श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रेनु संतन की मेरै मुखि लागी ॥ दुरमति बिनसी कुबुधि अभागी ॥ सच घरि बैसि रहे गुण गाए नानक बिनसे कूरा जीउ ॥४॥११॥१८॥

पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। मुखि = मुंह पर, माथे पर। दुरमति = बुरी मति। कुबुधि = बुरी अकल। अभागी = भाग गई। सच घरि = सदा स्थिर प्रभु के घर में। कूरा = कूड़ा, माया के मोह के झूठे संस्कार।4।

अर्थ: (जब से) तेरे संत जनों की धूल मेरे माथे पे लगी है, मेरी दुर-मति का नाश हो गया है। मेरी कुमति दूर हो चुकी है। हे नानक! (कह:) जो लोग सदा स्थिर प्रभु के चरणों में टिके रहते हैं और प्रभु के गुण गाते हैं, उनके (अंदर से माया के मोह वाले) झूठे संस्कार नाश हो जाते हैं।4।11।18।

माझ महला ५ ॥ विसरु नाही एवड दाते ॥ करि किरपा भगतन संगि राते ॥ दिनसु रैणि जिउ तुधु धिआई एहु दानु मोहि करणा जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: दाते = हे दातार! स्ंगि = साथ। राते = हे रंगे हुए! रैणि = रात। धिआइ = मैं ध्याऊं। मोहि = मुझे।1।

अर्थ: हे इतने बड़े दातार! (हे बेअंत दातें देने वाले प्रभु!) हे भक्तों से प्यार करने वाले प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर, मैं तुझे कभी ना भुलाऊं। मुझे ये दान दे कि जैसे हो सके मैं दिन रात तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ।1।

माटी अंधी सुरति समाई ॥ सभ किछु दीआ भलीआ जाई ॥ अनद बिनोद चोज तमासे तुधु भावै सो होणा जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: माटी = शरीर। सुरति = ज्योति, समझ, सोचने की ताकत। समाई = लीन कर दी। भलीयां = अच्छियां। जाई = जगहें।2।

अर्थ: हे प्रभु! (हमारे इस) जड़ शरीर में तूने चेतनंता डाल दी है, तूने (हम जीवों को) सब कुछ दिया हुआ है, अच्छी जगहें दी हुईं हैं। हे प्रभु! (तेरे पैदा किए जीव कई तरह की) खुशियां खेल तमाशे कर रहे हैं। ये सब कुछ जो हो रहा है तेरी रजा के मुताबिक हो रहा है।2।

जिस दा दिता सभु किछु लैणा ॥ छतीह अम्रित भोजनु खाणा ॥ सेज सुखाली सीतलु पवणा सहज केल रंग करणा जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: छतीह अंम्रित भोजनु = कई किस्मों का बढ़िया भोजन। सुखाली = सुखदायी। पवणा = हवा। सहज केल = बेफिक्री के कलोल।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ सब कुछ हमें मिल रहा है (जिसकी मेहर से) अनेक किस्मों का खना हम खा रहे हैं। (आराम करने के लिए) सुखदायक चारपाई बिस्तरे हमें मिले हुए है। ठण्डी हवा हम ले रहे हैं, और बेफिक्री के कई खेल तमाशे हम करते हैं (उसे कभी विसारना नहीं चाहिए)।3।

सा बुधि दीजै जितु विसरहि नाही ॥ सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥ सास सास तेरे गुण गावा ओट नानक गुर चरणा जीउ ॥४॥१२॥१९॥

पद्अर्थ: जितु = जिस (बुद्धि) के द्वारा।4।

अर्थ: हे प्रभु! मुझे ऐसी बुद्धि दे, जिसकी इनायत से मैं तुझे कभी ना भुलाऊँ। मुझे वही मति दे, ता कि मैं तूझे स्मरण करता रहूँ।

हे नानक! (कह:) मुझे गुरु के चरणों का आसरा दे, ता कि मैं हरेक सांस के साथ तेरे गुण गाता रहूँ।4।12।19।

माझ महला ५ ॥ सिफति सालाहणु तेरा हुकमु रजाई ॥ सो गिआनु धिआनु जो तुधु भाई ॥ सोई जपु जो प्रभ जीउ भावै भाणै पूर गिआना जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: रजाई = हे रजा के मालिक। जो तुधु भाई = जो तुझे ठीक लगे। सोई = वही। भाणै = रजा में राजी रहना। पूर = पूर्ण, ठीक।1।

अर्थ: हे रजा के मालिक प्रभु! तेरा हुक्म (सिर माथे पर मानना) तेरी महिमा ही है। जो तुझे ठीक लगता है (उसमें अपनी भलाई जानना) यही असल ज्ञान है असल समाधि है।

(हे भाई!) जो कुछ प्रभु जी को भाता है (उसे स्वीकार करना ही) असल जप है। परमात्मा के भाणे में चलना ही असल ज्ञान है।1।

अम्रितु नामु तेरा सोई गावै ॥ जो साहिब तेरै मनि भावै ॥ तूं संतन का संत तुमारे संत साहिब मनु माना जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। साहिब = हे साहिब! मनि = मन। भावै = प्यारा लगता है। माना = पतीजता है।2।

अर्थ: हे मालिक प्रभु! आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम वही मनुष्य गा सकता है, जो तेरे मन में (तुझे) प्यारा लगता है। हे साहिब! तू ही संतों का (सहारा) है। संत तेरे आसरे जीते हैं। तेरे संतों का मन सदा तेरे (चरणों में) जुड़ा रहता है।2।

तूं संतन की करहि प्रतिपाला ॥ संत खेलहि तुम संगि गोपाला ॥ अपुने संत तुधु खरे पिआरे तू संतन के प्राना जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: प्रतिपाला = पालना। खेलहि = आत्मिक आनंद लेते हैं। तुम संगि = तेरी संगति में रह के। खरो = बहुत। प्राना = जिंद जान, असल सहारा।3।

अर्थ: हे गोपाल प्रभु! हे सृष्टि के पालणहार! तू अपने संतों की सदा रक्षा करता है। तेरे चरणों में जुड़े रह के संत आत्मिक आनंद का सुख लेते हैं। तुझे अपने संत बहुत प्यारे लेगते हैं, तू संतों की जिंद जान है।3।

उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने ॥ जिन तूं जाता जो तुधु मनि भाने ॥ तिन कै संगि सदा सुखु पाइआ हरि रस नानक त्रिपति अघाना जीउ ॥४॥१३॥२०॥

पद्अर्थ: कै = से। तूं = तूझे। जाता = पहचाना है। तुधु मनि = तेरे मन में। त्रिपति अघाना = (माया की तृष्णा की तरफ से) बिल्कुल तृप्त हो गए हैं।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरा मन तेरे उन संतों से सदा सदके है, जिन्होंने तुझे पहचाना है (तेरे साथ गहरी सांझ डाली है), जो तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। (जो भाग्यशाली) उनकी संगति में रहते हैं, वे सदा आत्मिक आनंद का सुख पाप्त करते हैं। वे परमात्मा का नाम रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) सदैव तृप्त रहते हैं।4।13।20।

माझ महला ५ ॥ तूं जलनिधि हम मीन तुमारे ॥ तेरा नामु बूंद हम चात्रिक तिखहारे ॥ तुमरी आस पिआसा तुमरी तुम ही संगि मनु लीना जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: निधि = खजाना। जल निधि = समुंदर। मीन = मछलियां। चात्रिक = पपीहे। तिखहारे = प्यास से घबराए हुए। तुम ही संगि = तेरे ही साथ।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जैसे) समुंदर है और हम (जीव) तेरी मछलियां हैं। हे प्रभु! तेरा नाम (जैसे, स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद है, और हम (जीव, जैसे) प्यासे पपीहे हैं।

हे प्रभु! मुझे तेरे मिलाप की आस है मुझे तेरे नाम जल की प्यास है (जो तेरी मेहर हो तो मेरा) मन तेरे ही चरणों में जुड़ा रहे।1।

जिउ बारिकु पी खीरु अघावै ॥ जिउ निरधनु धनु देखि सुखु पावै ॥ त्रिखावंत जलु पीवत ठंढा तिउ हरि संगि इहु मनु भीना जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: पी = पी के। खीर = क्षीर, दूध। अघावे = तृप्त होना, पेट भर जाना। देखि = देख के। त्रिखावंत = प्यासा। भीना = भीगा हुआ।2।

अर्थ: जैसे अंजान नादान बालक (अपनी माँ का) दूध पी के तृप्त हो जाता है, जैसे (कोई) कंगाल मनुष्य (प्राप्त हुआ) धन देख के सुख महिसूस करता है, जैसे कोई प्यासा ठण्डा पानी पी के (खुश होता है), वैसे ही (हे प्रभु! अगर तेरी कृपा हो तो) मेरा ये मन तेरे चरणों में (तेरे नाम जल से) भीग जीए (तो मुझे खुशी हो)।2।

जिउ अंधिआरै दीपकु परगासा ॥ भरता चितवत पूरन आसा ॥ मिलि प्रीतम जिउ होत अनंदा तिउ हरि रंगि मनु रंगीना जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: अंधिआरै = अंधेरे में। दीपकु = दीया। चितवत = याद करते हुए। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। रंगि = रंग में। प्रेम रंग मे।3।

अर्थ: जिस प्रकार अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है, जिस प्रकार पति से मिलाप की तमन्ना करते करते स्त्री की आस पूरी होती है, और अपने प्रीतम को मिल के उसके हृदय में आनंद पैदा होता है, ठीक उसी प्रकार (जिस पे प्रभु की मेहर हो उसका) मन प्रभु के प्रेम रंग में रंगा जाता है।3।

संतन मो कउ हरि मारगि पाइआ ॥ साध क्रिपालि हरि संगि गिझाइआ ॥ हरि हमरा हम हरि के दासे नानक सबदु गुरू सचु दीना जीउ ॥४॥१४॥२१॥

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। कउ = को। मारगि = रास्ते पर। क्रिपालि = कृपाल ने। साध क्रिपालि = कृपालु गुरु ने। गिझाइआ = आदत डाल दी। सचु = सदा स्थिर।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) संतों ने मुझे परमातमा के (मिलाप के) रास्ते परडाल दिया है। कृपालु गुरु ने मुझे परमात्मा के चरणों में रहने की आदत डाल दी है। अब परमात्मा मेरा (आसरा बन गया है), मैं परमात्मा का (ही) सेवक (बन चुका) हूँ। गुरु ने मुझे सदा स्थिर रहने वाला महिमा का शब्द बख्श दिया है।4।14।21।

माझ महला ५ ॥ अम्रित नामु सदा निरमलीआ ॥ सुखदाई दूख बिडारन हरीआ ॥ अवरि साद चखि सगले देखे मन हरि रसु सभ ते मीठा जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: निरमलीआ = निर्मल, साफ, पवित्र। दूख बिडारन = दुख दूर करने योग्य। हरिआ = हरी। अवरि = और। साद = स्वाद। चखि = चख के। सगले = सारे। मन = हे मन!।1।

नोट: ‘अवरि’ है ‘अवर’ का बहुवचन।

अर्थ: हे मन! जो परमात्मा (जीवों को) सुख देने वाला है और (जीवों के) दुख दूर करने की स्मर्था रखता है, उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला ऐसा जल है जो सदा ही साफ रहता है। हे मन! (दुनिया के पदार्थों के) सार स्वाद चख के मैंने देख लिए हैं, परमात्मा के नाम का स्वाद और सभी से मीठा है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh