श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 86 मः ३ ॥ सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ सचु नामु गुणतासु ॥ गुरमती आपु पछाणिआ राम नाम परगासु ॥ सचो सचु कमावणा वडिआई वडे पासि ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का सिफति करे अरदासि ॥ सचै सबदि सालाहणा सुखे सुखि निवासु ॥ जपु तपु संजमु मनै माहि बिनु नावै ध्रिगु जीवासु ॥ गुरमती नाउ पाईऐ मनमुख मोहि विणासु ॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं नानकु तेरा दासु ॥२॥ पद्अर्थ: सेवि = सेवा करके, हुक्म मान के। गुणतास = गुणों का खजाना। आपु = अपने आप को। सबदि = शब्द से। संजमु = इन्द्रियों को रोकने का उद्यम। ध्रिगु = धृग, फिटकारयोग्य। मोहि = मोह में (फंस के)।2। अर्थ: (जिस ने) सत्गुरू की बताई सेवा की है (उसे) गुणों का खजाना सच्चा नाम (रूपी) सुख प्राप्त होता है। गुरु की मति ले के (वह) स्वै की पहिचान करता है, और हरि के नाम का (उसके अंदर) प्रकाश होता है। वह सिर्फ सदा स्थिर नाम नाम जपने की कमाई करता है, (इस करके) प्रभु की दरगाह में (उसको) आदर मिलता है। जिंद और शरीर सब कुछ प्रभु का (जान के वह प्रभु के आगे) विनती व महिमा करता है। शब्द के द्वारा वह सदा स्थिर प्रभु की कीर्ति करता है, और हर समय आत्मिक आनंद में लीन रहता है। प्रभु की महिमा मन में बसानी -यही उस के लिए जप, तप और संयम है और नाम विहीन जीवन (उसे) धिक्कारयोग्य (प्रतीत होता है)। (यही) नाम गुरु की मति पे चलने से मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मोह में (फंस के) नष्ट होता है (भाव, मानव जन्म व्यर्थ गवा लेता है)। (हे प्रभु!) जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे सहायता कर (और नाम की दाति दे) नानक तेरा सेवक है।2। पउड़ी ॥ सभु को तेरा तूं सभसु दा तूं सभना रासि ॥ सभि तुधै पासहु मंगदे नित करि अरदासि ॥ जिसु तूं देहि तिसु सभु किछु मिलै इकना दूरि है पासि ॥ तुधु बाझहु थाउ को नाही जिसु पासहु मंगीऐ मनि वेखहु को निरजासि ॥ सभि तुधै नो सालाहदे दरि गुरमुखा नो परगासि ॥९॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। रासि = राशि, पूंजी। अरदासि = अर्ज। करि = करके। पासि = नजदीक (होते हुए भी)। निरजासि = निर्णय करके। को = कोई भी। दरि = दर पे, हजूरी में।9। अर्थ: (हे हरि!) हरेक जीव तेरा (बनाया हुआ है) तू सबका (मालिक है और) सभी का खजाना है (भाव, राजक, रिजक देने वाला है) इसीलिए सारे जीव जोदड़ियां करके तेरे पास से ही दान मांगते हैं। जिस को तू दान देता है, उसे सब कुछ मिल जाता है (भाव, उसकी भटकना दूर हो जाती है)। (पर, जो और दर ढूँढते हैं, उनके) तू नजदीक होते हुए भी (उनसे) दूर प्रतीत हो रहा है। कोई पक्ष भी मन में निर्णय करके देख ले (हे हरि!) तेरे बगैर और कोई ठिकाना नहीं, जहाँ से कुछ माँग सकें। (वैसे तो) सारे जीव तेरी ही उपमा कर रहे हैं (पर) (जो जीव) गुरु के सन्मुख रहते हैं (उन्हें) तू अपनी दरगाह में प्रकट करता है (भाव, आदर बख्शता है)।9। सलोक मः ३ ॥ पंडितु पड़ि पड़ि उचा कूकदा माइआ मोहि पिआरु ॥ अंतरि ब्रहमु न चीनई मनि मूरखु गावारु ॥ दूजै भाइ जगतु परबोधदा ना बूझै बीचारु ॥ बिरथा जनमु गवाइआ मरि जमै वारो वार ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = अपने अंदर। न चीनई = नहीं पहचानता। मनि = मन में। दूजै भाइ = ईश्वर के बिना और प्यार में। परबोधदा = प्रबोध करता, राय देना, ज्ञान देता है, जगाता है।1। अर्थ: पढ़ पढ़ के पण्डित (जीभ से वेद आदि का) ऊँची स्वर में उच्चारण करता है (पर) माया के मोह प्यार (उसे व्याप रहा है)। (वह) हृदय में ईश्वर की तलाश नहीं करता, (इस करके) मन से मूर्ख व अनपढ़ (ही है) माया के प्यार में (उसे खुद को तो) समझ नहीं आती, (और) संसार को राय देता है। (ऐसा पंडित) मानव जन्म व्यर्थ गवाता है, और जनम मरण के चक्कर में पड़ जाता है।1। मः ३ ॥ जिनी सतिगुरु सेविआ तिनी नाउ पाइआ बूझहु करि बीचारु ॥ सदा सांति सुखु मनि वसै चूकै कूक पुकार ॥ आपै नो आपु खाइ मनु निरमलु होवै गुर सबदी वीचारु ॥ नानक सबदि रते से मुकतु है हरि जीउ हेति पिआरु ॥२॥ पद्अर्थ: चूकै = खत्म हो जाती है। कूक पूकार = चीख पुकार। आपै नो आपु = पूरी तरह से अपने आप को। मुकतु = विकारों से आजाद।2। अर्थ: विचार करके समझ लो (भाव, देख लो), जिन्होंने सत्गुरू द्वारा दर्शाए हुए कर्म किए हैं उन्हें ही नाम की प्राप्ति हुई है। उनके हृदय में सदा शांति व सुख बसता है और व्याकुलता खत्मब हो जाती है। “अपने आप को खा जाए (अर्थात, स्वै भाव निवारे) तो मन साफ़ होता है” -ये विचार (भी) सतिगुरु के शब्द से ही (उपजता है)। हे नानक! जो मनुष्य सत्गुरू के शब्द में रंगे हुए हैं, वे मुक्त हैं, (क्योंकि) प्रभु जी के प्यार में उनकी तवज्जो जुड़ी रहती है।2। पउड़ी ॥ हरि की सेवा सफल है गुरमुखि पावै थाइ ॥ जिसु हरि भावै तिसु गुरु मिलै सो हरि नामु धिआइ ॥ गुर सबदी हरि पाईऐ हरि पारि लघाइ ॥ मनहठि किनै न पाइओ पुछहु वेदा जाइ ॥ नानक हरि की सेवा सो करे जिसु लए हरि लाइ ॥१०॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु के बताए मार्ग पर चलता है। गुरमुखि पावै थाइ = गुरमुख की बंदगी परमात्मा स्वीकार करता है। मन हठि = मन के हठ से।10। अर्थ: प्रभु की बंदगी (वैसे तो हरेक के लिए ही) सफल है (अर्थात, मनुष्य के जन्म को सफल करने वाली है, पर) स्वीकार उसी की होती है (भाव, पूर्ण सफलता उसे ही मिलती है) जो सत्गुरू के सन्मुख रहता है। उसी मनुष्य को (ही) सत्गुरू मिलता है, जिस पर प्रभु मेहरबान होता है और वही हरि नाम का स्मरण करता है। (जीवों को संसार सागर से जो प्रभु) पार लंघाता है, वह मिलता ही सत्गुरू के शब्द द्वारा है। वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) को भी जा के पूछ के देख लो (अर्थात, पुरातन धर्म पुस्तकें भी यही बात बताते हैं) कि अपने मन के हठ से किसी ने प्रभु को नहीं पाया (ये गुरु के द्वारा ही मिलता है)। हे नानक! हरि की सेवा वही जीव करता है जिसे (गुरु मिला के) प्रभु खुद सेवा में लगाए।10। सलोक मः ३ ॥ नानक सो सूरा वरीआमु जिनि विचहु दुसटु अहंकरणु मारिआ ॥ गुरमुखि नामु सालाहि जनमु सवारिआ ॥ आपि होआ सदा मुकतु सभु कुलु निसतारिआ ॥ सोहनि सचि दुआरि नामु पिआरिआ ॥ मनमुख मरहि अहंकारि मरणु विगाड़िआ ॥ सभो वरतै हुकमु किआ करहि विचारिआ ॥ आपहु दूजै लगि खसमु विसारिआ ॥ नानक बिनु नावै सभु दुखु सुखु विसारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: अहंकरणु = अहंकार। वरीआमु = शूरवीर। मरणु = मौत, अंत समय।1। अर्थ: हे नानक! वह मनुष्य बहादुर शूरवीर है जिस ने (मन) में से दुष्ट अहंकार को दूर किया है और गुरु के सन्मुख हो के (प्रभु के) नाम की महिमा करके जनम सफला किया है। वह (शूरवीर) स्वयं हमेशा के लिए (विकारों से) छूट जाता है, और (साथ ही) सारे कुल को तार लेता है। ‘नाम’ से प्यार करने वाले लोग सच्चे हरि की दरगाह में शोभा पाते हैं। पर, मनमुख अहंकार में जलते हैं और दुखी हो के मरते हैं। इन बिचारों के बस में भी क्या है? सब (प्रभु का) भाणा बरत रहा है। (मनमुख अपने आप की खोज छोड़ के माया में चिक्त जोड़ते हैं, और प्रभु पति को विसारते हैं। हे नानक! नाम से हीन करके उन्हें सदा दुख मिलता है, सुख उन्हें विसर ही जाता है (भाव, सुख का कभी मुंह नहीं देखते)।1। मः ३ ॥ गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ तिनि विचहु भरमु चुकाइआ ॥ राम नामु हरि कीरति गाई करि चानणु मगु दिखाइआ ॥ हउमै मारि एक लिव लागी अंतरि नामु वसाइआ ॥ गुरमती जमु जोहि न साकै साचै नामि समाइआ ॥ सभु आपे आपि वरतै करता जो भावै सो नाइ लाइआ ॥ जन नानकु नामु लए ता जीवै बिनु नावै खिनु मरि जाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = दृढ़ करवाया, हृदय में पक्का कर दिया। भरमु = भटकना। कीमति = सिफति। मगु = रस्ता। नामि = नाम में। सभु = हर जगह। नाइ = नाम में। खिनु = पलक, पल भर।2। अर्थ: जिनके हृदय में पूरे सत्गुरू ने हरि नाम दृढ़ कर दिया है, उनके अंदर से भटकना दूर कर दी है। वे हरि नाम की उपमा करते हैं, और (इस महिमा को) प्रकाश बना के (सीधा) राह उन्हें दिखाई देने लगता है। वे अहंकार दूर करके एक के साथ नेह लगाते हैं, और हृदय में नाम बसाते हैं। गुरु की बताए मार्ग पे चलने के कारण यम उन्हें घूर नहीं सकता, (क्योंकि) सच्चे नाम में उनकी तवज्जो जुड़ी होती है। (पर) ये सब प्रभु का अपना कौतक है, जिस पे प्रसन्न होता है उस को नाम में जोड़ता है। (ये) दास नानक (भी) ‘नाम’ के आसरे है, एक पलक भर भी ‘नाम’ से वंचित रहे तो मरने के तुल्य लगता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |