श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 108 नामु अवखधु जिनि जन तेरै पाइआ ॥ जनम जनम का रोगु गवाइआ ॥ हरि कीरतनु गावहु दिनु राती सफल एहा है कारी जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: अवखदु = दवा। जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। जिनि जनि तेरै = तेरे जिस दास ने। कारी = कार।3। अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे जिस सेवक ने तेरा नाम (-रूप) दवा ढूँढ ली, उसने कई जन्मों (के विकारों) का रोग (उस दवा के साथ) दूर कर लिया। (हे भाई!) रात दिन परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहो, यही कार लाभदायक है।3। द्रिसटि धारि अपना दासु सवारिआ ॥ घट घट अंतरि पारब्रहमु नमसकारिआ ॥ इकसु विणु होरु दूजा नाही बाबा नानक इह मति सारी जीउ ॥४॥३९॥४६॥ पद्अर्थ: द्रिसटी = दृष्टि, मेहर की नजर। धारि = धार के, धारण करके। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। बाबा = हे भाई! नानक = हे नानक! सारी = श्रेष्ठ।4। अर्थ: (प्रभु ने जो) अपना सेवक (अपनी) मेहर की निगाह करके सदकर्मों वाले जीवन वाला बना दिया, उसने हरेक शरीर में उस परमात्मा को (देख के हरेक के आगे) अपना सिर निवाया (भाव, हरेक के साथ प्रेम प्यार वाला बरताव किया)। हे नानक! (कह:) हे भाई! एक परमात्मा के बिना और कोई (उस जैसा) नहीं है, यही सबसे श्रेष्ठ सूझ है।4।39।46। माझ महला ५ ॥ मनु तनु रता राम पिआरे ॥ सरबसु दीजै अपना वारे ॥ आठ पहर गोविंद गुण गाईऐ बिसरु न कोई सासा जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: सरबसु = (सर्वस्व। सर्व+स्व = सारा+धन), सब कुछ। सास = श्वास।1। अर्थ: (हे भाई! अगर तू ये चाहता है कि तेरा) मन (तेरा) शरीर प्यारे प्रभु (के प्रेम रंग में) रंगा रहे (तो) अपना सब कुछ सदके करके (उस प्रेम के बदले) दे देना चाहिए। आठों पहर गोविंद के गुण गाने चाहिए। (हे भाई!) कोई एक श्वास (लेते हुए भी परमात्मा को) ना भुलाओ।1। सोई साजन मीतु पिआरा ॥ राम नामु साधसंगि बीचारा ॥ साधू संगि तरीजै सागरु कटीऐ जम की फासा जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: तरीजै = तैरते हैं। सागरु = समुंदर। फासा = फांसी।2। अर्थ: जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा के नाम को विचारता है, वही सज्जन-प्रभु का प्यारा मित्र है। साधु-संगत में (रहने से) संसार समुंदर से पार लांघ सकते हैं, और जमों वाली फांसी कट जाती है।2। चारि पदारथ हरि की सेवा ॥ पारजातु जपि अलख अभेवा ॥ कामु क्रोधु किलबिख गुरि काटे पूरन होई आसा जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: चारि पदारथ = (धर्म, अर्थ काम, मोक्ष)। पारजातु = स्वर्ग का वृक्ष, जो मनोकामना पूरी करता है। अलख = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। किलबिख = पाप। गुरि = गुरु ने।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की सेवा भक्ति ही (दुनिया के प्रसिद्ध) चार पदार्थ हैं। (हे भाई!) अलख अभेव प्रभु का नाम जप, यही पारजात (वृक्ष मनोकामनाएं पूरी करने वाला) है। जिस मनुष्य (के अंदर से) गुरु ने काम-वासना दूर कर दी है जिसके सारे पाप गुरु ने काट दिए हैं, उसकी (हरेक किस्म की) आशा पूरी हो गई।3। पूरन भाग भए जिसु प्राणी ॥ साधसंगि मिले सारंगपाणी ॥ नानक नामु वसिआ जिसु अंतरि परवाणु गिरसत उदासा जीउ ॥४॥४०॥४७॥ पद्अर्थ: भाग = किस्मत। सारंगपाणी = सारंग+पाणि = धनुष+हाथ, धनुषधारी प्रभु। जिसु अंतरि = जिसके हृदय में। उदास = माया के मोह से उपराम।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग पड़ें, उसको साधु-संगत में परमात्मा मिल जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमातमा का नाम बस जाता है, वह घर-बार वाला होता हुआ भी माया से निर्लिप रहता है और उस प्रभु के दर पे स्वीकार रहता है।4।40।47। माझ महला ५ ॥ सिमरत नामु रिदै सुखु पाइआ ॥ करि किरपा भगतीं प्रगटाइआ ॥ संतसंगि मिलि हरि हरि जपिआ बिनसे आलस रोगा जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सुखु = आत्मिक आनंद। भगती = भगतों ने। बिनसे = नाश हो गए।1। अर्थ: (जिस मनुष्य के हृदय में) भगतजनों ने कृपा करके (परमात्मा का नाम) प्रगट कर दिया, उसने नाम स्मरण करके हृदय में आत्मिक आनंद का सुख प्राप्त किया। साधु-संगत में मिल के जिस ने सदा हरि नाम जपा, उसके सारे आलस उसके सारे रोग दूर हो गए।1। जा कै ग्रिहि नव निधि हरि भाई ॥ तिसु मिलिआ जिसु पुरब कमाई ॥ गिआन धिआन पूरन परमेसुर प्रभु सभना गला जोगा जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: जा कै ग्रिहि = जिस हरि के घर में। नवनिधि = नौ खजाने। पुरब कमाई = पहले जन्मों की नेक कमाई (सामने आ गई)। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = समाधि, ध्यान। जोगा = समर्थ।2। अर्थ: हे भाई जिस हरि के घर में नौ खजाने मौजूद हैं, वह हरि उस मनुष्य को मिलता है (गुरु के द्वारा) जिसकी पहले जन्मों में की नेक कमाई के संस्कार जाग पड़ते हैं। उसकी पूर्ण परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। उसे यकीन हो जाता है कि परमात्मा सब काम करने की स्मर्था रखता है।2। खिन महि थापि उथापनहारा ॥ आपि इकंती आपि पसारा ॥ लेपु नही जगजीवन दाते दरसन डिठे लहनि विजोगा जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: थापि = स्थापना करके, पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। इकंती = एकांती, अकेला। पसारा = जगत का पसारा। लेपु = प्रभाव। लहनि = उतर जाते हैं।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा (सारा जगत) रच के एक छिन में (इसको) नाश करने की ताकत भी रखता है। वह स्वयं ही (निर्गुण स्वरूप हो के) अकेला (हो जाता) है, और स्वयं ही (अपने आप से सरगुण स्वरूप धार के) जगत रचना कर देता है। उस कर्तार को, जगत के जीवन उस प्रभु को माया का प्रभाव विचलित नहीं कर सकता। उसका दर्शन करने से सारे विछोड़े उतर जाते हैं (प्रभु से विछोड़ा डालने वाले सारे प्रभाव मन से उतर जाते हैं)।3। अंचलि लाइ सभ सिसटि तराई ॥ आपणा नाउ आपि जपाई ॥ गुर बोहिथु पाइआ किरपा ते नानक धुरि संजोगा जीउ ॥४॥४१॥४८॥ पद्अर्थ: अंचलि = पल्ले के साथ। सिसटि = सृष्टि, दुनिया। बोहिथु = जहाज। ते = साथ, से। धुरि = प्रभु की धुर दरगाह से।4। अर्थ: (हे भाई! गुरु के) पल्ले लगा के (प्रभु स्वयं ही) सारी सृष्टि को (संसार समुंदर से) पार लंघाता है, प्रभु (गुरु के द्वारा) अपना नाम स्वयं (जीवों से) जपाता है। हे नानक! परमात्मा की धुर दरगाह से मिलाप के सबब बनने से परमात्मा की मेहर से गुरु जहाज मिलता है।4।41।48। माझ महला ५ ॥ सोई करणा जि आपि कराए ॥ जिथै रखै सा भली जाए ॥ सोई सिआणा सो पतिवंता हुकमु लगै जिसु मीठा जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: सा जाए = वह जगह (शब्द ‘सा’ स्त्रीलिंग है)। पतिवंता = इज्जतवाला। जि = जो।1। नोट: ‘सो’ शब्द पुलिंग है। अर्थ: (जीव) वही काम कर सकता है, जो परमात्मा स्वयं कराता है। (जीव को) जिस जगह पे परमात्मा रखता है, वही जगह (जीव वास्ते) ठीक होती है। वही मनुष्य अक्ल वाला है वही मनुष्य इज्जत वाला है, जिसे परमात्मा का हुक्म प्यारा लगता है।1। सभ परोई इकतु धागै ॥ जिसु लाइ लए सो चरणी लागै ॥ ऊंध कवलु जिसु होइ प्रगासा तिनि सरब निरंजनु डीठा जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: इकतु = एक में। इकतु धागे = एक ही धागे में। ऊंध = उल्टा हुआ, प्रभु चरणों से उलट हुआ। तिनि = उस (मनुष्य) ने। निरंजन = निर+अंजन, जिस पर माया की कालख का कोई असर नहीं हो सकता।2। अर्थ: परमात्मा ने सारी सृष्टि को अपने (हुक्म रूपी) धागे में परो रखा है। जिस जीव को प्रभु (अपने चरणों से) लगाता है, वही चरणों से लगता है। उस मनुष्य ने (ही) निर्लिप प्रभु को हर जगह देखा है, जिसका पलटा हुआ हृदय रूपी कमल का फूल (प्रभु ने अपनी मेहर से खुद) खिला दिया है।2। तेरी महिमा तूंहै जाणहि ॥ अपणा आपु तूं आपि पछाणहि ॥ हउ बलिहारी संतन तेरे जिनि कामु क्रोधु लोभु पीठा जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, उपमा। आपु = स्वै को। हउ = मैं। जिनि = जिस जिस ने। पीठा = पीस दिया, नाश कर दिया।3। नोट: शब्द ‘जिनि’ एकवचन और ‘जिन’ बहुवचन है। अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही जानता है कि तू कितना बड़ा है। अपने आप को तू स्वयं ही समझ सकता है। तेरे जिस जिस संत ने (तेरी मेहर से अपने अंदर से) काम को, क्रोध को, लोभ को दूर किया है, मैं उन पे से कुर्बान जाता हूं।3। तूं निरवैरु संत तेरे निरमल ॥ जिन देखे सभ उतरहि कलमल ॥ नानक नामु धिआइ धिआइ जीवै बिनसिआ भ्रमु भउ धीठा जीउ ॥४॥४२॥४९॥ पद्अर्थ: निरमल = पवित्र। कलमल = पाप, गुनाह। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। धीठा = ढीठ, अमोड़।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरे अंदर किसी के वास्ते वैर नहीं है। तेरे संत भी (वैर भावना आदि की) मैल से रहित हैं। तेरे उन संत जनों का दर्शन करने से (औरों के भी) पाप दूर हो जाते हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु तेरा) नाम स्मरण कर-कर के जो मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है उसके मन में से भटकना के डर दूर हो जाते हैं।4।42।49। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |