श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 88 सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरु सेवे आपणा सो सिरु लेखै लाइ ॥ विचहु आपु गवाइ कै रहनि सचि लिव लाइ ॥ सतिगुरु जिनी न सेविओ तिना बिरथा जनमु गवाइ ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे कहणा किछू न जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: लेखै लाइ = सफल कर लेता है। आपु = स्वै भाव, अहंकार।1। अर्थ: जो मनुष्य अपने सतिगुरु की बताई सेवा करता है, वह मनुष्य अपना सिर (भाव, मनुष्य जनम) सफल कर लेता है। ऐसे मनुष्य हृदय में से अहंकार दूर करके सच्चे नाम में तवज्जो जोड़े रखते हैं। जिन्होंने सतिगुरु की बताई हुई सेवा नहीं की, उन्होंने मानव जन्म व्यर्थ गवा लिया है। (पर) हे नानक! कुछ (अच्छा-बुरा) कहा नहीं जा सकता (क्योंकि) जो उस प्रभु को ठीक लगता है, स्वयं करता है।1। मः ३ ॥ मनु वेकारी वेड़िआ वेकारा करम कमाइ ॥ दूजै भाइ अगिआनी पूजदे दरगह मिलै सजाइ ॥ आतम देउ पूजीऐ बिनु सतिगुर बूझ न पाइ ॥ जपु तपु संजमु भाणा सतिगुरू का करमी पलै पाइ ॥ नानक सेवा सुरति कमावणी जो हरि भावै सो थाइ पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: वेड़िआ = घिरा हुआ। बूझ = समझ। करमी = मेहर से। पले पाइ = मिलता है। थाइ पाइ = स्वीकार करता है।2। अर्थ: (ये कुदरत का तरीका है कि) विकारों में फंसा हुआ मन विकारों वाले कर्म ही करता है। (इस वास्ते) माया के प्यार में (फंसे रह के) जो मनुष्य पूजा करते हैं (इस पूजा का उनको कोई लाभ नहीं होता) दरगाह में सजा ही मिलती है। आत्मा को रौशन करने वाले प्रभु की ही पूजा करनी चाहिए, (पर) सतिगुरु के बगैर समझ नहीं आता। सतिगुरु का भाणा (रजा को) (मानना) -यही जप, तप और संजम है, प्रभु मेहर करे तो ये (रजा मानने की स्मर्था) प्राप्त होती है। हे नानक! (वैसे तो) जो सेवा प्रभु को ठीक लगे वही स्वीकार होती है, (पर) सेवा भी ध्यान द्वारा ही (भाव, ध्यान को सतिगुरु की रजा में टिका के ही) की जा सकती है।2। पउड़ी ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे जितु सदा सुखु होवै दिनु राती ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे जितु सिमरत सभि किलविख पाप लहाती ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे जितु दालदु दुख भुख सभ लहि जाती ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे मुखि गुरमुखि प्रीति लगाती ॥ जितु मुखि भागु लिखिआ धुरि साचै हरि तितु मुखि नामु जपाती ॥१३॥ पद्अर्थ: किलविख = पाप। जितु मुखि = जिस मुंह से। तितु मुखि = उस मुंह से।13। अर्थ: हे मेरे मन! हरि नाम का स्मरण कर, जिससे रात-दिन सदा सुख हो। हे मेरे मन! हरि नाम का स्मरण करके सब पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरे मन! हरि नाम का स्मरण कर, जिससे सब दरिद्रता, दुख व भूख उतर जाएं। हे मेरे मन! हरि के नाम का स्मरण कर, (जिससे) सतिगुरु के सन्मुख रहके (तेरे अंदर) उत्तम प्रीति (अर्थात हरि के नाम की प्रीति) बन जाए। धुर सच्ची दरगाह से जिसके मुंह पे भाग्य लिखा हो, प्रभु उसके मुंह से (ही) अपने नाम का स्मरण करवाता है।13। सलोक मः ३ ॥ सतिगुरु जिनी न सेविओ सबदि न कीतो वीचारु ॥ अंतरि गिआनु न आइओ मिरतकु है संसारि ॥ लख चउरासीह फेरु पइआ मरि जमै होइ खुआरु ॥ सतिगुर की सेवा सो करे जिस नो आपि कराए सोइ ॥ सतिगुर विचि नामु निधानु है करमि परापति होइ ॥ सचि रते गुर सबद सिउ तिन सची सदा लिव होइ ॥ नानक जिस नो मेले न विछुड़ै सहजि समावै सोइ ॥१॥ पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। गिआनु = ऊँची समझ, प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ। मिरतकु = मरा हुआ। फेरु = फेरा, चक्कर। सतिगुर की सेवा = गुरु द्वारा बताया हुआ कर्म। निधानु = खजाना। करमि = मेहर से। करम = मेहर।1। अर्थ: (मनुष्य जन्म पा के भी) जिस जीवों ने सतिगुरु जी की बतायी हुई सेवा नहीं की और सतिगुरु के शब्द से (हरि नाम की) विचार नहीं की, (और इस तरह) हृदय में सच्चा प्रकाश नहीं हुआ, वह जीव संसार में (जीवित होते हुए भी) मरा हुआ है। (चौरासी लाख योनियों) में उसे चक्कर काटना पड़ता है, बारंबार पैदा होता मरता और ख्वार होता है। जिस जीव से प्रभु स्वयं कराए, वही सतिगुरु की बताई कार कर सकता है। सतिगुरु के पास ‘नाम’ का खजाना है, जो प्रभु की मेहर से प्राप्त हो सकता है। जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द द्वारा सच्चे नाम में रंगे हुये हैं, उनकी सोच सदा इक तार रहती है। हे नानक! जिसको (एक बारी) मेल लेता है, वह (कभी) विछुड़ता नहीं, वह सदा अडोल अवस्था में टिका रहता है।1। मः ३ ॥ सो भगउती जुो भगवंतै जाणै ॥ गुर परसादी आपु पछाणै ॥ धावतु राखै इकतु घरि आणै ॥ जीवतु मरै हरि नामु वखाणै ॥ ऐसा भगउती उतमु होइ ॥ नानक सचि समावै सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: भगउती = विष्णु के अवतार कृष्ण का भक्त जो नाचकूद के अपनी भक्ति प्र्रकट करता है। जुो = इन दो मात्राओं में से यहाँ पढ़ना है = जु। आपु = अपने आप को। धावतु = दौड़ता। घरि = घर में। आणै = ले आए।2। अर्थ: भगउती (सच्चा भक्त) वह है जो प्रभु को जानता है (प्रभु से गहरी सांझ डालता है), और सतिगुरु की कृपा से (भाव, सतिगुरु की शिक्षा लेकर) अपने आप को पहचानता है। (वासना की ओर) दौड़ते (मन) को काबू में रखता है, और एक टिकाव में लाता है, और जीवित होते हुए भी (माया की ओर से) मरा रहता है (अर्थात, संसार में विचरता हुआ भी मन को वासना से तोड़े रखता है)। ऐसा भगउती (भक्त) उत्तम होता है, हे नानक! वह सदा स्थिर प्रभु में लीन हो जाता है (और फिर कभी नहीं विछुड़ता)।2। मः ३ ॥ अंतरि कपटु भगउती कहाए ॥ पाखंडि पारब्रहमु कदे न पाए ॥ पर निंदा करे अंतरि मलु लाए ॥ बाहरि मलु धोवै मन की जूठि न जाए ॥ सतसंगति सिउ बादु रचाए ॥ अनदिनु दुखीआ दूजै भाइ रचाए ॥ हरि नामु न चेतै बहु करम कमाए ॥ पूरब लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥ नानक बिनु सतिगुर सेवे मोखु न पाए ॥३॥ पद्अर्थ: कपटु = खोट। पाखंड = दिखावे से। अंतरि = अंदर, मन में। बादु = झगड़ा। अनदिनु = रोजाना, सदा। मोखु = मोक्ष, मुक्ति, विकारों से स्वतंत्रता।3। अर्थ: जो मनुष्य दिल में खोट रखे (पर अपने आप को) भगउती (सच्चा भक्त) कहलाए, वह (इस) पाखण्ड से परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। (जीव) पराई निंदा करके हृदय पर मैल चढ़ाए जाये, (और) बाहर से (शरीर की) मैल (स्नान वगैरा से) धोता रहे, (इस तरह) मन की जूठ दूर नहीं होती। जो मनुष्य सतिसंगति के साथ टकराव डाले रखता है (भाव, जिसे सतसंगति अच्छी नहीं लगती) वह माया के प्यार में रंगा हुआ हमेशा दुखी रहता है। हरि नाम का स्मरण छोड़ के और चाहे जितने कर्मकांड करता रहे (इस तरह) पहले (किए कर्मों के अच्छे बुरे संस्कार जो मन पर) लिखे गए (हैं, और जनम जनम में भटकाते फिरते हैं) मिट नहीं सकते। हे नानक! (सच तो ये है कि) सतिगुरु द्वारा बताए कर्मों को किए बिनां (माया के मोह से) छुटकारा हो ही नहीं सकता।3। पउड़ी ॥ सतिगुरु जिनी धिआइआ से कड़ि न सवाही ॥ सतिगुरु जिनी धिआइआ से त्रिपति अघाही ॥ सतिगुरु जिनी धिआइआ तिन जम डरु नाही ॥ जिन कउ होआ क्रिपालु हरि से सतिगुर पैरी पाही ॥ तिन ऐथै ओथै मुख उजले हरि दरगह पैधे जाही ॥१४॥ पद्अर्थ: कड़ि = कढ़े, कढ़ते (देखो पउड़ी नंबर १ ‘भउ बिखमु तरि’, तरि = तरे) दुखी होते। सवाही = सबाही, सुबह, सवेरे।14। नोट: इसका अर्थ ‘स्वाह या राख’ करना गलत है, दोनों का मेल नहीं है, देखें ‘आसा दी वार’ में ‘तन विचि सुआह’। ‘कढ़िन’ पाठ भी गलत है, इस हालत में जोड़ ‘कढ़नि’ होता। अर्थ: जिन्होंने सतिगुरु का ध्यान धरा है, वो नित्य नये सूरज दुखी नहीं होते, (क्योंकि) जिन्होंने सतिगुरु का ध्यान धारण किया है वे (दुनियावी पदार्थों की ओर से) पूरी तौर पे तृप्त रहते हैं, (इस वास्ते) उन्हें मौत का भी डर नहीं रहता। सतिगुरु की शरण भी वही लगते हैं, जिस पे हरि स्वयं प्रसन्न होता है। वे दोनों जहानों से संतुलित रहते हैं, और प्रभु की दरगाह में (भी) आदर पाते हैं।14। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |