श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 104 मनसा धारि जो घर ते आवै ॥ साधसंगि जनमु मरणु मिटावै ॥ आस मनोरथु पूरनु होवै भेटत गुर दरसाइआ जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा) चाहत, तमन्ना। धारि = धार के, कर के। ते = से। साधसंगि = साधु-संगत में। भेटत = मिलने से।2। अर्थ: जो मनुष्य (परमात्मा के मिलाप की) तमन्ना करके घर से चलता है वह साधु-संगत में आ के (प्रभु नाम की इनायत से) अपने जनम मरन का चक्कर खत्म कर लेता है। (साधु-संगत में) गुरु के दर्शन करके उसकी ये आस पूरी हो जाती है, उसका ये उद्देश्य सफल हो जाता है।2। अगम अगोचर किछु मिति नही जानी ॥ साधिक सिध धिआवहि गिआनी ॥ खुदी मिटी चूका भोलावा गुरि मन ही महि प्रगटाइआ जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: मिति = (मा = माप, नापना), अंदाजा, बड़ेपन का अंदाजा। साधिक = साधन करने वाले। सिध = योग साधना में लगे हुए जोगी। खुदी = अहम्। चूका = खत्म हो गया। भोलावा = भुलेखा। गुरि = गुरु ने। महि = में।3। अर्थ: योग साधना करने वाले जोगी, योग साधना में माहिर हुए जोगी, ज्ञानवान लोग समाधियां लगाते हैं। पर कोई मनुष्य ये पता नहीं कर सका कि वह अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु, वहज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे प्रभु कितना बड़ा है। (गुरु की शरण पड़ कर) जिस मनुष्य का अहंकार दूर हो जाता है, जिस मनुष्य को (अपनी शक्ति आदिक का) भुलेखा समाप्त हो जाता है, गुरु ने उस के मन में (उस बेअंत प्रभु का) प्रकाश कर दिया है।3। अनद मंगल कलिआण निधाना ॥ सूख सहज हरि नामु वखाना ॥ होइ क्रिपालु सुआमी अपना नाउ नानक घर महि आइआ जीउ ॥४॥२५॥३२॥ पद्अर्थ: कलिआण = खुशी, सौभाग्य। वखाना = उचारा। घरि महि = हृदय में।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद खुशियों के खजाने प्रगट हो पड़ते हैं। उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है। जिस मनुष्य पर अपना मालिक प्रभु दयावान हो जाता है, उसके हृदय-घर में उस का नाम बस जाता है।4।25।32। माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ तूं प्रीतमु ठाकुरु अति भारी ॥ तुमरे करतब तुम ही जाणहु तुमरी ओट गुोपाला जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सोइ = (श्रुति) खबर, बात। अति भारी = बहुत बड़ा। करतब = कर्तव्य, फर्ज। ओट = आसरा। गुोपाल = हे गोपाल!।1। नोट: ‘गुोपाल’ में ‘ग’ पर दो मात्राएं है = ‘ु’ ओ ‘ो’। असल शब्द ‘गोपाल’ है, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है। अर्थ: हे प्रभु! तेरी महिमा की बातें सुन सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। तू मेरा प्यारा है, तू मेरा पालनहार है, तू बहुत बड़ा (मालक) है। हे प्रभु! अपने फर्ज तू स्वयं ही जानता है। हे सृष्टि के पालने वाले! मुझे तेरा ही आसरा है।1। गुण गावत मनु हरिआ होवै ॥ कथा सुणत मलु सगली खोवै ॥ भेटत संगि साध संतन कै सदा जपउ दइआला जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। मलु = विकारों की मैल। सगली = सारी। खोवै = नाश हो जाती है। संतन के संगि = संतों की संगति में। जपउ = मैं जपता हूँ।2। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा कर के (आत्मिक जीवन की तरफ से मेरा सूखा हुआ) मन हरा होता जा रहा है, प्रभु की महिमा की बातें सुन के मेरे मन की सारी (विकारों की) मैल दूर हो रही है। गुरु की संगति में संत जनों की संगति में मिल के मैं सदा उस दयाल प्रभु का नाम जपता हूँ।2। प्रभु अपुना सासि सासि समारउ ॥ इह मति गुर प्रसादि मनि धारउ ॥ तुमरी क्रिपा ते होइ प्रगासा सरब मइआ प्रतिपाला जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। समारउ = मैं सम्भालता हूँ, मैं याद करता हूँ। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। मनि = मन में। धारउ = मैं धारण करता हूँ, मैं टिकाता हूँ। मइआ = दया।3। अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने प्रभु को अपनी हरेक सांस के साथ याद करता रहता हूँ, ये सुकर्म मैंने अपने गुरु की कृपा से अपने मन में टिकाया हुआ है। हे प्रभु! तेरी कृपा से ही (जीवों के मन में तेरे नाम का) प्रकाश हो सकता है, तू सबके ऊपर रहिम करने वाला है और सबकी रक्षा करने वाला है।3। सति सति सति प्रभु सोई ॥ सदा सदा सद आपे होई ॥ चलित तुमारे प्रगट पिआरे देखि नानक भए निहाला जीउ ॥४॥२६॥३३॥ पद्अर्थ: सति = (सत्य) सदा कायम रहने वाला। आपे = स्वयं ही। चलित = (चरित्र) तमाशे। पिआरे = हे प्यारे प्रभु! देखि = देख के। निहाला = प्रसंन।4। अर्थ: (हे भाई!) प्रभु सदा कायम रहने वाला है। सदा कायम रहने वाला है। सदा कायम रहने वाला है। सदा ही, सदा ही, सदा ही वह स्वयं ही स्वयं है। हे नानक! (कह:) हे प्यारे प्रभु! तेरे चरित्र तमाशे तेरे रचे हुए संसार में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं। (तेरा ये दास उनको) देख के प्रसन्न हो रहा है।4।26।33। माझ महला ५ ॥ हुकमी वरसण लागे मेहा ॥ साजन संत मिलि नामु जपेहा ॥ सीतल सांति सहज सुखु पाइआ ठाढि पाई प्रभि आपे जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म ही, प्रभु के हुक्म मुताबिक ही। मेहा = वर्षा, नाम की बरखा। साजन संत = सतसंगी गुरमुख लोग। मिलि = (सतसंगि में) मिल के। जपेहा = जपते हैं। सीतल = ठण्ड डालने वाली। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। ठाढि = ठंड। प्रभि = प्रभु ने। आपे = स्वयं ही।1। अर्थ: (जैसे बरखा ऋतु आने पे जब बारिश होती है, तो ठंड पड़ जाती है। फसल बहुतात में उगती है, सब लोग अन्न से तृप्त हो जाते हैं, वैसे ही) जब सत्संगी गुरमुख लोग (साधु-संगत में) मिल के परमात्मा का नाम जपते हैं, (तो वहां) परमात्मा के हुक्म अनुसारमहिमा की (मानो) बरखा होने लगती है। (जिस की इनायत से सत्संगी लोग) आत्मिक ठंड पाने वाली शांति और आत्मिक अडोलता का आनंद लेते हैं। (उनके हृदय में वहां) प्रभु ने स्वयं ही (विकारों की तपश मिटा के) आत्मिक ठंड डाल दी होती है।1। सभु किछु बहुतो बहुतु उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि सगल रजाइआ ॥ दाति करहु मेरे दातारा जीअ जंत सभि ध्रापे जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक आत्मिक गुण। करि = करके। प्रभि = प्रभु ने। रजाइआ = संतोषी बना दिया। करहु = तुम करते हो। दातारा = हे दातार! सभि = सारे। ध्रापे = तृप्त हो जाते हैं।2। अर्थ: (साधु संगत में हरि नाम की बरखा के कारण) परमात्मा हरेक आत्मिक गुण (की, जैसे फसल) पैदा कर देता है। (जिस सदका) प्रभु ने कृपा करके (वहां) सारे सत्संगियों के भीतर संतोख वाला जीवन पैदा कर दिया होता है। हे मेरे दातार! (जैसे बरखा करके धन-धान्य पैदा करके तू सब जीवों को तृप्त कर देता है, वैसे ही) तू अपने नाम की दाति करता है और सारे सत्संगियों को (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त कर देता है।2। सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादि तिसु सदा धिआई ॥ जनम मरण भै काटे मोहा बिनसे सोग संतापे जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। नाई = बड़ाई, बडप्पन, उपमा। तिसु = उस (प्रभु) को। धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ। भै = सारे डर। संतापे = दुख-कष्ट।3। नोट: ‘भउ’ का बहुवचन ‘भै’ है। अर्थ: जो परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, जिसका बड़प्पन सदा स्थिर रहने वाला है, उसको मैं गुरु की कृपा से सदा स्मरण करता हूँ। (उस नाम जपने की इनायत से) मेरे जनम मरन के सारे डर व मोह काटे गए हैं। मेरे सारे चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्ट नाश हो गये हैं।3। सासि सासि नानकु सालाहे ॥ सिमरत नामु काटे सभि फाहे ॥ पूरन आस करी खिन भीतरि हरि हरि हरि गुण जापे जीउ ॥४॥२७॥३४॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ साथ। नानकु सालाहे = नानक महिमा करता है (नानक = हे नानक!)। पूरन करी = पूरी करता है।4। अर्थ: (हे भाई!) नानक अपने हरेक श्वास के साथ प्रभु की महिमा करता है। प्रभु का नाम स्मरण करते हुए मोह के सारे जंजाल कट गए हैं। (नानक की) ये आस प्रभु ने एक छिन में ही पूरी कर दी, और अब (नानक) हर वक्त प्रभु के ही गुण याद करता रहता है।4।27।34। माझ महला ५ ॥ आउ साजन संत मीत पिआरे ॥ मिलि गावह गुण अगम अपारे ॥ गावत सुणत सभे ही मुकते सो धिआईऐ जिनि हम कीए जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। गावह = हम गाएं। मुकते = (माया के बंधनों से) स्वतंत्र। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। हम = हमें।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे मित्रो! हे संत जनों! हे मेरे सज्जनों! आओ, हम मिल के अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु के गुण गाएं। प्रभु के गुण गाते और सुनते सारे ही जीव (माया के बंधनों से) स्वतंत्र हो जाते हैं। (हे संत जनों!) उस परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए, जिसने हमें पैदा किया है।1। जनम जनम के किलबिख जावहि ॥ मनि चिंदे सेई फल पावहि ॥ सिमरि साहिबु सो सचु सुआमी रिजकु सभसु कउ दीए जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: किलबिख = पाप। मनि = मन में। चिंदे = विचार किए हुये,सोचे हुए। पावहि = हासिल कर लेते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सभसु कउ = सब जीवों को।2। अर्थ: (जो लोग परमात्मा का ध्यान धरते हैं, उनके) जन्म जन्मांतरों के (किए हुए) पाप दूर हो जाते हैं। जो फल वे अपने मन में सोचते हैं, वही फल वे प्राप्त कर लेते हैं। (हे भाई!) उस सदा कायम रहने वाले मालिक को स्वामी का स्मरण कर, जो सब जीवों को रिजक देता है।2। नामु जपत सरब सुखु पाईऐ ॥ सभु भउ बिनसै हरि हरि धिआईऐ ॥ जिनि सेविआ सो पारगिरामी कारज सगले थीए जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: सरब = हरेक किस्म का, सर्व। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पारगिरामी = (संसार समुंदर से) उस पार पहुँचने लायक। थीए = हो जाते हैं, सिरे चढ़ते हैं।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जपने से हरेक किस्म का सुख प्राप्त हो जाता है। (हे भाई!) सदा परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। (इस तरह दुनिया का) सारा डर नाश हो जाता है। जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण किया है, वह संसार समुंदर के उस पार पहुँचने के लायक हो जाता है। उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।3। आइ पइआ तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ लैहि मिलाई ॥ करि किरपा प्रभु भगती लावहु सचु नानक अम्रितु पीए जीउ ॥४॥२८॥३५॥ पद्अर्थ: आइ = आ के। जिउ भावै = जैसे तुझे ठीक लगे। प्रभू = हे प्रभु! नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं आ के तेरी शरण पड़ा हूँ। जैसे भी हो सके, मुझे अपने चरणों में जोड़ ले। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू कृपा करके अपनी भक्ति में जोड़ता है, वह तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम अंम्रित पीता रहता है।4।28।35। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |