श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 110 माझ महला ३ घरु १ ॥ करमु होवै सतिगुरू मिलाए ॥ सेवा सुरति सबदि चितु लाए ॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ माइआ मोहु चुकावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। सबदि = गुरु के शब्द में। लाए = जोड़ता है। मारि = मार के। सुखु = आत्मिक आनंद। चुकावणिआ = समाप्त कर दिया।1। अर्थ: जिस मनुष्य पर प्रभु की बख्शिश हो, उसे प्रभु गुरु से मिलाता है (गुरु की मेहर से वह मनुष्य) सेवा में ध्यान टिकाता है, गुरु के शब्द में चिक्त जोड़ता है। (इस तरह) वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार के माया का मोह दूर करता है, और सदैव आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। हउ वारी जीउ वारी सतिगुर कै बलिहारणिआ ॥ गुरमती परगासु होआ जी अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = सदके। बलिहारणिआ = कुर्बान। परगासु = आत्मिक जीवन देने वाली रौशनी। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदैव गुरु से सदके हूँ कुर्बान हूँ। गुरु की मति ले के ही मनुष्य के अंदर (सही जीवन के वास्ते) आत्मिक प्रकाश होता है, और मनुष्य हर रोज (हर वक्त) परमात्मा की महिमा करता रहता है।1। रहाउ। तनु मनु खोजे ता नाउ पाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर की बाणी अनदिनु गावै सहजे भगति करावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: ता = तब। धावतु = माया की ओर दौड़ता मन। राखै = काबू करे। ठाकि = रोक के। रहाए = रखे। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: जब मनुष्य अपने मन को खोजता रहे अपने शरीर को खोजता रहे (अर्थात, जो मनुष्य ये ध्यान रखे कि कहीं मन और ज्ञानेंद्रियां विकारों की तरफ तो नहीं पलट चलीं), तब परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है। (और इस तरह विकारों की ओर) दौड़ते मन को काबू कर लेता है, रोक के (प्रभु चरणों में) जोड़े रखता है। जो मनुष्य हर वक्त गुरु की वाणी गाता रहता है, आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की भक्ति करता रहता है।2। इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा ॥ गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा ॥ नउ दरवाजे दसवै मुकता अनहद सबदु वजावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। असंखा = बेअंत गुणों वाला प्रभु। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। नउ दरवाजे = नौ द्वार (दो आँखें, दो कान, दो नासें, मुँह, गुदा, लिंग)। दसवै = दसवें द्वार से, दिमाग से विचार करके। मुकता = माया के मोह से आजाद। अनहद = (अनाहत, बिना आवाज के), एक रस, लगातार।3। अर्थ: बेअंत गुणों के मालिक प्रभु मनुष्य के इस शरीर के अंदर ही बसता है। गुरु के सन्मुख रह के जब मनुष्य को सदा स्थिर प्रभु का नाम प्राप्त होता है तो (अपने अंदर बसते प्रभु के) दर्शन करता है। तब मनुष्य नौ कपाटों की वासनाओं से ऊँचा हो के दसवें द्वार में (भाव, विचार मण्डल में) पहुँच के (विकारों से) मुक्त हो जाता है और (अपने अंदर) एक रस महिमा की वाणी का अभ्यास करता है।3। सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। साहिबु = मालिक। नाई = (स्ना = अरबी शब्द) बड़ाई, नामवर। मंनि = मनि, मन में। रंगि = प्रेम में। राता = मस्त। दरि सचै = सदा स्थि प्रभु के दर पे, प्रभु की हजूरी में। सोझी = आत्मिक जीवन की समझ।4। अर्थ: मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उसका बड़प्पन भी सदा कायम रहने वाला है। (हे भाई!) गुरु की कृपा से (उसे अपने) मन में टिका के रख। (जो मनुष्य प्रभु की महिमा मन में बसाता है) वह हर समय सदा प्रभु के प्रेम में मस्त रहता है। (इस तरह) सदा स्थिर प्रभु की हजूरी में पहुँचा हुआ वह मनुष्य (सही जीवन की) समझ प्राप्त करता है।4। पाप पुंन की सार न जाणी ॥ दूजै लागी भरमि भुलाणी ॥ अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सार = तमीज, पहिचान। पुंन = भला कर्म। दूजे = माया के मोह में। भरमि = भटकना में। भुलाणी = कुराहे पड़ी। मगु = (जीवन का सही) रास्ता।5। अर्थ: जिस मनुष्य ने अच्छे-बुरे काम की तमीज नहीं की (भाव, कोई भला काम हो या बुरा काम हो जो मनुष्य करने से संकोच नहीं करता), जिस मनुष्य की तवज्जो माया के मोह में टिकी रहती है। जो माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पे पड़ा रहता है, वह माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (जीवन का सही) रास्ता नही समझता, वह मुड़-मुड़ के जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।5। गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाइआ ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा बजर कपाट खुलावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: ते = से, साथ। मेरा = ममता। साखी = शिक्षा के द्वारा। बजर = (वज्र), करड़े। कपाट = दरवाजे के भिक्त।6। अर्थ: गुरु की बताई सेवा के द्वारा मनुष्य सदैव आत्मिक आनंद को प्राप्त करता है। अहम् और ममता को रोक के वश में रखता है। गुरु की शिक्षा पर चल के उसके अंदर से माया के मोह का अंधकार दूर हो जाता है। (उसके माया के मोह के वह) करड़े किवाड़ खुल जाते हैं (जिन्हों में उसकी तवज्जो जकड़ी पड़ी थी)।6। हउमै मारि मंनि वसाइआ ॥ गुर चरणी सदा चितु लाइआ ॥ गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु निरमल नामु धिआवणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: मारि = मार के। मंनि = मनि, मन में। ते = से, साथ।7। अर्थ: जिस मनुष्य ने सदा गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रखा, जिस ने (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (अपने) मन में (गुरु का शब्द बसाए रखा), गुरु की कृपा से उसका मन पवित्र हो गया, उसका शरीर (भाव, सारे ज्ञानेंद्रे) पवित्र हो गए, और वह पवित्र प्रभु का नाम सदैव स्मरण करता रहता है।7। जीवणु मरणा सभु तुधै ताई ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तूं जमणु मरणु सवारणिआ ॥८॥१॥२॥ पद्अर्थ: तुधै ताई = तेरे वश है। दे = देता है।8। अर्थ: (हे प्रभु! जीवों का) जीना (जीवों की) मौत, सब तेरे वश में है। (हे भाई!) जिस जीव पर प्रभु मेहर करता है, उसे (अपने नाम की दाति दे के) बडप्पन बख्शता है। हे नानक! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। (नाम की इनायत से) जनम से ले के मौत तक सारा जीवन सुंदर बन जाता है।8।1।2। नोट: अंक 2 का भाव है कि गुरु नानक देव जी की अष्टपदी मिला के सारा जोड़ 2 बनता है।। माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु निरमलु अगम अपारा ॥ बिनु तकड़ी तोलै संसारा ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: निरमलु = विकारों की मैल से रहित। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = जिसके गुणों का दूसरा छोर नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। कहि = कह के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में। अर्थ: प्यारा प्रभु स्वयं पवित्र स्वरूप है और बेअंत है। वह तराजू (बरते) बिना ही सारे संसार के जीवों के जीवन को परखता रहता है (हरेक जीव के अंदर व्यापक रह के)। (इस भेद को) वही मनुष्य समझता है जो गुरु के सन्मुख रहता है। वह (गुरु के द्वारा) परमात्मा के गुण उचार के गुणों के मालिक प्रभु में लीन हुआ रहता है।1। हउ वारी जीउ वारी हरि का नामु मंनि वसावणिआ ॥ जो सचि लागे से अनदिनु जागे दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। मंनि = मनि, मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जागे = माया के हमलों से सुचेत। दरि = दर से।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदा उनके सदके जाता हूँ, जो परतमात्मा का नाम अपने मन में बसाते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में लगन लगाए रखते हैं, वे हर समय माया के हमलों की ओर से सुचेत रहते हैं, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की हजूरी में शोभा पाते हैं।1। रहाउ। आपि सुणै तै आपे वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ आपे लाइ लए सो लागै गुरमुखि सचु कमावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: तै = और।लेखै = लेखे में, स्वीकार। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।2। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिस’ के ‘स’ में लगी ‘ु’ की मात्रा, संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: परमात्मा खुद ही (सभ जीवों की अरदास) सुनता है और स्वयं ही (सबकी) संभाल करता है। जिस जीव पे प्रभु मेहर की नजर करता है, वही मनुष्य (उसके दर पे) स्वीकार होता है। जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं अपनी याद में जोड़ के रखता है, वही जुड़ा रहता है। वह गुरु के सन्मुख रह के सदा स्थिर नाम जपने की कमाई करता है।2। जिसु आपि भुलाए सु किथै हथु पाए ॥ पूरबि लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥ जिन सतिगुरु मिलिआ से वडभागी पूरै करमि मिलावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: भुलाए = गलत जीवन-राह पर डाल दे। किथै हथु पाए = किसका पल्ला पकड़े, कहां हाथ डाले? पूरबि = पहले जनम में (किए कर्मों अनुसार)। लिखिआ = संस्कार रूपी लेख। करमि = मेहर से।3। अर्थ: (पर) जिस मनुष्य को प्रभु खुद गलत रास्ते पे लगा दे, वह (सही राह ढूँढने के लिए) किसी अन्य का आसरा नहीं ले सकता। पूर्बले जन्म में किए संस्कारों का लेख मिटाया नहीं जा सकता (और वह लेख गलत रास्ते पे डाले रखता है)। जिस मनुष्यों को पूरा गुरु मिल जाता है, वे बड़े भाग्यों वाले हैं। उन्हें पूरी मेहर से प्रभु अपने चरणों से मिलाए रखता है।3। पेईअड़ै धन अनदिनु सुती ॥ कंति विसारी अवगणि मुती ॥ अनदिनु सदा फिरै बिललादी बिनु पिर नीद न पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। धन = (जीव) स्त्री। सुती = माया के मोह की नींद में मस्त। कंति = कंत ने, पति ने। विसारी = भुला दी। अवगणि = औगुणों के कारण। मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। नीद = आत्मिक शांति।4। अर्थ: जो जीव-स्त्री इस लोक में हर समय माया के मोह की नींद में मस्त रहती है, उसे खसम प्रभु ने भुला दिया है। वह अपनी भूल के कारण त्यागी हुई पड़ी है। वह जीव-स्त्री हर वक्त दुखी भटकती फिरती है, प्रभु पति के मिलाप के बिना उसे आत्मिक सुख नहीं मिलता।4। पेईअड़ै सुखदाता जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ सेज सुहावी सदा पिरु रावे सचु सीगारु बणावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सुखदाता = सुख देने वाला प्रभु। जाता = पहचाना। सबदि = शब्द में जुड़ के। सेज = हृदय रूपी सेज। सुहावी = सुहानी। रावे = माणती है, भोगती है, आनंद लेती है। सचु = सदा कायम रहने वाला।5। अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पेके घर में सुख देने वाले प्रभु पति के साथ गहरी सांझ डाले रखी, जिसने (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु पति को पहिचान लिया, उसके हृदय की सेज सुंदर बन जाती है, वह सदा प्रभु पति के मिलाप का आनंद लेती है, सदा स्थिर प्रभु के नाम को वह अपने जीवन का श्रृंगार बना लेती है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |