श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 76 तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा सरि हंस उलथड़े आइ ॥ जोबनु घटै जरूआ जिणै वणजारिआ मित्रा आव घटै दिनु जाइ ॥ अंति कालि पछुतासी अंधुले जा जमि पकड़ि चलाइआ ॥ सभु किछु अपुना करि करि राखिआ खिन महि भइआ पराइआ ॥ बुधि विसरजी गई सिआणप करि अवगण पछुताइ ॥ कहु नानक प्राणी तीजै पहरै प्रभु चेतहु लिव लाइ ॥३॥ पद्अर्थ: सरि = शरीर पर। उलथड़े आइ = आ टिके हैं। जरुआ = बुढ़ापा। जिणै = जीत रहा है। आंव = उम्र। जमि = जम ने। विसरजी = दूर हो गई।3। अर्थ: हरि नाम का वणज करने वाले हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के तीसरे पहर सर पर हंस आ उतरते हैं (सिर पर सफेद बाल आ जाते हैं)। हे बंजारे मित्र! (ज्यों ज्यों) जवानी घटती है बुढ़ापा (शारीरिक ताकत को) जीतता जाता है। (उम्र का) एक-एक दिन गुजरता है उम्र घटती जाती है। हे माया के मोह में अंधे हुए जीव! जब यम ने पकड़ के तुझे आगे लगा लिया, तब आखिरी वक्त पर तू पछताएगा। तू हरेक चीज को अपनी बना बना के संभालता गया, वह सब कुछ एक छिन में पराया माल हो जाएगा। (माया के मोह में फंस के जीव की) अक्ल मारी जाती है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, बुरे काम कर कर के (आखिर अंत समय) पछताता है। हे नानक! कह: हे जीव! (जिंदगी की रात के) तीसरे पहर (सिर पर सफेद बाल आ गए हैं, अब तो प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ के स्मरण कर।3। चउथै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा बिरधि भइआ तनु खीणु ॥ अखी अंधु न दीसई वणजारिआ मित्रा कंनी सुणै न वैण ॥ अखी अंधु जीभ रसु नाही रहे पराकउ ताणा ॥ गुण अंतरि नाही किउ सुखु पावै मनमुख आवण जाणा ॥ खड़ु पकी कुड़ि भजै बिनसै आइ चलै किआ माणु ॥ कहु नानक प्राणी चउथै पहरै गुरमुखि सबदु पछाणु ॥४॥ पद्अर्थ: बिरधि = वृद्ध, बूढ़ा। खीणु = क्षीण,कमजोर। अंधु = अंधकार, अंधापन। वैण = वचन,बोल। रस = स्वाद। पराकउ = पराक्रम, बल। ताण = ताकत। अंतरि = (दिल) में। खड़ = (गेहूँ आदि की) नाड़। कुड़ि = कुड़क के (टूट जाना)।4। अर्थ: हरि नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की) रात के चौथे पहर (जीव) बुड्ढा हो जाता है, (उसका) शरीर कमजोर हो जाता है। हे वणजारे मित्र! आँखों के आगे अंधेरा आ जाता है, (आंखों से ठीक) दिखाई नहीं देता, कानों से बोल (ठीक तरह) नहीं सुनाई देते। आँखों से अंधा हो जाता है, जीभ में स्वाद (की ताकत) नहीं रहती। उद्यम और ताकत कमजोर हो जाते हैं। अपने हृदय में कभी परमात्मा के गुण नहीं बसाए, अब सुख कहां मिले? मन के मुरीद को जनम मरण का चक्कर पड़ जाता है। (जैसे) पके हुए गेहूँ का नाड़ कुड़क के टूट जाता है (वैसे ही बुढ़ापा आने पर शरीर) नाश हो जाता है, (जीव जगत में) आ के (आखिर यहां से) चल पड़ता है (इस शरीर का) माण करना व्यर्थ है। हे नानक! कह:हे प्राणी! (जिंदगी की रात के) चौथे पहर (तू बूढ़ा हो गया है, अब) गुरु के शब्द को पहिचान (गुरु-शब्द से गहरी सांझ डाल)।4। ओड़कु आइआ तिन साहिआ वणजारिआ मित्रा जरु जरवाणा कंनि ॥ इक रती गुण न समाणिआ वणजारिआ मित्रा अवगण खड़सनि बंनि ॥ गुण संजमि जावै चोट न खावै ना तिसु जमणु मरणा ॥ कालु जालु जमु जोहि न साकै भाइ भगति भै तरणा ॥ पति सेती जावै सहजि समावै सगले दूख मिटावै ॥ कहु नानक प्राणी गुरमुखि छूटै साचे ते पति पावै ॥५॥२॥ पद्अर्थ: ओड़क = आखिरी समय। तिन साहिआ = उन स्वासों का। जर = बुढ़ापा। जरवाण = बली। कंनि = कंधे पर। बंनि = बांध के, इकट्ठे करके। जोहि न साकै = देख नहीं सकता। पति सेती = इज्जत से। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। साचे ते = सदा स्थिर प्रभु (के दर) से। पति = इज्जत।5। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जीव को उम्र के जितने श्वास मिले हैं, आखिर) उन श्वासों का अंत आ गया, बलवान बुढ़ापा कांधे पर (नाचने लग पड़ा)। हे वणजारे मित्र! जिसके हृदय में रत्ती भर भी गुण ना टिके, उस को (उसके अपने ही किए हुए) औगुण बांध के ले चलते हैं। जो जीव (यहां से आत्मिक) गुणों के संजम (की सहायता) से जाता है, वह (यमराज की) चोट नहीं सहता, उसे जनम मरण का चक्कर नहीं व्यापता। यम का जाल मौत का डर उसकी ओर कोई देख भी नहीं सकता। परमात्मा के प्रेम की इनायत से परमात्मा की भक्ति से वह (संसार समुंदर के सारे) डरों से पार लांघ जाता है। वह यहां से इज्जत से जाता है, सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है, वह अपने सारे दुख-कष्ट दूर कर लेता है। हे नानक! कह: जो जीव गुरु की शरण पड़ता है वह (संसार समुंदर के सारे डरों से) बच जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु के दर से आदर प्राप्त करता है।5।2। सिरीरागु महला ४ ॥ पहिलै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा हरि पाइआ उदर मंझारि ॥ हरि धिआवै हरि उचरै वणजारिआ मित्रा हरि हरि नामु समारि ॥ हरि हरि नामु जपे आराधे विचि अगनी हरि जपि जीविआ ॥ बाहरि जनमु भइआ मुखि लागा सरसे पिता मात थीविआ ॥ जिस की वसतु तिसु चेतहु प्राणी करि हिरदै गुरमुखि बीचारि ॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहरै हरि जपीऐ किरपा धारि ॥१॥ पद्अर्थ: रैणि = रात, जिंदगी रूप रात। पहिले पहरै = पहले पहर में। वणजारिआ मित्रा = हरि नाम का व्यापार करने आए हे जीव मित्र! उदर मंझारि = (माँ के) पेट में। समारि = संभालता है। अगनी = माँ के पेट की आग। जपि = जप के। जीविआ = जीता रहूँ। मुखि लागा = (माता पिता के) मुंह लगा, माता पिता को बताया। सरसे = स+रस, प्रसंन्न। थीविआ = होए। जिस की वसतु = जिस (परमात्मा) की दी हुई चीज (ये बालक)। करि बीचारि = विचार करके। किरपा धारि = (यदि) कृपा धारे।1। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की रात के) पहले पहर में परमात्मा (जीव को) माँ के पेट में निवास देता है। (माँ के पेट में जीव), हे वणजारे मित्र! परमात्मा का ध्यान धरता है, परमात्मा का नाम उचारता है, और परमातमा के नाम को हृदय में बसाए रखता है। (माँ के पेट में जीव) परमात्मा का नाम जपता है आराधता है, हरि नाम जप के आग में जीता रहता है। (माँ के पेट में से) बाहर (आ के) जनम लेता है (माता-पिता के) मुंह लगता है, माता-पिता खुश होते हैं। हे प्राणियों! जिस परमात्मा का भेजा हुआ ये बालक पैदा हुआ है, उसका ध्यान धरो, गुरु के द्वारा अपने हृदय में (उसके गुणों का) विचार करो। हे नानक! कह: हे प्राणी! यदि परमात्मा मेहर करे तो (जिंदगी की रात के) पहिले पहर में परमात्मा का नाम जपा जा सकता है।1। दूजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा मनु लागा दूजै भाइ ॥ मेरा मेरा करि पालीऐ वणजारिआ मित्रा ले मात पिता गलि लाइ ॥ लावै मात पिता सदा गल सेती मनि जाणै खटि खवाए ॥ जो देवै तिसै न जाणै मूड़ा दिते नो लपटाए ॥ कोई गुरमुखि होवै सु करै वीचारु हरि धिआवै मनि लिव लाइ ॥ कहु नानक दूजै पहरै प्राणी तिसु कालु न कबहूं खाइ ॥२॥ पद्अर्थ: दूजै भाइ = परमात्मा के बिना किसी ओर के प्यार में। करि = कर के, कह कह के। पालीऐ = पाला जाता है। गलि = गले में, गले से। ले = ले के। सेती = साथ। मनि = मन में। खटि = कमा के। मूढ़ा = मूर्ख जीव। दिते नो लपटाए = परमात्मा की दी हुई दात को चिपकता है, प्रभु की दी हुई दात केसाथ मोह करता है। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत।2। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की रात के) दूसरे पहर में (जीव का) मन (परमात्मा को भुला के) और प्यार में लग जाता है। हे वणजारे मित्र! (ये) मेरा (पुत्र है, ये) मेरा (पुत्र है, ये) कह कह के (बालक) पाला जाता है। माँ पकड़ के गले से लगाती है, पिता पकड़ के गले से लगाता है। माँ बार बार गले से लगाती है, पिता बार बार गले से लगाता है। माँ अपने मन में समझती है, पिता अपने मन में समझता है कि (हमें) कमा के खिलाएगा। मूर्ख (मनुष्य) उस परमात्मा को नहीं पहचानता (नहीं याद करता) जो (धन पुत्र आदि) देता है, परमात्मा के दिए हुए (धन पुत्र आदिक) से मोह करता है। जो कोई (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की शरण पड़ता है वह (इस असलियत की) विचार करता है, और तवज्जो जोड़ के अपने मन में परमात्मा का ध्यान धरता है। हे नानक! कह: (जिंदगी की रात के) दूसरे पहर में (जो) प्राणी (परमात्मा का ध्यान धरता है, उसको) आत्मिक मौत कभी भी नहीं खाती।2। तीजै पहरै रैणि कै वणजारिआ मित्रा मनु लगा आलि जंजालि ॥ धनु चितवै धनु संचवै वणजारिआ मित्रा हरि नामा हरि न समालि ॥ हरि नामा हरि हरि कदे न समालै जि होवै अंति सखाई ॥ इहु धनु स्मपै माइआ झूठी अंति छोडि चलिआ पछुताई ॥ जिस नो किरपा करे गुरु मेले सो हरि हरि नामु समालि ॥ कहु नानक तीजै पहरै प्राणी से जाइ मिले हरि नालि ॥३॥ पद्अर्थ: आलि = आलय, घर में, घर (के मोह) में। जंजालि = जंजाल में, दुनिया के झमेले में। चितवै = चितवता है। संचवै = एकत्र करता है। न समालि = नही याद करता। जि = जो। अंति = आखिर में। सखाई = सहाई, मित्र। संपै = धन पदार्थ। झूठी = झूठे संबंधों वाली, साथ ना निभाने वाली। समालि = समालै, संभालता है। सो = वह लोग।3। अर्थ: हरि नाम का वणज करने आए हे जीव मित्र! (जिंदगी की रात के) तीसरे पहर में (मनुष्य का) मन घर के मोह में लग जाता है, दुनिया के धंधों के मोह में फंस जाता है। मनुष्य धन (ही) चितवता है, धन (ही) इकट्ठा करता है, और परमात्मा का नाम कभी भी हृदय में नहीं बसाता। (मोह में फंस के मनुष्य) कभी भी परमात्मा का वह नाम अपने दिल में नहीं बसाता जो आखिरी समय में साथी बनता है। ये धन पदार्थ ये माया सदा साथ निभाने वाले नहीं हैं, और समय आने पर पछताता हुआ इनको छोड़ के जाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मिहर करता है उसे गुरु मिलता है, और वह सदा परमात्मा का नाम हृदय में संभालता है। हे नानक! कह: जो प्राणी हरि का नाम संभालते हैं, वह परमात्मा में जा मिलते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |