श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ जिस नो नदरि करे तिसु गुरू मिलाए ॥ किलबिख काटि सदा जन निरमल दरि सचै नामि सुहावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: किलबिख = पाप। काटि = काट के। नामि = नाम में (जुड़े रहने के कारण)।6।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीव’ का बहुवचन।

अर्थ: परमात्मा ने चौरासी लाख जूनियों में बेअंत जीव पैदा किए हुये हैं। जिस जीव पे वह मेहर की नजर करता है, उसे गुरु मिला देता है। (गुरु चरणों में जुड़े हुए) लोग अपने पाप दूर करके सदा पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, और सदा स्थिर प्रभु के दर पे प्रभु के नाम की इनायत से शोभा पाते हैं।6।

लेखा मागै ता किनि दीऐ ॥ सुखु नाही फुनि दूऐ तीऐ ॥ आपे बखसि लए प्रभु साचा आपे बखसि मिलावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: किनि = किस ने? किनि दीऐ = किस ने दिया है? कोई नहीं दे सकता। फुनि = दुबारा। दूऐ तीऐ = गिनती करने में, लेखा देने में। बखसि = बख्श के।7।

अर्थ: (हम जीव सदा ही भूल करने वाले हैं) यदि प्रभु (हमारे किए कर्मों का) हिसाब मांगने लगे, तो कोई जीव हिसाब नहीं दे सकता (अर्थात, लेखे में पूरा नही उतर सकता)। (अपने किए कर्मों का) लेखा गिनाने से (भाव, लेखे में सुर्ख-रू होने की आस से) किसी को आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। प्रभु स्वयं ही मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लेता है।7।

आपि करे तै आपि कराए ॥ पूरे गुर कै सबदि मिलाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपे मेलि मिलावणिआ ॥८॥२॥३॥

पद्अर्थ: तै = और। कै सबदि = के शब्द में। मेलि = मिलाप में, चरणों में।8।

अर्थ: (सब जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (सब कुछ) करता है और स्वयं ही (प्रेरना करके जीवों से) करवाता है। प्रभु स्वयं ही पूरे गुरु के शब्द में जोड़ के अपने चरणों में मिलाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को (उसके दर से उसका) नाम मिलता है, उसे (उसकी हजूरी में) आदर मिलता है, प्रभु स्वयं हीउसको अपने चरणों में जोड़ लेता है।8।2।3।

माझ महला ३ ॥ इको आपि फिरै परछंना ॥ गुरमुखि वेखा ता इहु मनु भिंना ॥ त्रिसना तजि सहज सुखु पाइआ एको मंनि वसावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: परछंना = (परिछन्न = enveloped, clothed) ढका हुआ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। भिंना = भीग गया। तजि = छोड़ के। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। मंनि = मनि, मन में।1।

अर्थ: (दृष्टमान जगतरूपी पर्दे में) ढका हुआ परमात्मा स्वयं ही स्वयं (सारे जगत में) विचर रहा है। जिस लोगों ने गुरु की शरण पड़ कर (उस गुप्त प्रभु को) जब देख लिया तब उनका मन (उसके प्रेम रस में) भीग गया। (माया की) तृष्णा त्याग के उन्होंने आत्मिक अडोलता का आनंद हासिल कर लिया। एक परमात्मा ही परमात्मा उनके मन में बस गया।1।

हउ वारी जीउ वारी इकसु सिउ चितु लावणिआ ॥ गुरमती मनु इकतु घरि आइआ सचै रंगि रंगावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। इकसु सिउ = सिर्फ एक के साथ। इकतु घरि = एक घर में।1। रहाउ।

अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो एक परमात्मा के साथ चिक्त जोड़ते हैं। गुरु की शिक्षा लेकर जिनका मन परमात्मा के चरणों में टिक गया है, वे सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में (सदा के लिए) रंगे गए।1। रहाउ।

इहु जगु भूला तैं आपि भुलाइआ ॥ इकु विसारि दूजै लोभाइआ ॥ अनदिनु सदा फिरै भ्रमि भूला बिनु नावै दुखु पावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: बिसारि = भुला के। दूजै = तेरे बिना किसी और में, माया के मोह में। अनदिनु = हर रोज। भ्रमि = भटकना में।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) ये जगत गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है (पर इसके क्या वश?) तूने खुद ही इसे गलत रास्ते पर डाला हुआ है। तुझे एक को भूल के माया के मोह में फंसा हुआ है। भटकन के कारण कुमार्ग पर पड़ा हुआ जगत सदा हर वक्त भटकता फिरता है, और तेरे नाम से टूट के दु: ख सह रहा है।2।

जो रंगि राते करम बिधाते ॥ गुर सेवा ते जुग चारे जाते ॥ जिस नो आपि देइ वडिआई हरि कै नामि समावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। बिधाता = जगत रचना करने वाला। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाला। ते = से, साथ। जुग चारे = चारों युगों में, सदा के लिए। जाते = प्रसिद्ध हो जाते हैं। देइ = देता है। नामि = नाम में।3।

अर्थ: जीवों को किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में जो लोग मस्त रहते हैं, वे गुरु की बताई सेवा के कारण सदा के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं। (पर ये उसकी अपनी ही मेहर है) परमात्मा जिस मनुष्य को खुद ही इज्जत देता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है।3।

माइआ मोहि हरि चेतै नाही ॥ जमपुरि बधा दुख सहाही ॥ अंना बोला किछु नदरि न आवै मनमुख पापि पचावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फंस के)। जम पुरि = यम की नगरी में। सहाही = सहे, सहता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। पापि = पाप में। पचावणिआ = (प्लुष = जलना), जलते हैं, दुखी होते हैं।4।

अर्थ: जो मनुष्य माया के मोह में फंस के परमात्मा को याद नहीं रखता, वह (अपने किए कर्मों) के विकारों में बंधा हुआ यम की नगरी में (आत्मिक मौत के कब्जे में आया हुआ) दु: ख सहता है। माया के मोह में अंधा हुआ वह मनुष्य (परमात्मा की महिमा) सुनने से अस्मर्थ रहता है। (माया के बगैर) उसे और कुछ दिखता भी नहीं। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे पाप (वाले जीवन) में ही जलते रहते हैं।4।

इकि रंगि राते जो तुधु आपि लिव लाए ॥ भाइ भगति तेरै मनि भाए ॥ सतिगुरु सेवनि सदा सुखदाता सभ इछा आपि पुजावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: तुधु = तूं। भाइ = प्रेम में। मनि = मन में। भाए = प्यारे लगे। सेवनि = सेवा करते हैं।5।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिनमें तूने खुद, अपने नाम की लगन लगाई है, वे तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। (तेरे चरणों के साथ) प्रेम के कारण (तेरी) भक्ति के कारण वह तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य आत्मिक आनंद देने वाले गुरु की बताई हुई सेवा करते हैं हे प्रभु! तू स्वयं ही उनकी हरेक इच्छा पूरी करता है।5।

हरि जीउ तेरी सदा सरणाई ॥ आपे बखसिहि दे वडिआई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै जो हरि हरि नामु धिआवणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! दे = दे के। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत।6।

अर्थ: हे प्रभु जी! मैं सदा ही तेरा आसरा देखता हूँ। तू जीवों को बड़प्पन दे के खुद ही बख्शिश करता है।

(हे भाई!) जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटक सकती।6।

अनदिनु राते जो हरि भाए ॥ मेरै प्रभि मेले मेलि मिलाए ॥ सदा सदा सचे तेरी सरणाई तूं आपे सचु बुझावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। मेलि = मिलाप में। सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! सचु = सदा स्थिर नाम।7।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगते हैं, वे हर समय (हर रोज) उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। मेरे प्रभु ने उनको अपने साथ मिला लिया है, अपने चरणों में जोड़ लिया है। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! वे मनुष्य सदा ही सदा ही तेरा पल्ला पकड़े रहते हैं, तू स्वयं ही उन्हें अपने नाम की सूझ प्रदान करता है।7।

जिन सचु जाता से सचि समाणे ॥ हरि गुण गावहि सचु वखाणे ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लावणिआ ॥८॥३॥४॥

पद्अर्थ: जाता = सांझ डाल ली, पहचान लिया। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। वखाणे = वखाण, उचार के। बैरागी = वैरागवान, माया से उपराम। निज घरि = अपने घर में। ताड़ी = समाधि।8।

अर्थ: जिस लोगों ने सदा स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली है, वह सदा स्थिर प्रभु का नाम उचार उचार के सदैव उसके गुण गाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वो माया के मोह की ओर से विरक्त हो जाते हैं, वह (बाहर माया के पीछे भटकने की जगह) अपने हृदय धर में टिके रहते हैं।8।3।4।

माझ महला ३ ॥ सबदि मरै सु मुआ जापै ॥ कालु न चापै दुखु न संतापै ॥ जोती विचि मिलि जोति समाणी सुणि मन सचि समावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: मरै = मरता है। मुआ = (अहम्, ममता की ओर से) मरा हुआ। जापै = प्रतीत हो जाता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत। चापै = (चाप = धनुष) फाही ले सकता। मिलि = मिल के। मन = हे मन! स्चि = सदा स्थिर प्रभु में।1।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (स्वै भाव की ओर से) मरता है, वह (स्वै भाव की ओर से) मरा हुआ मनुष्य (जगत में) आदर मान पाता है। उसे आत्मिक मौत (अपने पंजे में) फंसा नहीं सकती, उसे कोई दुख-कष्ट दुखी नहीं कर सकता। प्रभु की ज्योति में मिल के उसकी तवज्जो प्रभु में ही लीन रहती है। और हे मन! वह मनुष्य (प्रभु की महिमा) सुन के सदा स्थिर परमात्मा में समाया रहता है।1।

हउ वारी जीउ वारी हरि कै नाइ सोभा पावणिआ ॥ सतिगुरु सेवि सचि चितु लाइआ गुरमती सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कै नाइ = के नाम में। सेवि = सेवा करके। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।

अर्थ: मैं सदा उन पे से सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के (लोक परलोक में) शोभा कमाते हैं। जो गुरु की बताई हुई सेवा कर-कर के सदा स्थिर प्रभु में चिक्त जोड़ते हैं और गुरु की मति पर चल के आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।1। रहाउ।

काइआ कची कचा चीरु हंढाए ॥ दूजै लागी महलु न पाए ॥ अनदिनु जलदी फिरै दिनु राती बिनु पिर बहु दुखु पावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: कची = नाशवान। चीरु = कपड़ा। दूजै = माया के मोह में। महलु = प्रभु चरणों में निवास। जलदी = जलती।2।

अर्थ: ये शरीर नाशवान है। जैसे कमजोर सा कपड़ा है (पर मनुष्य की जिंद इस) जरजर कपड़े को ही इस्तेमाल करती रहती है (भाव, जिंद शारीरिक भोगों में ही मगन रहती है)। (जिंद) माया के प्यार में लगी रहती है (इस वास्ते यह प्रभु चरणों में) ठिकाना हासिल नही कर सकती। (माया के मोह के कारण जिंद) हर समय दिन रात जलती व भटकती है। प्रभु पति (के मिलाप) के बगैर बहुत दु: ख झेलती है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh