श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 87 पउड़ी ॥ जो मिलिआ हरि दीबाण सिउ सो सभनी दीबाणी मिलिआ ॥ जिथै ओहु जाइ तिथै ओहु सुरखरू उस कै मुहि डिठै सभ पापी तरिआ ॥ ओसु अंतरि नामु निधानु है नामो परवरिआ ॥ नाउ पूजीऐ नाउ मंनीऐ नाइ किलविख सभ हिरिआ ॥ जिनी नामु धिआइआ इक मनि इक चिति से असथिरु जगि रहिआ ॥११॥ पद्अर्थ: दीबाण = दरबार। सुरखरू = संतुलित, खिड़े माथे वाला। नामे = नाम ही। परवरिआ = परवार, रौशनी की चक्र (जैसे ‘चाँद’ परवारिया जाता है)। नाइ = नाम के द्वारा। किलविख = पाप। हिरिआ = हरे जाना, नाश हो जाते हैं। इक मनि = एक मन हो के। असथिरु = स्थिर, अटल।11। अर्थ: जो मनुष्य हरि के दरबार में मिल चुका (आदर पाने योग्य हो गया) है, उसे (संसार के) सब दरबारों में आदर मिलता है। जहाँ वह जाता है, वहीं उसका माथा खिड़ा रहता है (उज्वल मुख ले के जाता है), उसका मुंह देख के (उसके दर्शन करके) सभ पापी तर जाते हैं (क्योंकि) उसके हृदय में नाम का खजाना है, और नाम ही उसका परिवार है (भाव, नाम ही उसके सिर के चारों तरफ घूमने वाला रौशनी चक्र है)। (हे भाई!) नाम स्मरण करना चाहिए, और नाम का ही ध्यान धरना चाहिए, नाम (जपने) से सब पाप दूर हो जाते हैं। जिन्होंने एकाग्रचिक्त हो के नाम जपा है, वे संसार में अटल हो गए हैं (अर्थात, संसार में हमेशा के लिए उनकी शोभा और प्रतिष्ठा कायम हो गई है)।11। सलोक मः ३ ॥ आतमा देउ पूजीऐ गुर कै सहजि सुभाइ ॥ आतमे नो आतमे दी प्रतीति होइ ता घर ही परचा पाइ ॥ आतमा अडोलु न डोलई गुर कै भाइ सुभाइ ॥ गुर विणु सहजु न आवई लोभु मैलु न विचहु जाइ ॥ खिनु पलु हरि नामु मनि वसै सभ अठसठि तीरथ नाइ ॥ सचे मैलु न लगई मलु लागै दूजै भाइ ॥ धोती मूलि न उतरै जे अठसठि तीरथ नाइ ॥ मनमुख करम करे अहंकारी सभु दुखो दुखु कमाइ ॥ नानक मैला ऊजलु ता थीऐ जा सतिगुर माहि समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: आतमा देउ = परमात्मा। सहजि = सहज में, ज्ञान अवस्था में। सुभाइ = स्वभाव में (लीन हो के)। प्रतीति = यकीन। परचा = वाकफी, प्यार। नाइ = नहा के, नहा लेता है।1। अर्थ: गुरु की मति ले के और गुरु के स्वभाव में (अपना स्वभाव लीन करके) जीवात्मा का प्रकाश करने वाले (हरि) की महिमा करनी चाहिए। (इस तरह) जब जीव को प्रभु (का अस्तित्व और) सिदक दृढ़ हो जाए, तो हृदय में ही (प्रभु से) प्यार बन जाता है (और तीर्थों आदि में जाने की जरूरत नहीं रहती), क्योंकि सत्गुरू के प्यार में और स्वाभाव में (बरतने से) जीवात्मा (माया की और से) अटल हो के डोलने से हट जाती है। ये अडोल अवस्था सत्गुरू के बिना नहीं आती, और ना ही मन में से लोभ मैल दूर होती है। अगर एक पलक भर भी प्रभु का नाम मन में बस जाए (अर्थात, अगर जीव एक मन हो के एक पलक भर भी नाम जप सके) तो, मानो, अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लेता है। (क्योंकि) सच्चे (प्रभु) में जुड़े हुए को मैल नहीं लगती, मैल सदा माया के प्यार में लगती है, और वह मैल कभी भी धोने से नहीं उतरती, चाहे अढ़सठ तीर्थों के स्नान रहें करते। (कारण ये है कि) मनुष्य (गुरु की ओर से) अहंकार के आसरे (तीर्थ स्नान आदिक) कर्म करता है, और दुख ही दुख एकत्र करता है। हे नानक! मैला (मन) तभी पवित्र होता है, अगर (जीव) सतिगुरु में लीन हो जाए (अर्थात, स्वैभाव मिटा दे)।1। मः ३ ॥ मनमुखु लोकु समझाईऐ कदहु समझाइआ जाइ ॥ मनमुखु रलाइआ ना रलै पइऐ किरति फिराइ ॥ लिव धातु दुइ राह है हुकमी कार कमाइ ॥ गुरमुखि आपणा मनु मारिआ सबदि कसवटी लाइ ॥ मन ही नालि झगड़ा मन ही नालि सथ मन ही मंझि समाइ ॥ मनु जो इछे सो लहै सचै सबदि सुभाइ ॥ अम्रित नामु सद भुंचीऐ गुरमुखि कार कमाइ ॥ विणु मनै जि होरी नालि लुझणा जासी जनमु गवाइ ॥ मनमुखी मनहठि हारिआ कूड़ु कुसतु कमाइ ॥ गुर परसादी मनु जिणै हरि सेती लिव लाइ ॥ नानक गुरमुखि सचु कमावै मनमुखि आवै जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुखि = वह जिसका मुंह अपने मन की ओर है, मन का मुरीद, आप हुदरा। किरतु = किया हुआ काम। किरति = किए हुए काम के अनुसार। पइऐ किरति = उनके किये कर्मों के संस्कारों के अनुसार जो पीछे एकत्र हो चुके हैं। धातु = माया। सथ = झगड़ा निपटाने के लिए पंचायत इकट्ठी करनी। भुंचीऐ = खाएं। लुझणा = झगड़ना। जिणै = जीत गए।2। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु की ओर सें मुख मोड़े बैठा है, वह समझाने से भी कभी नहीं समझता, अगर उसे (गुरमुखों में) मिला भी दें, तो भी (स्वभाव करके) उनके साथ नहीं मिलता और (पूर्बले किए) सिर पड़े कर्मों के मुताबिक भटकता फिरता है। (उस विचारे पर भी क्या रोस?) (संसार में) रास्ते ही दो हैं: (हरि से) प्यार और (माया से) प्यार; (और मनमुख) प्रभु के हुक्म में (ही) (माया वाले) कर्म करता है। (दूसरी तरफ, हुक्म में ही) गुरमुख मनुष्य सतिगुरु के शब्द के द्वारा कसवटी लगा के (परख के) अपने मन को मार लेता है (भाव, माया के प्यार की पकड़ पर काबू पा लेता है)। वह सदा मन (की विकार-तवज्जो) के साथ संघर्ष करता है, और पंचायत करता है (भाव, उसे समझाता है, और अंत में विकार तवज्जो को) मन (की शुभ-ध्यान) में लीन कर देता है। (इस तरह सतिगुरु के) स्वभाव में (स्वै लीन करने वाला) मन जो इच्छा करता है सो प्राप्त करता है। (हे भाई!) गुरमुखों वाले कर्म करके सदा नाम अमृत पीएं। मन को छोड़ के जो जीव (शरीर आदि) औरों से झगड़ा करता है, वह जन्म व्यर्थ गवाता है। मनमुख मन के हठ में (बाजी) हार जाता है, और झूठ-तुफान (की कमाई) तौलता है। हे नानक! गुरमुख सतिगुरु की कृपा से मन पर विजय प्राप्त करता है, प्रभु से प्यार जोड़ता है और सदा स्थिर हरि नाम नाम जपने की कमाई करता है। (पर,) मनमुख भटकता फिरता है।2। पउड़ी ॥ हरि के संत सुणहु जन भाई हरि सतिगुर की इक साखी ॥ जिसु धुरि भागु होवै मुखि मसतकि तिनि जनि लै हिरदै राखी ॥ हरि अम्रित कथा सरेसट ऊतम गुर बचनी सहजे चाखी ॥ तह भइआ प्रगासु मिटिआ अंधिआरा जिउ सूरज रैणि किराखी ॥ अदिसटु अगोचरु अलखु निरंजनु सो देखिआ गुरमुखि आखी ॥१२॥ पद्अर्थ: साखी = शिक्षा। मुखि = मुंह से। मसतकि = माथे पर। तिनि = उस ने। तिनि जनि = उस जन ने। सहजे = अडोल अवस्था में (पहुँच के)। तह = उस अवस्था में। रैणि = रात। किराखी = खींच लेता है। अगोचरु = अ+गो+चरु। गो = इन्दे्र। चरु = चलना,पहुँचना। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेद्रियां नहीं पहुँच सकतीं।12। अर्थ: हे हरि के संत जन प्यारो! अपने सतिगुरु की शिक्षा सुनो (भाव, शिक्षा पर चलो)। इस शिक्षा को मनुष्य ने हृदय में परो रखा है, जिसके माथे पर धुर से ही भाग्य हों। सतिगुरु की शिक्षा से ही अडोल अवस्था में पहुँच के प्रभु की उत्तम पवित्र और जीवन-किरण बख्शने वाली महिमा का आनंद लिया जा सकता है। (सतिगुरु की शिक्षा को जो हृदय एक बार धारण करता है) उस में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है और (माया का) अंधेरा ऐसे दूर होता है जैसे सूरज रात (के अंधेरे) को खींच लेता है। जो प्रभु (इन आँखों से) नहीं दिखता, इन्द्रियों की पहुँच से परे है और अलख है वह सतिगुरु के सन्मुख होने से दिखने लगता है।12। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |