श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 91 पउड़ी ॥ हरि आपणी भगति कराइ वडिआई वेखालीअनु ॥ आपणी आपि करे परतीति आपे सेव घालीअनु ॥ हरि भगता नो देइ अनंदु थिरु घरी बहालिअनु ॥ पापीआ नो न देई थिरु रहणि चुणि नरक घोरि चालिअनु ॥ हरि भगता नो देइ पिआरु करि अंगु निसतारिअनु ॥१९॥ पद्अर्थ: वेखालीअनु = दिखाई है उसने। घालीअनु = मेहनत कराई है उसने। बहालीअनु = बैठाए हैं उसने। चालीअनु = चलाए हैं उसने। निसतारीअनु = निस्तारा किया, पार उतारे हैं उसने। (देखें: ‘गुरबाणी व्याकरण’)19। अर्थ: प्रभु ने (भक्त जनों से) स्वयं ही अपनी भक्ति कराके (भक्ति की इनायत से उनको अपनी) बड़ाई दिखाई है। प्रभु (भगतों के दिल में) अपना भरोसा स्वयं (उत्पन्न) करता है तथा उनसे स्वयं ही सेवा उसने कराई है। (भगतों को अपने भजन का) आनंद (भी) स्वयं ही बख्शता है (और इस तरह उनको) हृदय में अडोल बैठा रखा है। (पर) पापियों को अडोल चिक्त नहीं रहने देता, चुन के (उनको) घोर नर्क में डाल दिया है। भक्त जनों को प्यार करता है, (उनका) पक्ष करके उसने खुद उनको (विकारों से) बचाया है।19। सलोक मः १ ॥ कुबुधि डूमणी कुदइआ कसाइणि पर निंदा घट चूहड़ी मुठी क्रोधि चंडालि ॥ कारी कढी किआ थीऐ जां चारे बैठीआ नालि ॥ सचु संजमु करणी कारां नावणु नाउ जपेही ॥ नानक अगै ऊतम सेई जि पापां पंदि न देही ॥१॥ अर्थ: कुबुद्धि (मनुष्य के अंदर की) मरासणि (डूमणी) है। बे-तरस कसाइण है। पर निंदा अंदर की चूहड़ी (गंदगी) है, और क्रोध चण्डालण (है जिस) ने (जीव के शांत स्वभाव को) ठग रखा है। यदि ये चारों भीतर ही बैठी हों, तो (बाहर चौका स्वच्छ रखने के लिए) लकीरें खींचने का क्या लाभ? हे नानक! जो मनुष्य ‘सच’ को (चौका स्वच्छ करने की) जुगति बनाते हैं, उच्च आचरण को (चौके की) लकीरें बनाते हैं, जो नाम जपते हैं और इसको (तीर्थ) स्नान समझते हैं, जो और लोगों को भी पापों वाली शिक्षा नहीं देते, वह मनुष्य प्रभु की हजूरी में अच्छे गिने जाते हैं।1। मः १ ॥ किआ हंसु किआ बगुला जा कउ नदरि करेइ ॥ जो तिसु भावै नानका कागहु हंसु करेइ ॥२॥ अर्थ: जिस ओर (प्रभु) प्यार से देखे उसका बगुला (-पन, भाव, पाखण्ड दूर होना) क्या मुश्किल है और उसका हंस (भाव, उज्जवल मति) बनना क्या (मुश्किल है)? हे नानक! अगर प्रभु चाहे (तो वह बाहर से अच्छे दिखने वाले की तो क्या बात) कौए को भी (अर्थात, अंदर से गंदे आचरण वाले को भी उज्जवल बुद्धि) हंस बना देता है।2। पउड़ी ॥ कीता लोड़ीऐ कमु सु हरि पहि आखीऐ ॥ कारजु देइ सवारि सतिगुर सचु साखीऐ ॥ संता संगि निधानु अम्रितु चाखीऐ ॥ भै भंजन मिहरवान दास की राखीऐ ॥ नानक हरि गुण गाइ अलखु प्रभु लाखीऐ ॥२०॥ पद्अर्थ: सतिगुर साखीऐ = गुरु की शिक्षा से। संगि = संगति में। निधानु = खजाना। मिहरवान = हे मेहरवान। गुण गाइ = गुण गा के। लाखीऐ = समझ लेते हैं। सचु = सदा स्थिर प्रभु।20। अर्थ: जिस काम को सिरे चढ़ाने की इच्छा हो, उसकी (पूर्णता के लिए) प्रभु के पास विनती करनी चाहिए, (इस तरह) सतिगुरु की शिक्षा से सदा स्थिर प्रभु कार्य सवार देता है। संतों की संगति में नाम खजाना मिलता है, और आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल चख सकते हैं। (सो यह बिनती करनी चाहिए कि) हे डर नाश करने वाले और दया करने वाले हरि! दास की लज्जा रख! दास की लज्जा रख लो! हे नानक! (इस तरह) प्रभु की महिमा करने से अलख प्रभु के साथ सांझ डाल लेते हैं।20। सलोक मः ३ ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सभसै देइ अधारु ॥ नानक गुरमुखि सेवीऐ सदा सदा दातारु ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जिनि धिआइआ हरि निरंकारु ॥ ओना के मुख सद उजले ओना नो सभु जगतु करे नमसकारु ॥१॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।1। अर्थ: जो हरि सब जीवों को धरवासा देता है, ये जिंद और शरीर सब कुछ उसी का (दिया हुआ) है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रह के (ऐसे) दातार की नित्य सेवा करनी चाहिए। सदके हूँ उनसे, जिन्होंने निरंकार हरि का स्मरण किया है। उनके मुख सदा खिले रहते हैं और सारा संसार उनके आगे सिर निवाता है।1। मः ३ ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई नव निधि खरचिउ खाउ ॥ अठारह सिधी पिछै लगीआ फिरनि निज घरि वसै निज थाइ ॥ अनहद धुनी सद वजदे उनमनि हरि लिव लाइ ॥ नानक हरि भगति तिना कै मनि वसै जिन मसतकि लिखिआ धुरि पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: नउनिधि = पुरातन संस्कृत पुस्तकों में धन का देवता कुबेर माना गया है. उसका ठिकाना कैलाश पर्वत बताया गया है. उसके खजानों का गिनती 9 बताई गई है, जो इस प्रकार है: (महापद्यश्च पद्यश्च शंखोमकरकच्छपौ। मुकुन्द कुन्द नीलाश्च खर्वश्च निधयो नव) अर्थात, महा पद्म, पद्म,शंख, मकर, कश्यप, मुकुंद, कुंद, नील, खरव। अनहद = एक रस। धुनी = सुर, नाम जपने की लहर। अनहद धुनी वजदे = (उसके अंदर) एक रस टिके रहने वाली सुर वाले बाजे बजते हैं।2। अर्थ: अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य की तवज्जो माया की ओर से हट जाती है। (ऐसे मनुष्य को) खाने-खरचने के लिए जैसे सारी ही माया मिल जाती है। अठारह (ही) सिद्धियां (भाव, आत्मिक शक्तियां) उसके पीछे लगी फिरती हैं (पर वह परवाह नहीं करता और) अपने हृदय में अडोल रहता है। सहज स्वभाव एक रस उसके अंदर नाम जपने की लहर चलती रहती है और प्यार की चाहत में वह हरि के साथ तवज्जो जोड़े रखता है। हे नानक! हरि की (ऐसी) भक्ति उनके हृदय में बसती है जिनके मस्तक पे (पिछली भक्ति वाले किए कामों के संस्कारों के अनुसार) धुर से ही (भक्ति वाले संस्कार) लिखे पड़े हैं।2। पउड़ी ॥ हउ ढाढी हरि प्रभ खसम का हरि कै दरि आइआ ॥ हरि अंदरि सुणी पूकार ढाढी मुखि लाइआ ॥ हरि पुछिआ ढाढी सदि कै कितु अरथि तूं आइआ ॥ नित देवहु दानु दइआल प्रभ हरि नामु धिआइआ ॥ हरि दातै हरि नामु जपाइआ नानकु पैनाइआ ॥२१॥१॥ सुधु पद्अर्थ: पैनाइआ = आदर मिलना।21। अर्थ: मैं प्रभु पति का ढाढी प्रभु के दर पर पहुँचा, प्रभु के दरबार में मुझढाढी की पुकार सुनी गयीऔर मुझे दर्शन हुए। मुझढाढी को हरि ने बुला के, पूछा, हे ढाढी! तू किस काम के लिए आया है? (मैंने बेनती की) ‘हे दयावान प्रभु सदा (यही दान बख्शो कि) तेरे नाम का स्मरण करूँ’। (विनती सुन के) दातार हरि ने अपना नाम मुझसे जपाया और मुझे नानक को आदर (भी) दी।21।1। सुधु। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नोट: ‘ऐक सुआन’ कै घरि गावणा’ – कबीर जी का यह शब्द उस ‘घर’ में गाना है जिस घर में वह शब्द गाना है जिसकी पहली तुक है ‘ऐक सुआनु दुइ सुआनी नालि’। ये शब्द गुरु नानक देव जी का है सिरी राग में दर्ज है नंबर 29। कै घरि = के घर में। अगर संबोधक ‘कै’ का संबंध शब्द ‘सुआन’ के साथ होता, तो इस शब्द के आखिर में मात्रा ‘ु’ ना होती। इससे ये सिद्ध होता है कि ‘ऐकु सुआनु’ से भाव है वह सारा शब्द जिसके शुरू में ये लफ्ज़ हैं। ‘जननी जानत’ शब्द कबीर जी का है, पर इसे गाने के लिए जिस शब्द की तरफ इशारा है वह गुरु नानक देव जी का है। सो, यह शीर्षक ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ कबीर जी का नहीं हो सकता। इस शब्द के शीर्षक के साथ लफ्ज़ ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ क्यूँ बरते गए हैं? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने के वास्ते सतिगुरु नानक देव जी का वह शब्द पढ़ के देखें, जिसके आरम्भ के शब्द हैं “ऐकु सुआनु”। सिरी रागु महला १ घरु ४॥ एकु सुआनु दुइ सुआनी नालि॥ भलके भउकहि सदा बइआलि॥ कूड़ु छुरा मुठा मुरदारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥१॥ मै पति की पंदि न करणी की कार॥ हउ बिगड़ै रूपि रहा बिकराल॥ तेरा एकु नामु तारे संसारु॥ मै एहा आस एहो आधारु॥१॥ रहाउ॥ मुखि निंदा आखा दिन राति॥ पर घरु जोही नीच सनाति॥ कामु क्रोधु तनि वसहि चंडाल॥ धाणक रूपि रहा करतार॥२॥ फाही सुरति मलूकी वेसु॥ हउ ठगवाड़ा ठगी देसु॥ खरा सिआणा बहुता भारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥३॥ मै कीता न जाता हरामखोरु॥ हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु॥ नानकु नाचु कहै बीचारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥४॥२९॥ (पन्ना२४) कबीर जी ने अपने शब्द में लिखा है “इतु संगति निहचउ मरणा॥ ” अर्थात, वह कौन सी ‘संगति’ है जिस करके ‘निहचउ मरणा’ होता है? कबीर जी ने इसके उत्तर में सिर्फ शब्द ‘माया’ या ‘बिखिआ रस’ बरते हैं। ‘माया’ का क्या स्वरूप है? वे ‘बिखिआ रस’ कौन से हैं? इसका खुलासा कबीर जी ने नहीं किया। अब पढ़ेंगुरू नानक देव जी का ये उपरोक्त शब्द – सुआन, सुआनी, कूड़, मुरदारु, निंदा, पर घरु, कामु, क्रोधु आदि ये सारे ‘बिखिया’ के ‘रस’ हैं जिनकी संगति में ‘निहचउ मरणा’ है। क्योंकि, ये इन रसों के वश में पड़ा जीव ‘धाणक रूप” रहता है। जो बात कबीर जी ने मात्र इशारे से ‘बिखिआ रस’ के संदर्भ दे के की है, गुरु नानक देव जी ने विस्तार से एक सुंदर ढंग में इस सारे शब्द के द्वारा खोल के बतायी है। ‘शीर्षक’ की सांझ और मजमून की सांझ हमें इस नतीजे पर पहुँचाती है कि गुरु नानक देव जी ने अपना ये शब्द कबीर जी के शब्द की व्याख्या में उचारा है। कबीर जी का ये शब्द सतिगुरु जी के पास मौजूद था। ये शीर्षक ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा॥’ भी गुरु नानक देव जी का भी हो सकता है, या गुरु अरजन साहिब जी का। कबीर जी का किसी हालत में नहीं है। नोट: शब्द ‘घर’ का संबंध ‘गाने’ से है, इसमें रागियों के लिए हिदायत है, इसका संबंध शब्द ‘महला’ के साथ नहीं है। इसलिए शब्द ‘घर’ का संबंध शब्द ‘महला’ के साथ समझ के उसका उच्चारण ‘महल्ला’ करना गलत है। जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥ मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥ पद्अर्थ: जननी = मां। सुतु = पुत्र। इतना कु = इतनी बात। अवध = उम्र। दिन दिन = हर रोज, ज्यों ज्यों दिन बीतते हैं। मोर = मेरा। करि = करे, करती है। अधिक = बहुत। धरि = धरती है, करती है। पेखत ही = जैसे जैसे देखता है।1। अर्थ: मां समझती है कि मेरा पुत्र बड़ा हो रहा है, पर वह इतनी बात नहीं समझती कि ज्यों ज्यों दिन बीत रहे हैं इसकी उम्र घट रही है। वह ये कहती है “ये मेरा पुत्र है, ये मेरा पुत्र है” (और उसके साथ) बहुत लाड करती है। (मां की इस ममता को) देख देख के यमराज हसता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |