श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥ कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तैं = तू (हे प्रभु!)। भरमि = भुलेखे में। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) इस तरह तूने जगत को भुलेखे में डाला हुआ है। माया द्वारा ठगे हुए जीव को ये समझ नहीं आता (कि मैं भुलावे में फंसा हुआ हूँ)।1। रहाउ।

कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥ रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥

पद्अर्थ: बिखिआ रस = माया के स्वाद। इतु संगति = इस कुसंगत में, माया के रसों की संगत में। निहचउ = जरूर। मरणा = आत्मिक मौत। रमईआ = राम को। अनत = अनंत, अटल। अनत जीवण = अटल जिंदगी देने वाली। भव सागरु = संसार समुंदर।2।

अर्थ: कबीर कहता है: हे प्राणी! माया के चस्के छोड़ दे, इन रसों के साथ लगने से जरूर आत्मिक मौत होती है (भाव, आत्मा मुर्दा हो जाती है); (प्रभु के भजन वाली ये) वाणी (मनुष्य को) अटल जीवन बख्शती है। इस तरह संसार समुंदर को तैर जाते हैं।2।

जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥ भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥ उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥ गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥

पद्अर्थ: तिसु भावै = उस प्रभु को ठीक लगे। भाउ = प्रेम। भुलावा = भुलेखा। विचहु = मन में से। सहजु = वह अवस्था जिस में भटकन ना रहे, अडोलता। गिआन मति = गिआन वाली बुद्धि। अंतरि = हृदय में।3।

अर्थ: (पर) यदि उस प्रभु को ठीक लगे तब ही (जीव का) प्यार उससे पड़ता है और (इस के) मन में से भ्रम और भुलेखा दूर होता है। (जीव के अंदर) अडोलता की हालत पैदा होती है। ज्ञान वाली बुद्धि प्रगट हो जाती है और गुरु की मेहर से इसके हृदय में प्रभु के साथ जोड़ जुड़ जाता है।3।

इतु संगति नाही मरणा ॥ हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥

पद्अर्थ: इतु संगति = इस संगति में, प्रभु के साथ जुड़ने वाली हालत में। मिलणा = मिलाप। रहाउ दूजा।1।

अर्थ: प्रभु के साथ चिक्त जोड़ने से आत्मिक मौत नहीं होती, (क्योंकि, ज्यों ज्यों जीव प्रभु के) हुक्म को पहिचानता है, तो प्रभु के साथ इसका मिलाप हो जाता है।1। रहाउ दूजा।

शब्द का भाव: जीव के भी क्या वश? प्रभु ने स्वयं ही जीवों को माया के मोह में फंसाया हुआ है, इस मोह में पड़े मनुष्य की आत्मा मुर्दा हो रही है।

पर अगर कर्तार मेहर करे, गुरु से मिला दे, तो माया का मोह अंदर से दूर हो जाता है, प्रभु के साथ डोर जुड़ जाती है, मन अडोल हो जाता है, दाते की रजा की समझ पड़ जाती है और आत्मा गिरावट रूपी मौत के चुंगल से बच निकलती है।

नोट: आम तौर पे हरेक शब्द में ‘रहाउ’ एक ही होता है, उसी में सारे शब्द का केन्द्रिय भाव होता है। पर इस शब्द में दो ‘रहाउ’ हैं पहिले में प्रश्न किया गया है कि जीव को कैसे समझ आये कि मै भटक रहा हूँ? इसका उक्तर दूसरे ‘रहाउ’ में दिया गया है कि रजा को समझ के रजा वाले में मिल जाना है।

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सिरीरागु त्रिलोचन का ॥ माइआ मोहु मनि आगलड़ा प्राणी जरा मरणु भउ विसरि गइआ ॥ कुट्मबु देखि बिगसहि कमला जिउ पर घरि जोहहि कपट नरा ॥१॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। आगलड़ा = बहुत। जरा = बुढ़ापा। बिगसहि = तू प्रसन्न होता है। कमला जीउ = कमल के फूल की तरह। पर घरि = पराए घर में। जोहहि = तू तोलता है, जांचता है, ताड़ता है। कपट नरा = हे खोटे मनुष्य!।1।

अर्थ: हे प्राणी! तेरे मन में माया का मोह बहुत (जोरों में) है। तुझे ये डर नहीं रहा कि बुढ़ापा आना है, मौत आनी है। हे खोटे मनुष्य! तू अपने परिवार को देख के ऐसे खुश होता है जैसे कमल का फूल (सूरज को देख के), तू पराए घर में देखता फिरता है।1।

दूड़ा आइओहि जमहि तणा ॥ तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥ कोई कोई साजणु आइ कहै ॥ मिलु मेरे बीठुला लै बाहड़ी वलाइ ॥ मिलु मेरे रमईआ मै लेहि छडाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दूड़ा आइओहि = दौड़े आ रहे हैं। जमहि तणा = यम के पुत्र, जमदूत। तिन आगलड़ै = उन (जमदूतों) के सामने। कोई कोई = गिने चुने। साजणु = संत जन। बाहड़ी वलाइ = बांहें वल के, गले लगा के। बीठलु = हे बीठल! हे प्रभु! हे माया रहित प्रभु! (वि+स्थल)। मै = मुझसे।1। रहाउ।

अर्थ: कोई विरला संत जन (जगत में) आ के इस तरह विनती करता है: हे प्रभु! मुझे मिल, गले लगा के मिल। हे मेरे राम! मुझे मिल, मुझे (माया के मोह से) छुड़ा ले। जमदूत तेजी से आ रहे हैं, उनके सामने मुझसे (पल मात्र भी) अटका नहीं जा सकेगा।1। रहाउ।

अनिक अनिक भोग राज बिसरे प्राणी संसार सागर पै अमरु भइआ ॥ माइआ मूठा चेतसि नाही जनमु गवाइओ आलसीआ ॥२॥

पद्अर्थ: पै = में। अमरु = ना मरने वाला। मुठा = ठगा हुआ। चेतसि नाही = तू याद नहीं करता (हरि को)।2।

अर्थ: हे प्राणी! माया के अनेक भोगों व प्रताप के कारण तू (प्रभु को) भुला बैठा है, (तू समझता है कि) इस संसार समुंदर में (मैं) सदा कायम रहूँगा। माया का ठगा हुआ तू (प्रभु को) नहीं स्मरण करता। हे आलसी मनुष्य! तूने अपना जन्म बेकार गवा लिया है।2।

बिखम घोर पंथि चालणा प्राणी रवि ससि तह न प्रवेसं ॥ माइआ मोहु तब बिसरि गइआ जां तजीअले संसारं ॥३॥

पद्अर्थ: बिखम घोर पंथि = बहुत अंधकार भरे रास्ते पर। रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। प्रवेसं = दखल। तजीअले = छोड़ा।3।

अर्थ: हे प्राणी! तू (माया के मोह के) ऐसे गहरे अंधकार भरे रास्ते पर चल रहा है, जहाँ ना सूरज का दखल है ना चंद्रमा का (अर्थात, जहाँ तुझे ना दिन में अक़्ल आती है ना ही रात को)। जब (मरने के वक्त) संसार को छोड़ने लगो, तब तो माया का ये मोह (भाव, संबंध अवश्य) छोड़ेगा ही (तो फिर अभी क्यों नहीं?)।3।

आजु मेरै मनि प्रगटु भइआ है पेखीअले धरमराओ ॥ तह कर दल करनि महाबली तिन आगलड़ै मै रहणु न जाइ ॥४॥

पद्अर्थ: पेखीअले = देखा है। तह = वहां, धर्मराज की हजूरी में। कर = हाथों से। दल करनि = दलन कर देते हैं, दल देते हैं।4।

अर्थ: (कोई बिरला संतजन कहता है:) मेरे मन में ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि (माया में फंसे रहने से) धर्मराज (का मुंह) देखना पड़ेगा। वहां तो बड़े बड़े बलवानों को भी जमदूत हाथों से दल देते हैं, मेरी तो उनके आगे कोई पेश नहीं चल सकेगी।4।

जे को मूं उपदेसु करतु है ता वणि त्रिणि रतड़ा नाराइणा ॥ ऐ जी तूं आपे सभ किछु जाणदा बदति त्रिलोचनु रामईआ ॥५॥२॥

पद्अर्थ: जे को = जब कोई। मूं = मुझे। वणि = बन में। त्रिणि = तिनके में। वणि त्रिणि = सब जगह। रतड़ा = रविआ हुआ, व्यापक है। ऐ जी रमईआ = हे सुंदर राम जी! बदति = कहता है।5।

अर्थ: (वैसे तो) हे नारायण! (तू कभी याद नहीं आता, पर) जब कोई (गुरमुखि) मुझे शिक्षा देता है, तो तू सब जगह व्यापक दिखाई देने लग पड़ता है। हे राम जी! तेरीआं तू ही जाने - मेरी त्रिलोचन की यही बिनती है।5।2।

शब्द का भाव: जीव माया के मोह में पूरी तरह फंसे हुए हैं, किसी को ना मौत चेते है ना ही परमात्मा। पदार्थों के रसों मे लिप्त हुए समझते हैं, हमने कभी मरना नहीं और मानव जनम बेकार गवां रहे हैं। ये ख्याल नहीं आता कि एक दिन ये जगत छोड़ना ही पड़ेगा और इस बद्-मस्ती के कारण जमों का दण्ड सहना ही पड़ेगा।

पर हां, कोई गिने चुने भाग्यशाली हैं जो इस अंत समय को याद रख के प्रभु के दर पर अरजोई करते हैं और उसे मिलने की तमन्ना करते हैं।

नोट: त्रिलोचन जी ने शब्द ‘बीठला’ बरता है, उसी को वे ‘वणि त्रिणि रतड़ा नारायणा” और “रामईआ” कहते हैं। शब्द ‘बीठल’ संस्कृत के शब्द ‘विष्ठल’ का प्राक्रित रूप है। वि+स्थल। वि = परे, माया से परे। स्थल = टिका हुआ है। इसी तरह ‘विष्ठल’ या ‘वीठला’ = वह प्रभु जो माया के प्रभाव से दूर परे टिका हुआ है। ये शब्द सतिगुरु जी ने भी कई बार बरता है, और सर्व-व्यापक परमात्मा के वास्ते ही बरता है।

भक्त-वाणी को गुरमति के विरुद्ध समझने वाले एक सज्जन ने त्रिलोचन जी के बारे में यूँ लिखा है: ‘भक्त त्रिलोचन जी बारसी नामी नगर (जिला शैलापुर) महाराष्ट्र के रहने वाले थे। आप का जन्म संवत् 1267 बिक्रमी के इर्द गिर्द हुआ है। साबित होता है कि भक्त नाम देव जी के साथ इनका मिलाप हुआ रहा है। भक्त-मार्ग का ज्ञान भी इन्होंने नामदेव जी से ही प्राप्त किया था।

“आप जी के पाँच शब्द भक्त वाणी के रूप में छापे वाली बीड़ के अंदर पढ़ने में आते हैं, जो दो गूजरी राग में, एक सिरी राग के अंदर और एक धनासरी राग में है। भक्त जी के श्लोक भी हैं। आप भी नामदेव जी की तरह बीठल मूर्ती के ही पुजारी थे।.....भक्त जी के पाँचों शब्द गुरमति के किसी भी आशय का प्रचार नहीं करते। भक्त जी के कई सिद्धांत गुरमति से उलट हैं। भक्त जी जिस कृष्ण भक्ति के श्रद्धालू थे, उस कृष्ण जी का गुरमति के अंदर पूर्ण खण्डन है।”

पाठकों के सामने शब्द और शब्द के अर्थ मौजूद हैं। शब्द का भाव भी दिया गया है। लफ्ज़ ‘बीठल’ बारे नोट भी पेश किया गया है। जहाँ तक इस शब्द का संबंध पड़ता है, पाठक सज्जन स्वयं ही निर्णय कर लें कि यहां कहीं कोई बात गुरमति के उलट है। भक्त जी का ‘बीठल’ वह है जो ‘नारायण’ है और ‘वणि त्रिणि रतड़ा’ है। किसी भी खींच-घसीट से इसे मूर्ती नहीं कहा जा सकता।

स्रीरागु भगत कबीर जीउ का ॥ अचरज एकु सुनहु रे पंडीआ अब किछु कहनु न जाई ॥ सुरि नर गण गंध्रब जिनि मोहे त्रिभवण मेखुली लाई ॥१॥

पद्अर्थ: पंडीआ = हे पंडित! सुरि = देवते। गण = शिव के खास निजी सेवक। गंधर्व = देवताओं के रागी। त्रिभवण = तीनों भवनों को, सारे जगत को। मेखुली = (माया की) तगाड़ी।1।

अर्थ: हे पण्डित! उस अचरज प्रभु का एक चमत्कार सुनो! (जो मेरे साथ घटित हुआ है और जो) इस वक्त (ज्यूँ का त्यूँ) कहा नहीं जा सकता। उस प्रभु ने सारे जगत को (माया की) तगाड़ी डाल के देवते, मनुष्य, गण और गंधर्वों को मोह के रखा है।1।

राजा राम अनहद किंगुरी बाजै ॥ जा की दिसटि नाद लिव लागै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अनहद = एक रस, बिना यत्न करने के, बजाने के बिना। किंगुरी बाजै = किंगुरी बज रही है, राग हो रहा है। जा की = जिस (प्रभु) की। दिसटि = (कृपा की) दृष्टि। नाद लिव = शब्द की लगन, शब्द की ओर रुचि। रहाउ।

अर्थ: (वह आश्चर्यजनक चमत्कार ये है कि) जिस प्रकाश-रूपी प्रभु के मेहर की नजर से शब्द में लगन लगती है, उस प्रभु की (मेरे अंदर) एक रस तार बज रही है1। रहाउ।

भाठी गगनु सिंङिआ अरु चुंङिआ कनक कलस इकु पाइआ ॥ तिसु महि धार चुऐ अति निरमल रस महि रसन चुआइआ ॥२॥

पद्अर्थ: भाठी = भट्ठी, जहां शराब, अर्क आदि निकाला जाता है। गगनु = आकाश, दसवां द्वार, (चिदाकाश, चिक्त+आकाश) दिमाग, जिस द्वारा प्रभु में तवज्जो जोड़ी जा सकती है। सिंञिआ चुंञिआ = दो नालियां जो अर्क या शराब निकालने के लिए बरती जाती हैं, एक नाली से अर्क निकलता है और दूसरी से फालतू पानी। कनक = सोना। कलसु = मटका, जिसमें अर्क या शराब टपक टपक के पड़ती जाती है। इकु = एक प्रभु। कनक कलसु = सोने का मटका, शुद्ध हृदय। तिसु महि = उस (सुनहरी) कलश में, शुद्ध हृदय में। धार = (नाम अमृत की) धारा। चुऐ = टपक टपक के पड़ती है। रस महि रसन = सभी रसों से स्वादिष्ट रस, नाम अमृत। सिंञिआ चुंञिआ = भाव, बुरे कर्मों को त्यागना व अच्छे कर्मों को ग्रहण करना।2।

अर्थ: मेरा दिमाग भट्ठी बना हुआ है (भाव, तवज्जो प्रभु में जुड़ी हुई है), बुरे कामों से संकोच जैसे, फालतू पानी को बहाने की नाली है; और सद्गुणों का ग्रहण करना जैसे, (नाम रूपी) शराब निकालने वाली नाली (पाइप) है। और शुद्ध हृदय जैसे, सोने का मटका है। अब मैंने एक प्रभु को प्राप्त कर लिया है। मेरे शुद्ध हृदय में (नाम अमृत की) बड़ी साफ धारा टपक टपक के पड़ रही है, और सर्वोक्तम स्वादिष्ट (नाम का) रस खिंचा जा रहा है।2।

एक जु बात अनूप बनी है पवन पिआला साजिआ ॥ तीनि भवन महि एको जोगी कहहु कवनु है राजा ॥३॥

पद्अर्थ: अनूप = अचरज, अनोखी। पवन = हवा, प्राण, स्वाश। साजिआ = मैने बनाया है। जोगी = मिला हुआ, व्यापक। तीनि भवन = सारे जगत में। राजा = ब्ड़ा।3।

अर्थ: एक और मजेदार बात बन गयी है (वह ये कि) मैंने स्वाशों को (नाम अमृत पीने वाला) प्याला बना लिया है (भाव, उस प्रभु के नाम को मैं स्वास-स्वास जप रहा हूँ)। (इस स्वास-स्वास जपने के कारण मुझे) सारे जगत में एक प्रभु ही व्यापक (दिख रहा है)। बताओ, (हे पण्डित! मुझे) उससे और कौन बड़ा (हो सकता) है?।3।

ऐसे गिआन प्रगटिआ पुरखोतम कहु कबीर रंगि राता ॥ अउर दुनी सभ भरमि भुलानी मनु राम रसाइन माता ॥४॥३॥

पद्अर्थ: ऐसे = इस प्रकार जैसे ऊपर बताया है। पुरखोतम गिआनु = प्रभु का ज्ञान, रब की पहिचान। कहु = कह। कबीर = हे कबीर! रंगि = (प्रभु के) प्रेम में। राता = रंगा हुआ। अउर दुनी = बाकी के लोग। भरमि = भुलेखे में। मनु = (मेरा) मन। रसाइन = रस+आयन, रसों का घर। माता = मस्त।4।

अर्थ: (जैसे ऊपर बताया है) इस प्रकार उस प्रभु की पहचान (मेरे अंदर) प्रगट हो गयी है। प्रभु के प्रेम में रंगे हुए, हे कबीर! (अब) कह कि और सारा जगत तो भुलेखे में भूला हुआ है (पर, प्रभु की मेहर से) मेरा मन रसों के श्रोत प्रभु में मस्त हुआ हुआ है।4।3।

नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में शब्द का मुख्य भाव केन्द्रिय भाव हुआ करता है। इस शब्द की रहाउ की तुक को गहु से विचारो। प्रभु के मिलाप की बज रही जिस तार का यहां जिक्र है, सारे शब्द में उसी की ही व्याख्या है।

शबद का भाव: गुरु के शब्द में जुड़ने से मन में प्रभु के मिलाप की तार बजने लग पड़ती है। उस स्वाद का असल स्वरूप बताया नहीं जा सकता। पर, दिमाग और हृदय उसी के स्मरण और प्यार में भीगे रहते हैं। स्वास स्वास याद में बीतता है। सारे जगत में प्रभु ही सबसे बड़ा दिखता है, केवल उसके प्यार में ही मन मस्त रहता है।

नोट: जोग-अभ्यास, प्रणायाम की सराहना करने वाले किसी ‘पंडीआ’ को कबीर जी परमात्मा के नाम जपने की विधि बताते हैं। चुँकि, योगाभ्यासी जोगी लोग शराब पी के तवज्जो जोड़ने की कोशिश करते हैं, कबीर जी उस मस्ती का जिक्र करते हैं जो स्वास-स्वास के स्मरण से पैदा होता है। कबीर जी ‘नाम’ की शराब के वास्ते (‘पवन’) स्वास-स्वास को ‘प्याला’ बनाते हैं।

कई सज्जन यहां कबीर जी को योगाभ्यासी समझ रहे हैं, पर कबीर जी खुले लफ्जों में ‘आसन पवन’ को, योगभ्यास, प्राणायाम को ‘कपट’ कहते हैं:

“आसनु पवनु दूरि करि बवरे॥ छाडि कपटु नित हरि भजु बवरे॥ ”

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh