श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ५ ॥ कीनी दइआ गोपाल गुसाई ॥ गुर के चरण वसे मन माही ॥ अंगीकारु कीआ तिनि करतै दुख का डेरा ढाहिआ जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: माही = में। अंगीकार कीआ = (अंगी+कृ to accept) स्वीकार कर लिया है। तिनि = उसने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। ढाहिआ = गिरा दिया।1।

अर्थ: सृष्टि के पालणहार! सृष्टि के पति प्रभु ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की, उसके मन में गुरु के चरण बस गए। (उस को) उस कर्तार ने स्वीकार कर लिया (अपना बना लिया, और उसके अंदर से कर्तार ने) दुख का अड्डा ही उठवा दिया।1।

मनि तनि वसिआ सचा सोई ॥ बिखड़ा थानु न दिसै कोई ॥ दूत दुसमण सभि सजण होए एको सुआमी आहिआ जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिखड़ा = मुश्किल। दूत = कष्ट देने वाला। सभि = सारे। आहिआ = प्यारा लगा।2।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में, शरीर में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बस जाए, उसको (जीवन सफर में) कोई जगह मुश्किल नहीं दिखती। जिसका प्यार प्रभु मालिक के साथ बन जाए, सारे कष्ट देने वाले दुश्मन उसके सज्जन मित्र बन जाते हैं (कामादिक वैरी उसके अधीन हो जाते हैं)।2।

जो किछु करे सु आपे आपै ॥ बुधि सिआणप किछू न जापै ॥ आपणिआ संता नो आपि सहाई प्रभि भरम भुलावा लाहिआ जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। आपो = आपे से। जापै = दिखती। नो = को। प्रभि = प्रभु ने। भुलावा = भुलेखा।3।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में से प्रभु ने भटकना व भुलेखा दूर कर दिया, (उसे यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभु करता है स्वयं ही अपने आप से करता है (उसके कामों में किसी और की) अक्ल या चतुराई (काम करती) नहीं दिखती। अपने संतों वास्ते प्रभु खुद सहायक बनता है।3।

चरण कमल जन का आधारो ॥ आठ पहर राम नामु वापारो ॥ सहज अनंद गावहि गुण गोविंद प्रभ नानक सरब समाहिआ जीउ ॥४॥३६॥४३॥

पद्अर्थ: आधारो = आधार, आसरा। वापारो = व्यापार,वणज। गावहि = गाते हैं। समाहिआ = व्यापक है।4।

अर्थ: हे नानक! प्रभु के सुंदर चरण प्रभु के सेवकों की जिंदगी का आसरा बन जाते हैं। सेवक आठों पहर परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। सेवक आत्मिक अडोलता का आनंद (लेते हुए सदैव) उस गोबिंद प्रभु के गुण गाते हैं जो सब जीवों में व्यापक है।4।36।43।

माझ महला ५ ॥ सो सचु मंदरु जितु सचु धिआईऐ ॥ सो रिदा सुहेला जितु हरि गुण गाईऐ ॥ सा धरति सुहावी जितु वसहि हरि जन सचे नाम विटहु कुरबाणो जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर, अटल। मंदरु = देव स्थान। जितु = जिस में। रिदा = हृदय। सुहेला = सुखी। गाईऐ = गाएं। सा = वह। सुहावी = सुख देने वाली, सुहानी। विटहु = में से। कुरबाणो = कुर्बान।1।

नोट: ‘सा’ स्त्रीलिंग है, ‘सो’ पुलिंग है।

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह में सदा स्थिर परमात्मा का स्मरण किया जाता है, वह सदा कायम रहने वाला मंदिर है। वह हृदय (सदा) सुखी है जिसके द्वारा परमात्मा के गुण गाए जाएं। वह धरती सुंदर बन जाती हैजिसमें परमात्मा के भक्त बसते हैं, और परमात्मा के नाम से सदके जाते हैं।1।

सचु वडाई कीम न पाई ॥ कुदरति करमु न कहणा जाई ॥ धिआइ धिआइ जीवहि जन तेरे सचु सबदु मनि माणो जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: कीम = कीमत। करमु = बख्शिश। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मनि = मन में। माणो = माण, आसरा।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा स्थिर रहने वाला है। तेरी प्रतिभा का कोई जीव मुल्य नहीं डाल सकता। (अर्थात, तेरे जितना बड़ा और कोई नहीं है)। तेरी कुदरति बयान नहीं की जा सकती। तेरे भक्त तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। उनके मन में तेरा सदा स्थिर (महिमा का) शब्द ही आसरा है।2।

सचु सालाहणु वडभागी पाईऐ ॥ गुर परसादी हरि गुण गाईऐ ॥ रंगि रते तेरै तुधु भावहि सचु नामु नीसाणो जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। तेरै रंगि = तेरे प्रेम में। तुधु = तुझे। नीसाणों = निशान, परवाना।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा कायम रहने वाला है। तेरी महिमा बड़े भाग्यों के साथ मिलती है। हे हरि! तेरे गुण गुरु की कृपा से गाए जा सकते हैं। हे प्रभु! तूझे वह सेवक प्यारे लगते हैं जो तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके पास तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम (जीवन सफर में) राहदारी है।3।

सचे अंतु न जाणै कोई ॥ थानि थनंतरि सचा सोई ॥ नानक सचु धिआईऐ सद ही अंतरजामी जाणो जीउ ॥४॥३७॥४४॥

पद्अर्थ: सचे अंतु = सदा स्थिर प्रभु का अंत। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। जाणो = जानकार, सुजान।4।

अर्थ: (हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुणों का कोई मनुष्य अंत नहीं जान सकता। वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु हरेक जगह में बस रहा है। हे नानक! उस सदा स्थिर प्रभु को सदा ही स्मरणा चाहिए। वह सुजान है और हरेक के दिल की जानने वाला है।4।37।44।

माझ महला ५ ॥ रैणि सुहावड़ी दिनसु सुहेला ॥ जपि अम्रित नामु संतसंगि मेला ॥ घड़ी मूरत सिमरत पल वंञहि जीवणु सफलु तिथाई जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: सुहावड़ी = सुख देने वाली, सुहानी। सुहेला = आसान। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक मौत से बचाने वाला। संगि = संग में। मूरत = महूरत, दो घड़ीयां। वंञहि = (इसमें ‘ञ’ का उच्चारण ‘अं’ और ‘ज’ के बीच में करना है) बीतना। तिथाई = वहीं।1।

अर्थ: (अगर) संतों की संगति में मेल (हो जाए तो वहाँ) आत्मिक मौत से बचाने वाले हरि नाम को जप के रात सुहानी बीतती है। दिन भी आसान हो गुजरता है। जहाँ उम्र की घड़ीआं दो घड़ीआं पल परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए व्यतीत हो वहीं जीवन (का समय) सफल होता है।1।

सिमरत नामु दोख सभि लाथे ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु साथे ॥ भै भउ भरमु खोइआ गुरि पूरै देखा सभनी जाई जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: दोख = पाप। सभि = सारे। भै = प्रभु का डर दिल में रखने से, भउ के कारण। भरमु = भटकना। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। जीई = जगह।2।

अर्थ: परमातमा का नाम स्मरण करने से सारे पाप उतर जाते हैं। जीव के हृदय में और बाहर जगत में परमात्मा (हर समय) साथ (बसता प्रतीत) होता है।

परमात्मा काडर अदब दिल में रखने के कारण पूरे गुरु ने मेरा दुनिया वाला डर समाप्त कर दिया है। अब मैं परमात्मा को सब जगहों पे देखता हूँ।2।

प्रभु समरथु वड ऊच अपारा ॥ नउ निधि नामु भरे भंडारा ॥ आदि अंति मधि प्रभु सोई दूजा लवै न लाई जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: नउनिधि = नौ खजाने। आदि = शुरू में। अंति = आखिर मे। महि = बीच में। न लाई = मैं नहीं लगाता। लवै = बराबर। लवै न लाई = मैं बराबर नहीं समझता।3।

अर्थ: प्रभु सब ताकतों वाला है। सबसे बड़ा ऊँचा है, और बेअंत है। उसका नाम (मानो, जगत के) नौं ही खजाने है, (नाम धन से उस प्रभु के) खजाने भरे पड़े हैं। (संसार रचना के) शुरू में प्रभु स्वयं ही स्वयं था (दुनिया के) अंत में भी प्रभु स्वयं ही स्वयं होगा (अब संसार रचना के) मध्य में प्रभु स्वयं ही स्वयं है। मैं किसी और को बराबर का नहीं समझ सकता।3।

करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ जाचिकु जाचै साध रवाला ॥ देहि दानु नानकु जनु मागै सदा सदा हरि धिआई जीउ ॥४॥३८॥४५॥

पद्अर्थ: जाचिकु = भिखारी। जाचै = मांगता है। रवाला = चरण धूल। साध = गुरु। जनु = दास। नानकु मागै = नानक मांगता है। धिआई = मैं ध्याता हूँ।4।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर। (तेरा ये) भिखारी (तुझसे) गुरु के चरणों की धूल मांगता हूँ। (तेरा) दास नानक (तुझसे) मांगता है (कि ये) दान दे कि मैं, हे हरि! सदा सदा ही (तुझे) स्मरण करता रहूँ।4।38।45।

माझ महला ५ ॥ ऐथै तूंहै आगै आपे ॥ जीअ जंत्र सभि तेरे थापे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई करते मै धर ओट तुमारी जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। आपे = (तू) स्वयं ही। सभि = सारे। थापे = पैदा किए हुए। करते = हे कर्तार! धर = आसरा। ओट = सहारा।1।

अर्थ: हे कर्तार! इस लोक में मेरा तू ही सहारा है, और परलोक में भी मेरा तू स्वयं ही आसरा है। सारे ही जीव जन्तु तेरे ही सहारे हैं। हे कर्तार तेरे बिना मुझे कोई और (सहायक) नहीं (दिखता)। मुझे तेरी ही ओट है तेरा ही आसरा है।1।

रसना जपि जपि जीवै सुआमी ॥ पारब्रहम प्रभ अंतरजामी ॥ जिनि सेविआ तिन ही सुखु पाइआ सो जनमु न जूऐ हारी जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। जपि जपि = बार बार जप के। जीवै = (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल करता है। प्रभू = हे प्रभु! अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिन ही = उसने ही। जूऐ = जूए के खेल में। हारी = हारता है।2।

नोट: ‘तिन ही’ में ‘तिनि’ के ‘न’ अक्षर से ‘ि’ की मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण नहीं लगी है और ‘ही’ लगने के कारण शब्द बन गया ‘तिन’।

अर्थ: हे स्वामी! हे पारब्रहम! हे अंतरयामी प्रभु! (तेरा सेवक तेरा नाम अपनी) जीभ से जप जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य ने तेरी सेवा भक्ति की उसने ही आत्मिक आनंद हासिल किया। वह मनुष्य अपना मानव जनम व्यर्थ नहीं गवाता (जैसेकि जुआरिया जूए में अपना सब कुछ हार जाता है)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh