श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सरब जीआ कउ देवणहारा ॥ गुर परसादी नदरि निहारा ॥ जल थल महीअल सभि त्रिपताणे साधू चरन पखाली जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: कउ = को। नदरि = मेहर की निगाह से। निहारा = देखता है। महीअल = मही तल, धरती के ऊपर का हिस्सा, आकाश, अंतरिक्ष। त्रिपताणे = तृप्त हो गए। पखाली = मैं धोता हूँ।3।

अर्थ: जो प्रभु सब जीवों को दातें देने की सामर्थ्य रखता है (जिसकी कृपा से) पानी धरती व धरती के ऊपर के अंतरिक्ष के सारे जीव-जंतु उसकी दातों से तृप्त हो रहे हैं। उस प्रभु ने गुरु की कृपा से (मुझे भी) मेहर की निगाह से देखा (और मेरे हृदय में नाम बरखा करके मुझे माया की तृष्णा की ओर से तृप्त कर दिया, तभी तो) मैं गुरु के चरण धोता हूँ।3।

मन की इछ पुजावणहारा ॥ सदा सदा जाई बलिहारा ॥ नानक दानु कीआ दुख भंजनि रते रंगि रसाली जीउ ॥४॥३२॥३९॥

पद्अर्थ: जाई = मैं जाता हूँ। दुख भंजनि = दुखों के नाश करने वाले प्रभु ने। रंगि = प्रेम में। रसाली = रस+आलय, रसों के घर प्रभु। रंगि रसाली = सभ रसों के मालिक प्रभु के प्रेम में।4।

अर्थ: परमात्मा सब जीवों के मन की कामना पूरी करने वाला है। मैं उससे सदा ही सदा ही सदके जाता हूँ। हे नानक! (जीवों के) दुख नाश करने वाले प्रभु ने (जिन्हें नाम की) दाति बख्शी वह उस सारे रसों के मालिक प्रभु के प्रेम में रंगे गए।4।32।39।

माझ महला ५ ॥ मनु तनु तेरा धनु भी तेरा ॥ तूं ठाकुरु सुआमी प्रभु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु रासि तुमारी तेरा जोरु गोपाला जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंड = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। गोपाला = हे गोपाल!।1।

अर्थ: हेसृष्टि के पालक! मुझे ये मन (जिंद) ये शरीर तेरे से ही मिला है। (ये) धन भी तेरा ही दिया हुआ है। तू मेरा पालणहार है। तू मेरा स्वामी है। तू मेरा मालिक है। ये जिंद ये शरीर सब तेरा ही दिया हुआ है। हे गोपाल! मुझे तेरा ही मान तान है।1।

सदा सदा तूंहै सुखदाई ॥ निवि निवि लागा तेरी पाई ॥ कार कमावा जे तुधु भावा जा तूं देहि दइआला जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: तूं है = तू ही। सुखदाई = सुख देने वाला। निवि = झुक के, विनम्रता से। पाई = पैरों पर, चरणों में। जो कार = जो सेवा, जो काम।2।

अर्थ: हे दयाल प्रभु! सदा से ही सदा से ही मुझे तू ही सुख देने वाला है। मैं सदा झुक झुक के तेरे ही पैर लगता हूँ। जो तेरी रजा हो तो मैं वही काम करूँ जो तू (करने के लिए) मुझे दे।2।

प्रभ तुम ते लहणा तूं मेरा गहणा ॥ जो तूं देहि सोई सुखु सहणा ॥ जिथै रखहि बैकुंठु तिथाई तूं सभना के प्रतिपाला जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: तुम ते = तेरे पास से। गहणा = सुंदरता का उपाय। सुखु सहणा = सुख (जान के) सहना। प्रतिपाला = पालने वाला।3।

अर्थ: हे प्रभु! (सारे पदार्थ) मैंने तेरे पास से ही लेने है (सदा लेता रहता हूँ)। तू ही मेरे आत्मिक जीवन की सुंदरता का उपाय है साधन है। (सुख चाहे दुख) जो कुछ तू मुझे देता है मैं उसे सुख जान के सहता हूँ (कबूलता हूँ)। हे प्रभु! तू सब जीवों की पालना करने वाला है। मुझे तू जहाँ रखता है मेरे वास्ते वही बैकुंठ (स्वर्ग) है।3।

सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ ॥ आठ पहर तेरे गुण गाइआ ॥ सगल मनोरथ पूरन होए कदे न होइ दुखाला जीउ ॥४॥३३॥४०॥

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सुख = आत्मिक आनंद। नानक = हे नानक! सगल = सारे। दुखाला = (दुख+आलय) दुखी।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य ने आठों पहर (हर वक्त) तेरी महिमा के गीत गाए हैं, उसने तेरा नाम स्मरण करके आत्मिक आनंद लिया है। उसकी सारी जरूरतें पूरी हो जाती है, वह कभी दुखी नहीं होता।4।33।40।

माझ महला ५ ॥ पारब्रहमि प्रभि मेघु पठाइआ ॥ जलि थलि महीअलि दह दिसि वरसाइआ ॥ सांति भई बुझी सभ त्रिसना अनदु भइआ सभ ठाई जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। मेघ = बादल। पठाइआ = भेजा। जलि = पानी में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में। दह दिसि = दसों तरफ। त्रिसना = प्यास। ठाई = जगहों में।1।

अर्थ: (जैसे, जब भी) पारब्रहम प्रभु ने बादल भेजे और पानी में धरती में आकाश में दसों दिशाओं में बरखा कर दी (जिसकी इनायत से जीवों के अंदर) ठंड पड़ गई, सभी की प्यास मिट गई और सब जगह खुशी ही खुशी छा गई (इस तरह अकाल-पुरख ने गुरु को भेजा जिसने प्रभु के नाम की बरखा की तो सब जीवों के हृदय में शांति पैदा हुई, सभी की माया की तृष्णा मिट गई, और सबके हृदयों में आत्मिक आनंद पैदा हुआ)।1।

सुखदाता दुख भंजनहारा ॥ आपे बखसि करे जीअ सारा ॥ अपने कीते नो आपि प्रतिपाले पइ पैरी तिसहि मनाई जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: भंजनहारा = नाश करने वाला। जीअ सारा = जीवों की सार, जीवों की संभाल। नो = को। पइ = पड़ के। तिसहि = उसको ही। मनाई = मैं मनाता हूँ।2।

नोट: ‘तिसहि में ‘तिस’ की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषक ‘हि’ के कारण नहीं लगी है।

अर्थ: (सब जीवों को) सुख देने वाला (सबके) दुख दूर करने वाला परमात्मा खुद ही मिहर करके सब जीवों की संभाल करता है। प्रभु अपने पैदा किए जगत की स्वयं ही प्रतिपालना करता है। मैं उसके चरणों में गिर के उसे ही प्रसन्न करने का यत्न करता हूँ।2।

जा की सरणि पइआ गति पाईऐ ॥ सासि सासि हरि नामु धिआईऐ ॥ तिसु बिनु होरु न दूजा ठाकुरु सभ तिसै कीआ जाई जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। तिसै कीआ = उस की ही। जाई = जगहें।3

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का आसरा लेने से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है, उस हरि का नाम हरेक श्वास के साथ याद करते रहना चाहिए। उसके बिनां (उस जैसा) और कोई पालणहार नहीं है। सारी जगहें उसी की हैं। (सब जीवों में वह स्वयं ही बस रहा है)।3।

तेरा माणु ताणु प्रभ तेरा ॥ तूं सचा साहिबु गुणी गहेरा ॥ नानकु दासु कहै बेनंती आठ पहर तुधु धिआई जीउ ॥४॥३४॥४१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गहेरा = गहरा। धिआई = मैं ध्याता हूँ।4।

अर्थ: हे प्रभु! मुझे तेरा ही माण है। मुझे तेरा ही आसरा है। तू सदा कायम रहने वाला मेरा मालिक है। तू सारे गुणों वाला है तेरे गुणों की थाह नहीं पाई जा सकती। हे प्रभु! (तेरा) दास नानक! (तेरे आगे) विनती करता है (कि मेहर कर) मैं आठों पहर तूझे ही याद करता रहूँ।4।34।41।

माझ महला ५ ॥ सभे सुख भए प्रभ तुठे ॥ गुर पूरे के चरण मनि वुठे ॥ सहज समाधि लगी लिव अंतरि सो रसु सोई जाणै जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: तुठे = प्रसन्न होने से। मनि = मन में। वुठे = वश पड़े। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधि = आत्मिक अडोलता की समाधि। लिव = लगन। अंतरि = (जिसके) हृदय में। सोई = वही मनुष्य।1।

अर्थ: जब प्रभु प्रसन्न हो (और उसकी मेहर से) पूरे गुरु के चरण (किसी बड़े भाग्यशाली के) मन में आ बसें तो (उसको) सारे सुख प्राप्त हो जातें हैं। पर उस आनंद को वही मनुष्य समझता है जिसके अंदर (प्रभु मिलाप की) लगन हो जिसकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि लगी हुई हो (अर्थात, जो सदैव आत्मिक अडोलता में टिका रहे)।1।

अगम अगोचरु साहिबु मेरा ॥ घट घट अंतरि वरतै नेरा ॥ सदा अलिपतु जीआ का दाता को विरला आपु पछाणै जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञान इंद्रियां नही पहुँच सकतीं। वरतै = मौजूद है। नेरा = नजदीक। अलिपत = अलिप्त, निर्लिप। आपु = अपने आप को।2।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा मालिक प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है। ज्ञानेंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। (वैसे) वह हरेक के दिल में बस रहा है वह सब जीवों के नजदीक बसता है। (फिर भी) वह माया के प्रभाव से परे है, और सब जीवों को दातें देने वाला है (वह सब की जिंद जान है, सब की आत्मा है, सब का स्वै है) उस (सबके) स्वै (प्रभु) को कोई विरला मनुष्य ही पहचानता है।2।

प्रभ मिलणै की एह नीसाणी ॥ मनि इको सचा हुकमु पछाणी ॥ सहजि संतोखि सदा त्रिपतासे अनदु खसम कै भाणै जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। संतोखि = संतोख में। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। भाणै = रजा में।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के मिलाप की निशानी ये है (कि जो उसके चरणों में जुड़ा रहता है वह) अपने मन में उस प्रभु का सदा कायम रहने वाला हुक्म समझ लेता है (उसकी रजा में राजी रहता है)। जो मनुष्य पति प्रभु की रजा में रहते हैं, वह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। वे संतोषमयी जीवन व्यतीत करते हैं और (तृष्णा) की ओर से सदा तृप्त रहते हैं।3।

हथी दिती प्रभि देवणहारै ॥ जनम मरण रोग सभि निवारे ॥ नानक दास कीए प्रभि अपुने हरि कीरतनि रंग माणे जीउ ॥४॥३५॥४२॥

पद्अर्थ: हथी = तली (घर में बच्चों के लिए माएं अज्वाइन-सौंफ आदि की फक्की बना के रखती हैं, और वक्त-बेवक्त बच्चों को तली पर देती हैं), फक्की। प्रभि = प्रभु ने। सभि = सारे। निवारे = दूर कर दिए। कीरतनि = कीरतन में।4।

अर्थ: (प्रभु की महिमा मानो एक फक्की है) देवनहार प्रभु ने इस जीव-बाल को (इस फक्की की) तली दी, उसके जनम मरन के चक्कर में डालने वाले सारे रोग दूर कर दिए।

हे नानक! जिन्हें प्रभु ने अपना सेवक बना लिया, वे परमात्मा की महिमा में (आत्मिक) आनंद लेते हैं।4।35।42।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh