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै मन भीतरि धरि गिआनु ॥ कहु नानक प्राणी दूजै पहरै विसरि गइआ धिआनु ॥२॥ पद्अर्थ: हथो हथि = हरेक (संबंधित) के हाथ में। जसुदा घरि = यशोदा के घर में (गोकुल निवासी नंद की पत्नी यशोदा ने श्री कृष्ण जी को पाला था)। कानु = कान्हा, कृष्ण जी। अचेत मूढ़ मन = हे गाफिल मूर्ख मन! चेति = याद रख। अंति = आखिरी समय। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरि = धर के। गिआनु = जान पहिचान।2। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में (संसार में जनम ले के जीव को परमात्मा के चरणों का वह) ध्यान भूल जाता है (जो उस को माँ के पेट में रहने के समय होता है)। हे बंजारे मित्र! (जन्म ले के जीव घर के) हरेक जीव के हाथ पर (ऐसे) नचाते हैं जैसे यशोधा के घर में श्री कृष्ण जी को। (नव जन्मा) जीव हरेक के हाथ में नचाया जाता है (खिलाया जाता है), माँ कहती है कि ये मेरा पुत्र है। पर, हे मेरे गाफिल मूर्ख मन! याद रख, आखिरी समय में कोई भी चीज तेरी नही बनी रहेगी। जीव अपने मन में उस प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के उसे याद नहीं करता, जिसने इसकी बंतर (रचना) बना कर इसे पैदा किया है। हे नानक! कह - (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में (संसार में जन्म ले के) जीव को प्रभु चरणों का ध्यान भूल जाता है।2। तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा धन जोबन सिउ चितु ॥ हरि का नामु न चेतही वणजारिआ मित्रा बधा छुटहि जितु ॥ हरि का नामु न चेतै प्राणी बिकलु भइआ संगि माइआ ॥ धन सिउ रता जोबनि मता अहिला जनमु गवाइआ ॥ धरम सेती वापारु न कीतो करमु न कीतो मितु ॥ कहु नानक तीजै पहरै प्राणी धन जोबन सिउ चितु ॥३॥ पद्अर्थ: न चेतही = तू नहीं चेतता। बधा = बंधा, (धन जोबन के मोह में) बंधा हुआ। जितु = जिस नाम के द्वारा। बिकुल = व्याकुल, मति हीन। रता = से भीगा, रंगा हुआ। जोबनि = यौवन (के नशे) में। अहिला = आहला, बढ़िया, श्रेष्ठ। करमु = ऊँचा आचरण, श्रेष्ठ कर्म।3। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के तीसरे पहर में तेरा मन धन से तथा जवानी के साथ लग गया है। हे बंजारे मित्र! तू परमात्मा का नाम याद नहीं करता, जिसकी इनायत से तू (धन जोबन के मोह के) बंधनों में से निजात पा सके। जीव माया (के मोह) में इतना खो जाता है कि ये परमात्मा का नाम याद नहीं रखता। मन के रंग में रंगा जाता है, जवानी (के नशे) में मस्ता जाता है, (और इस तरह) श्रेष्ठ मनुष्य जनम गवा लेता है, ना इसने धर्म (भाव, हरि नाम स्मरण) का व्यापार किया, और ना ही इसने उच्च आत्मिक जीवन को अपना मित्र बनाया। हे नानक! कह: (जिंदगी की रात के) तीसरे पहर में जीव ने धन से और जवानी से ही चित्त जोड़े रखा।3। चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा लावी आइआ खेतु ॥ जा जमि पकड़ि चलाइआ वणजारिआ मित्रा किसै न मिलिआ भेतु ॥ भेतु चेतु हरि किसै न मिलिओ जा जमि पकड़ि चलाइआ ॥ झूठा रुदनु होआ दुोआलै खिन महि भइआ पराइआ ॥ साई वसतु परापति होई जिसु सिउ लाइआ हेतु ॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै लावी लुणिआ खेतु ॥४॥१॥ पद्अर्थ: लावी = फसल काटने वाला, यमदूत। जमि = जम ने। न मिलिआ भेतु = समझ ना पड़ी। चेतु = चित्त, इरादा। जा = जब। दुोआले = चारों ओर। हेतु = हित, प्यार। लुणिआ = काटा।4। नोट: ‘‘दुोआले’ के अक्षर ‘द’ में दो मात्राएं ‘ु’ व ‘ो’ लगीं हैं। अर्थ: हरि नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के चौथे पहर (भाव, बुढ़ापा आ जाने पर) (शरीर) खेत को काटने वाला (यम) आ पहुँचा। हे बंजारे मित्र! जब जम ने (आ के जीवात्मा को) पकड़ के आगे लगा लिया तो किसी (संबंधी) को भी ये समझ ना पड़ी कि ये क्या हो गया। परमात्मा के इस हुक्म और भेद की किसी को भी समझ ना पड़ सकी। जब यम ने (जीवात्मा को) पकड़ कर आगे लगा लिया, तो (उसके मृतक शरीर के) के चारों तरफ व्यर्थ का रोना-धोना शुरू हो गया। (वह जिसको सारे ही संबंधी ‘मेरा मेरा’ कहा करते थे) एक छिन में ही वह पराया हो गया। जिससे (सारी उम्र) मोह किए रखा (और उसके अनुसार जो जो कर्म किए, अंत के समय) वह की कमाई सामने आ गई (प्राप्त हो गई)। हे नानक! कह: (जिंदगी की रात के) चौथे पहर (भाव, बुढ़ापा आ जाने पर फसल) काटने वाले (यमदूतों) ने (शरीर) खेत को आ काटा।4।1। सिरीरागु महला १ ॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा बालक बुधि अचेतु ॥ खीरु पीऐ खेलाईऐ वणजारिआ मित्रा मात पिता सुत हेतु ॥ मात पिता सुत नेहु घनेरा माइआ मोहु सबाई ॥ संजोगी आइआ किरतु कमाइआ करणी कार कराई ॥ राम नाम बिनु मुकति न होई बूडी दूजै हेति ॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै छूटहिगा हरि चेति ॥१॥ पद्अर्थ: बालक बुधि = बालक जितनी बुद्धि रखने वाला जीव। अचेतु = बेपरवाह। खीर = दुध। सुत हेतु = पुत्र का प्यार। घनेरा = बहुत। सबाई = सारी सृष्टि को। संजोगी = किए कर्मों के संयोग अनुसार। हेति = मोह में। चेति = चेत के, स्मरण करके।1। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के पहले पहर में (जीव) बालकों की अक्ल वाला (अंजान) होता है। (नाम स्मरण से) बे-परवाह रहता है। हे वणजारे मित्र! (बाल उम्र में जीव माँ का) दूध पीता है और खेलों में ही मस्त रहता है, (उस उम्र में) माता पिता का (अपने) पुत्र से (बड़ा) प्यार होता है। माँ-बाप का पुत्र से बहुत प्यार होता है। माया का (ये) मोह सारी सृष्टि को (ही व्याप रहा है)। (जीव ने पिछले जन्मों में) कर्मों का जो संग्रह कमाया, उनके संजोग अनुसार (जगत में) जन्मा, (और यहां आ के पुनः उनके अनुसार) कर्म करता है, कार कमाता है। दुनिया माया के मोह में डूब रही है, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (इस मोह में से) खलासी नहीं हो सकती। हे नाक! कह: हे जीव! (जिंदगी की रात के) पहिले पहर में (तू बेपरवाह है), परमात्मा का स्मरण कर (नाम जपने की मदद से ही तू माया के मोह से) बचेगा।1। दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा भरि जोबनि मै मति ॥ अहिनिसि कामि विआपिआ वणजारिआ मित्रा अंधुले नामु न चिति ॥ राम नामु घट अंतरि नाही होरि जाणै रस कस मीठे ॥ गिआनु धिआनु गुण संजमु नाही जनमि मरहुगे झूठे ॥ तीरथ वरत सुचि संजमु नाही करमु धरमु नही पूजा ॥ नानक भाइ भगति निसतारा दुबिधा विआपै दूजा ॥२॥ पद्अर्थ: भरि जोबनि = भरी जवानी में। मै = मय, शराब। अहि = दिन। निसि = रात। चिति = चित्त में। घट अंतरि = हृदय में। जनमि मरहुगे = पैदा हो के मरोगे, जन्म मरण के चक्कर में पड़ जाओगे। भाइ = प्रेम से।2। नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के दूसरे पहर में भर-जवानी के कारण जीव की मति (अक्ल ऐसे हो जाती है जैसे) शराब (में मस्त है)। हे वणजारे मित्र! (जीव) दिन रात काम-वासना में दबा रहता है, (काम में) अंधे हुए को परमात्मा का नाम चित्त में (टिकाने की तवज्जो) नहीं (होती)। परमात्मा का नाम जीव के हृदय में नहीं बसता, (नाम के बिना) और मीठे कसेले अनेक रसों के स्वाद पहचानता है। हे झूठे (मोह में फंसे जीव)! तूने परमात्मा के साथ जान पहिचान नहीं डाली, प्रभु चरणों में तेरी तवज्जो नहीं, परमात्मा के गुण याद नहीं किए (इसका नतीजा ये होगा कि) तू जनम मरण के चक्कर में पड़ जाएगा। (उच्च आत्मिक जीवन बनाने वाले सेवा-स्मरण के काम करने तो दूर रहे, कामुकता में मदहोश हुआ जीव) तीर्थ, व्रत, सुचि, संजम, पूजा आदिक कर्मकांड के धर्म भी नहीं करता। (वैसे) हे नानक! परमात्मा के प्रेम के द्वारा प्रभु की भक्ति के द्वारा ही (इस काम-वासना से) बचाव हो सकता है, (भक्ति-नाम जपने की ओर से) दुचित्तापन रखने से (कामादिक की शक्ल में) माया का मोह ही जोर डालता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |