श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ५ ॥ भए क्रिपाल गोविंद गुसाई ॥ मेघु वरसै सभनी थाई ॥ दीन दइआल सदा किरपाला ठाढि पाई करतारे जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। मेघु = बादल। वरसै = बरसता है। ठाढि = ठंड। करतारे = कर्तार ने।1।

अर्थ: (जैसे) बादल (ऊँचे-नीचे) हर जगह पर वर्षा करते हैं, (वैसे ही) सृष्टि का पति परमात्मा (सभ जीवों पर) दयावान होता है। उस कर्तार ने जो दीनों पर दया करने वाला है जो सदा ही कृपा का घर है (सेवकों के हृदय में नाम की इनायत से) शांति की दाति बख्शी हुई है।1।

अपुने जीअ जंत प्रतिपारे ॥ जिउ बारिक माता समारे ॥ दुख भंजन सुख सागर सुआमी देत सगल आहारे जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: प्रतिपारे = पालता है।, रक्षा करता है। संमारे = सम्भालती है। सुख सागर = सुखों का समुंदर। आहारै = आहार, खुराक।2।

अर्थ: (हे भाई!) जैसे माँ अपने बच्चों की संभाल करती है, वैसे ही परमात्मा अपने (पैदा किए) सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है। (सब के) दुखों के नाश करने वाले और सुखों के समुंदर मालिक प्रभु सब जीवों को खुराक देता है।2।

जलि थलि पूरि रहिआ मिहरवाना ॥ सद बलिहारि जाईऐ कुरबाना ॥ रैणि दिनसु तिसु सदा धिआई जि खिन महि सगल उधारे जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: जलि = पानी में। थलि = धरती में। सद = सदा। रैणि = रात। जि = जो (प्रभु)। उधारे = (विकारों से) बचाता है।3।

अर्थ: (हे भाई!) मेहर करने वाला परमात्मा पानी में धरती में (हर जगह) व्याप रहा है। उससे सदके जाना चाहिए। कुर्बान होना चाहिए। (हे भाई!) जो परमातमा सब जीवों को एक पल में (संसार समुंदर से) बचा सकता है, उसे दिन रात हर समय स्मरणा चाहिए।3।

राखि लीए सगले प्रभि आपे ॥ उतरि गए सभ सोग संतापे ॥ नामु जपत मनु तनु हरीआवलु प्रभ नानक नदरि निहारे जीउ ॥४॥२९॥३६॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। संतापे = दुख-कष्ट। प्रभि = हे प्रभु!। निहारे = देखे।4।

अर्थ: (जो जो भाग्यशाली प्रभु की शरण आए) प्रभु ने वो सारे स्वयं (दुख-कष्टों से) बचा लिए। उनके सारे चिन्ता फिक्र, सारे दुख-कष्ट दूर हो गए। परमातमा का नाम जपने से मनुष्य का मन, मनुष्य का शरीर में (उच्च आत्मिक जीवन की) हरियाली (का स्वरूप) बन जाती है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभु! (मेरे पर भी) मेहर की निगाह कर (मैं भी तेरा नाम स्मरण करता रहूँ)।4।29।36।

माझ महला ५ ॥ जिथै नामु जपीऐ प्रभ पिआरे ॥ से असथल सोइन चउबारे ॥ जिथै नामु न जपीऐ मेरे गोइदा सेई नगर उजाड़ी जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: जपीऐ = जपा जाता है। से = वह। असथल = (स्थल) टीले, ऊची नीची जगह। सोइन = सोने के। गोइदा = हे गोबिंद।1।

नोट: ‘से’ है ‘सो’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पे प्यारे प्रभु का नाम स्मरण करते रहें, वह ऊची जीची जगह भी (मानो) सोने के चौबारे हैं। पर, हे मेरे गोबिंद! जिस स्थान पे तेरा नाम ना जपा जाए, वो (बसे हुए) शहर भी उजाड़ (समान) हैं।1।

हरि रुखी रोटी खाइ समाले ॥ हरि अंतरि बाहरि नदरि निहाले ॥ खाइ खाइ करे बदफैली जाणु विसू की वाड़ी जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: हरि समाले = हरि को (हृदय में) संभालता है। खाइ = ख के। नदरि = मेहर की नजर से। निहाले = देखता है। बदफैली = बुरे काम। जाणु = समझो। विसू की = जहर की। वाड़ी = बगीची।2।

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य रूखी रोटी खा के भी परमात्मा (का नाम अपने हृदय में) संभाल के रखता है। परमात्मा उसके अंदर बाहर हर जगह उस पर अपनी मिहर की निगाह रखता है। जो मनुष्य दुनिया के पदार्थ खा खा के बुरे काम ही करता रहता है, उसे जहर की बगीची जानो।2।

संता सेती रंगु न लाए ॥ साकत संगि विकरम कमाए ॥ दुलभ देह खोई अगिआनी जड़ अपुणी आपि उपाड़ी जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: सेती = साथ। रंगु = प्रेम। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग, माया में फंसे जीव। विकरम = कुकर्म। देह = शरीर। उपाड़ी = उखाड़ ली।3।

अर्थ: जो मनुष्य संत जनों के साथ प्रेम नहीं बनाता, और परमात्मा से टूटे हुए लोगों के साथ (मिल के) बुरे कर्म करता रहता है, उस बे-समझ ने ये अति कीमती शरीर व्यर्थ गवा लिया, वह अपनी जड़ें स्वयं ही काट रहा है।3।

तेरी सरणि मेरे दीन दइआला ॥ सुख सागर मेरे गुर गोपाला ॥ करि किरपा नानकु गुण गावै राखहु सरम असाड़ी जीउ ॥४॥३०॥३७॥

पद्अर्थ: नानक गावै = नानक गाता रहे। सरम = लज्जा, इज्जत। असाड़ी = हमारी।4।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! हे सुखों के समुंदर! हे सृष्टि के सबसे बड़े पालक! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेहर करो (तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे। (हे प्रभु!) हमारी लज्जा रखो (हम विकारों में ख्वार ना होएं)।4।30।47।

माझ महला ५ ॥ चरण ठाकुर के रिदै समाणे ॥ कलि कलेस सभ दूरि पइआणे ॥ सांति सूख सहज धुनि उपजी साधू संगि निवासा जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। समाणे = टिक गए। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। पइआणे = चले गए, कूच कर गए (प्रया = कूच कर जाना)। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लगन। साधू = गुरु।1।

अर्थ: जिस मनुष्य का निवास गुरु की संगति में बना रहता है, उसके हृदय में पालनहार प्रभु के चरण (सदैव) टिके रहते हैं। उसके अंदर से सभ तरह के झगड़े दुख-कष्ट कूच कर जाते हैं और उसके हृदय में शांत आत्मिक आनंद आत्मिक अडोलता की लहिर पैदा हो जाती है।1।

लागी प्रीति न तूटै मूले ॥ हरि अंतरि बाहरि रहिआ भरपूरे ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुण गावा काटी जम की फासा जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: मूले = मूल, बिल्कुल। गावा = गाया।2।

अर्थ: जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के उसकी महिमा के गीत गाता रहता है, उसकी जमों की फाँसी काटी जाती है। प्रभु चरणों के साथ लगी हुई उसकी प्रीति बिल्कुल नहीं टूटती, और उसको अपने अंदर और बाहर जगत में हर जगह परमात्मा ही व्यापक दिखता है।2।

अम्रितु वरखै अनहद बाणी ॥ मन तन अंतरि सांति समाणी ॥ त्रिपति अघाइ रहे जन तेरे सतिगुरि कीआ दिलासा जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: अनहद बाणी = एक रस महिमाकी वाणी के द्वारा। अनहद = लगातार, एकरस। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिलासा = हौसला, धीरज।3।

अर्थ: हे प्रभु! जिस सौभाग्यशालियों को विकारों का टाकरा करने के लिए) गुरु ने हौसला दिया, वह तेरे सेवक (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाते हैं, उनके अंदर महिमा की वाणी की इनायत से एक रस नाम अंमृत की बरखा होती है। उनके मन में उनके शरीर में (ज्ञानेंद्रियों में) शांति टिकी रहती है।3।

जिस का सा तिस ते फलु पाइआ ॥ करि किरपा प्रभ संगि मिलाइआ ॥ आवण जाण रहे वडभागी नानक पूरन आसा जीउ ॥४॥३१॥३८॥

पद्अर्थ: सा = था। ते = से, द्वारा। आवण जाण = जनम मरन का चक्कर।4।

अर्थ: (गुरु ने) कृपा करके (जिस मनुष्य को) प्रभु के चरणों में जोड़ दिया उसने उस प्रभु से जीवन उद्देश्य प्राप्त कर लिया, जिसका वह भेजा हुआ है। हे नानक! उस सौभाग्यशाली मनुष्य के जनम मरन के चक्कर खत्म हो गए, उसकी आशाएं पूरी हो गई (भाव, आसा-तृष्णा आदि उसे व्यथित, दुखी नही कर सकतीं)।4।31।38।

माझ महला ५ ॥ मीहु पइआ परमेसरि पाइआ ॥ जीअ जंत सभि सुखी वसाइआ ॥ गइआ कलेसु भइआ सुखु साचा हरि हरि नामु समाली जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला। समाली = मैं संभालता हूँ।1।

नोट: यहां ‘जिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हट गई है।

अर्थ: (जैसे जैसे) बारिश हुई (जब) परमेश्वर ने बरसात की तो उसके सारे जीव जन्तु सुखी बसा दिए। (वैसे ही, ज्यों ज्यों) मैं परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता हूँ मेरे अंदर से दुख-कष्ट खत्म होता जाता है और सदा स्थिर रहने वाला आत्मिक आनंद मेरे अंदर टिकता जाता है।1।

जिस के से तिन ही प्रतिपारे ॥ पारब्रहम प्रभ भए रखवारे ॥ सुणी बेनंती ठाकुरि मेरै पूरन होई घाली जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: तिनि ही = उन ही।

नोट: ‘तिनि’ एक वचन है जिसका अर्थ है ‘उसने’; ‘तिन’ बहुवचन है अर्थ है ‘उन्होंने’। शब्द ‘तिनि’ क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण ‘तिन’ बन जाता है, पर अर्थ में एकवचन ही रहता है: ‘उसने ही’।

ठाकुरि = ठाकुर ने। घाली = मेहनत।2।

अर्थ: (जैसे बरसात करके) पारब्रहम प्रभु उन सारे जीव जन्तुओं की पालना करता है जो उसने पैदा किए हुए हैं सबका रक्षक बनता है (वैसे ही उसके नाम की बरखा वास्ते जब जब मैंने विनती की तो) मेरे पालणहार प्रभु ने मेरी विनती सुनी और मेरी (सेवा भक्ति की) मेहनत सिरे चढ़ गई।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh