श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 89 सलोक मः २ ॥ जो सिरु सांई ना निवै सो सिरु दीजै डारि ॥ नानक जिसु पिंजर महि बिरहा नही सो पिंजरु लै जारि ॥१॥ पद्अर्थ: डारि दीजै = फेंक दे। बिरथा = प्यार की खींच।1। अर्थ: जो सिर प्रभु की याद में ना झुके, वह त्याग देने योग्य है (भाव, उसका कोई गुण नहीं)। हे नानक! जिस शरीर में प्यार नहीं वह शरीर जला दो (भाव, वह भी व्यर्थ है)।1। मः ५ ॥ मुंढहु भुली नानका फिरि फिरि जनमि मुईआसु ॥ कसतूरी कै भोलड़ै गंदे डुमि पईआसु ॥२॥ पद्अर्थ: मुंढहु = मूल से। भोलड़े = भुलावे में। डुंमि = गहरे गड्ढे में।2। अर्थ: हे नानक! जिस (जीव-स्त्री) ने (सबसे) मूल (निर्माता) को विसारा है, वह बारंबार पैदा होती मरती है, (और वह) कस्तूरी (भाव, उत्तम पदार्थ) के भुलेखे में (माया के) गंदे गड्ढे में पड़ी हुई है।2। पउड़ी ॥ सो ऐसा हरि नामु धिआईऐ मन मेरे जो सभना उपरि हुकमु चलाए ॥ सो ऐसा हरि नामु जपीऐ मन मेरे जो अंती अउसरि लए छडाए ॥ सो ऐसा हरि नामु जपीऐ मन मेरे जु मन की त्रिसना सभ भुख गवाए ॥ सो गुरमुखि नामु जपिआ वडभागी तिन निंदक दुसट सभि पैरी पाए ॥ नानक नामु अराधि सभना ते वडा सभि नावै अगै आणि निवाए ॥१५॥ पद्अर्थ: अंती अउसरि = आखिरी अवसर पर। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। वडभागी = बड़े भाग्य वाले। आणि = ला के। सभि = सारे।15। अर्थ: हे मेरे मन! जो प्रभु सब जीवों पर अपना हुक्म चलाता है (अर्थात, जिसके हुक्म के आगे सब जीव जन्तु झुकते हैं) उस प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। हे मेरे मन! जो अंत समय (मौत के डर से) छुड़ा लेता है, उस हरि का नाम जपना चाहिए। जो हरि नाम मन की सभी भूखों और तृष्णाओं को मिटा देता है, हे मेरे मन! उसका जाप करना चाहिए। सब निंदक व दुर्जन उन भाग्यशालियों के चरणों में आ लगते हैं, जिन्होंने सतिगुरु की शरण पड़ के यह नाम जपा है। हे नानक! प्रभु के नाम का स्मरण कर - यह (साधन) सभी (साधनों) से बड़ा है; नाम के आगे सब को ला के (प्रभु ने) झुका दिया है।15। सलोक मः ३ ॥ वेस करे कुरूपि कुलखणी मनि खोटै कूड़िआरि ॥ पिर कै भाणै ना चलै हुकमु करे गावारि ॥ गुर कै भाणै जो चलै सभि दुख निवारणहारि ॥ लिखिआ मेटि न सकीऐ जो धुरि लिखिआ करतारि ॥ मनु तनु सउपे कंत कउ सबदे धरे पिआरु ॥ बिनु नावै किनै न पाइआ देखहु रिदै बीचारि ॥ नानक सा सुआलिओ सुलखणी जि रावी सिरजनहारि ॥१॥ पद्अर्थ: निवारणहारि = निवारण के काबिल (हो जाती है)। करतारि = कर्तार ने। सुआलिउ = सुंदर। रावी = माणी है। सिरजनहारि = निर्माता ने।1। अर्थ: झूठी, मानो खोटी, बुरे लक्षणों वाली और कुरूप स्त्री अपने शरीर को श्रृंगारती है; (पर) पति के हुक्म में नहीं चलती, (बल्कि) मूर्ख स्त्री (पति पे) हुक्म चलाती है (नतीजा ये होता है कि सदैव दुखी रहती है)। जो (जीव-स्त्री) सतिगुरु की रजा में चलती है वह अपने सारे दुख-कष्ट निवार लेती है। (पर, कुलक्षणी के भी क्या वश?) (जीवों के किये कर्मों के अनुसार) कर्तार ने धुर से जो (संस्कारों का लेखा जीवों के माथे पर) लिख दिया है, वह लिखा हुआ लेख मिटाया नहीं जा सकता। (सुलक्षणी) तनमन (हरि-) पति को सौंप देती है, और सतिगुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ती है। हृदय में विचार करके देख (भी) लो, कि नाम (जपने) के बिना किसी को प्रभु नहीं मिला। हे नानक! शुभ लक्षणों वाली व सुंदर (जीव-) स्त्री वही है, जिस पर निर्माता (पति) ने मेहर की है।1। मः ३ ॥ माइआ मोहु गुबारु है तिस दा न दिसै उरवारु न पारु ॥ मनमुख अगिआनी महा दुखु पाइदे डुबे हरि नामु विसारि ॥ भलके उठि बहु करम कमावहि दूजै भाइ पिआरु ॥ सतिगुरु सेवहि आपणा भउजलु उतरे पारि ॥ नानक गुरमुखि सचि समावहि सचु नामु उर धारि ॥२॥ पद्अर्थ: गुबार = अंधेरा। भलके = नित्य सुबह, हर रोज। भउजलु = संसार समुंदर। उर = हृदय।2। अर्थ: माया का मोह प्यार (निरा) अंधेरा है, जिसका उरला व परला छोर दिखता नही। सतिगुरु से मुख मोड़ने वाले, ज्ञान से हीन जीव प्रभु का नाम विसार के (उस अंधेरे में) गोते खाते हैं और बड़ा दुख सहते हैं। नित्य नये सूरज (नाम के बिना) और बहत सारे काम करते हैं और माया के प्यार में (ही उनकी) तवज्जो (जुड़ी रहती है)। (जो जीव) अपने सतिगुरु की बतायी सेवा करते हैं, वह (माया के मोह रूपी) संसार समुंदर से पार हो जाते हैं। हे नानक! सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले (जीव) सच्चे नाम को हृदय में परो के सदा स्थिर प्रभु में लीन हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ हरि जलि थलि महीअलि भरपूरि दूजा नाहि कोइ ॥ हरि आपि बहि करे निआउ कूड़िआर सभ मारि कढोइ ॥ सचिआरा देइ वडिआई हरि धरम निआउ कीओइ ॥ सभ हरि की करहु उसतति जिनि गरीब अनाथ राखि लीओइ ॥ जैकारु कीओ धरमीआ का पापी कउ डंडु दीओइ ॥१६॥ पद्अर्थ: महीअलि = मही तलि, धरती के ऊपर। कूड़िआर = खोटे मन वाले। जिनि = जिस (हरि) ने। जैकारु = जै जैकार, उपमा। डंडु = सजा।16। अर्थ: प्रभु जल में, थल में, पृथ्वी पर हर जगह व्यापक है। उसका कोई शरीक नहीं है। प्रभु स्वयं ही बैठ के (गौर से) (जीवों के अच्छे बुरे कर्मों का) न्याय करता है। मन के खोटे सब जीवों कोमार के निकाल देता है (भाव, अपने चरणों से विछोड़ देता है)। सच के व्यापारियों को आदर बख्शता है, हरि ने यह धर्म का न्याय किया है। (हे भाई!) सारे प्रभु की महिमा करो, जिसने (सदैव) गरीबों अनाथों की रक्षा की है, धर्मियों को आदर दिया है और पापियों को दण्ड दिया है।16। सलोक मः ३ ॥ मनमुख मैली कामणी कुलखणी कुनारि ॥ पिरु छोडिआ घरि आपणा पर पुरखै नालि पिआरु ॥ त्रिसना कदे न चुकई जलदी करे पूकार ॥ नानक बिनु नावै कुरूपि कुसोहणी परहरि छोडी भतारि ॥१॥ पद्अर्थ: कामणी = कामिनी, औरत। कुनारि = बुरी औरत। घरि = घर में। त्रिसना = (काम की) वासना। कुरूपि = बुरे रूप वाली।1। अर्थ: मन का मुरीद (जीव उस) खोटी चंदरे लक्षणों वाली मैली स्त्री (जैसा) है (जिसने) घर में (बसता) अपना पति छोड़ दिया है और पराए आदमी के साथ प्यार (डाला हुआ है)। उसकी तृष्णा कभी नहीं मिटती और (तृष्णा में) जलती हुई बिलकती है। हे नानक! (मनमुख जीव) नाम के बिना बद्-शकल व कुरूप स्त्री के जैसा है और पति द्वारा भी दुतकारी हुई हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |