श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ सबदि रती सोहागणी सतिगुर कै भाइ पिआरि ॥ सदा रावे पिरु आपणा सचै प्रेमि पिआरि ॥ अति सुआलिउ सुंदरी सोभावंती नारि ॥ नानक नामि सोहागणी मेली मेलणहारि ॥२॥

पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। सुआलिओ = सुंदर रूप वाली (शब्द ‘सुआलिओ’ का अर्थ है ‘सुंदर रूप वाला’। दोनों में अंदर ध्यान देने वाला है)। मेलणहारि = मेलणहार ने।2।

अर्थ: जीवित पति वाली (गुरमुख जीव) स्त्री (वह है जो) गुरु के शब्द द्वारा सतिगुरु के प्रेम प्यार में सदा अपने हरि पति (की याद) का आनन्द लेती है। वह सुंदर नारी बहुत सुहाने रूप वाली व शोभा वाली है। हे नानक! नाम में (जुड़ी होने करके) (गुरमुख) सुहागन को मेलणहार हरि ने (अपने में) मिला लिया है।2।

पउड़ी ॥ हरि तेरी सभ करहि उसतति जिनि फाथे काढिआ ॥ हरि तुधनो करहि सभ नमसकारु जिनि पापै ते राखिआ ॥ हरि निमाणिआ तूं माणु हरि डाढी हूं तूं डाढिआ ॥ हरि अहंकारीआ मारि निवाए मनमुख मूड़ साधिआ ॥ हरि भगता देइ वडिआई गरीब अनाथिआ ॥१७॥

पद्अर्थ: साधिआ = सीधे राह पर डालता है। अनाथ = जिनका और कोई सहारा नहीं है।17।

अर्थ: हे प्रभु! सब जीव तेरी (ही) महिमा करते हैं, जिनको तूने (उन्हें माया में) फंसे हुओं को निकाला है। हे हरि! सब जीव तेरे आगे सिर निवाते हैं, जिसे तूने (उनको) पापों से बचाया है। हे हरि! जिन्हें कहीं आदर नहीं मिलता, तू उनका मान बनता है। हे हरि! तू सर्वश्रेष्ठ है। (हे भाई!) प्रभु अहंकारियों को मार के (भाव, विपता में डाल के) झुकाता है, और मूर्ख मनमुखों को सीधे राह डालता है। प्रभु गरीब व अनाथ भगतों को आदर बख्शता है।17।

सलोक मः ३ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै तिसु वडिआई वडी होइ ॥ हरि का नामु उतमु मनि वसै मेटि न सकै कोइ ॥ किरपा करे जिसु आपणी तिसु करमि परापति होइ ॥ नानक कारणु करते वसि है गुरमुखि बूझै कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: भाणै = हुक्म में। वडिआई = आदर। मनि = मन में। करमि = बख्शिश से।1।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के भाणे में जीवन व्यतीत करता है, उसका (हरि की दरगाह में) बड़ा आदर होता है, प्रभु का उत्तम नाम उस के मन में घर करता है (टिकता है)। और कोई (मायावी पदार्थ उत्तम ‘नाम’ के संस्कारों को उसके हृदय में से) दूर नहीं कर सकता। (पर नाम प्राप्ति का कारण, भाव भाणा मानने का उद्यम, मनुष्य के अपने वश में नहीं), कोई गुरमुख जीव ही समझता है, कि जिस पे (हरि खुद) अपनी मेहर करे, उस को उस मेहर सदका (उत्तम नाम) प्राप्त होता है, (क्योंकि) हे नानक! कारण निर्माता के बस में है।1।

मः ३ ॥ नानक हरि नामु जिनी आराधिआ अनदिनु हरि लिव तार ॥ माइआ बंदी खसम की तिन अगै कमावै कार ॥ पूरै पूरा करि छोडिआ हुकमि सवारणहार ॥ गुर परसादी जिनि बुझिआ तिनि पाइआ मोख दुआरु ॥ मनमुख हुकमु न जाणनी तिन मारे जम जंदारु ॥ गुरमुखि जिनी अराधिआ तिनी तरिआ भउजलु संसारु ॥ सभि अउगण गुणी मिटाइआ गुरु आपे बखसणहारु ॥२॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। लिव तार = एक रस। बंदी = दासी। पूरै = पूरे (गुरु) ने। हुकमि सवारणहार = सवाँरनहार के हुक्म में। मोख = मोक्ष माया के बंधनों से खलासी। जंदारु = जंदाल, जालिम। गुणी = गुणों से।2।

अर्थ: हे नानक! जिन्होंने हर रोज एक रस प्रभु के नाम का स्मरण किया है, पति प्रभु की दासी माया उनकी सेवा में रहती है (भाव, वे लोग माया के पीछे नही घूमते, माया उनकी सेवक बनती है), (क्योंकि) सवाँरनेवाले (प्रभु) के हुक्म में पूरे (गुरु) ने उन्हें पूर्ण कर दिया है (और वे माया के पीछे डोलते नहीं) सतिगुरु की कृपा से जिसने (ये भेद) समझ लिया है, उसने मुक्ति का दर ढूँढ लिया है। मनमुख लोग (प्रभु का) हुक्म नहीं पहचानते, (इस करके) उन्हें जालिम जम दंड देता है। गुरु के सन्मुख हो के जिन्होंने स्मरण किया, वे संसार सागर से तर गए हैं, (क्योंकि सतिगुरु ने) गुणों से (अर्थात, उनके हृदय में गुण प्रगट करके उनके) सारे अवगुण मिटा दिये हैं। गुरु बड़ा बख्शिंद है।2।

पउड़ी ॥ हरि की भगता परतीति हरि सभ किछु जाणदा ॥ हरि जेवडु नाही कोई जाणु हरि धरमु बीचारदा ॥ काड़ा अंदेसा किउ कीजै जा नाही अधरमि मारदा ॥ सचा साहिबु सचु निआउ पापी नरु हारदा ॥ सालाहिहु भगतहु कर जोड़ि हरि भगत जन तारदा ॥१८॥

पद्अर्थ: परतीति = भरोसा। जेवडु = जितना, बराबर का। जाणु = जानकार, जानने वाला। धरमु = न्याय की बात। काढ़ा = फिक्र, चिन्ता। अंदेसा = डर। अधरमि = अन्याय के साथ। सचा = सदा स्थिर, अटल, अमोध। कर जोड़ि = हाथ जोड़ के, विनम्रता से।18।

अर्थ: भक्त जनों को प्रभु पे (ये) भरोसा है कि प्रभु अंतरजामी है, उसके बराबर और कोई (दिलों की) जानने वाला नहीं, (और इसलिए) प्रभु न्याय की विचार करता है। यदि (ये भरोसा हो कि) प्रभु अन्याय से नहीं मारता, तो कोई फिक्र डर नहीं रहता। प्रभु खुद अचूक है और उसका न्याय भी अचूक है, (इस ‘मार’ के सदके ही) पापी मनुष्य (पापों से) तौबा करता है। हे भक्त जनों! विनम्र हो के प्रभु की महिमा करो, प्रभु अपने भक्तों को विकारों से बचा लेता है।18।

सलोक मः ३ ॥ आपणे प्रीतम मिलि रहा अंतरि रखा उरि धारि ॥ सालाही सो प्रभ सदा सदा गुर कै हेति पिआरि ॥ नानक जिसु नदरि करे तिसु मेलि लए साई सुहागणि नारि ॥१॥

पद्अर्थ: उरि = हृदय में। सालाही = मैं कीर्ति करूँ। गुर कै हेति = गुरु के (पैदा किये) प्यार से। सुहागणि = जीवित पति वाली।1।

अर्थ: (मन चाहता है कि) अपने प्यारे को (सदा) मिली रहूँ, अंदर दिल में परो के रखूँ और सतिगुरु के लगाए प्रेम में सदा उस प्रभु की महिमा करती रहूँ। (पर) हे नानक! जिस तरफ (वह प्यारा प्यार से) देखता है, उस को (ही अपने साथ) मेलता है, और वही स्त्री सुहागन (जीवित पति वाली) कहलाती है।1।

मः ३ ॥ गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ ॥ माणस ते देवते भए धिआइआ नामु हरे ॥ हउमै मारि मिलाइअनु गुर कै सबदि तरे ॥ नानक सहजि समाइअनु हरि आपणी क्रिपा करे ॥२॥

पद्अर्थ: मिलाइअनु = मिलाए हैं उस प्रभु ने। सहिज = अडोलता में। समाइअनु = लीन किए हैं उस प्रभु ने। क्रिपा करे = कृपा करके। करे = कर के।2।

अर्थ: प्रभु जिस (जीव) पर मेहर की नजर करता है, वह (जीव) सतिगुरु की बतायी कृत करके प्रभु से मिल जाता है। हरि नाम का स्मरण करके जीव मनुष्य (-स्वभाव) से देवताबन जाते हैं। जिनका अहम् दूर करके उस प्रभु ने अपने साथ मिलाया है, वह गुरु के शबदों के द्वारा विकारों से बच जाते हैं। हे नानक! प्रभु ने अपनी मेहर करके उन्हें अडोल अवस्था में टिका दिया।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh