श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 112 देही जाति न आगै जाए ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै छुटै सचु कमाए ॥ सतिगुरु सेवनि से धनवंते ऐथै ओथै नामि समावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: देही = शरीर। जाति = (उच्च) जाति (का गुमान)। आगै = परलोक में। छुटै = आजाद होता है। कमाए = कमा के। सचु कमाए = सदा स्थिर का नाम जपने की कमाई करके। ऐथै ओथै = इस लोक में और परलोक में। नामि = नाम में।3। अर्थ: प्रभु की हजूरी में (मनुष्य का) शरीर नहीं जा सकता, ऊँची जाति भी नहीं पहुँच सकती (जिसका मनुष्य इतना गुमान करता है)। जहाँ (परलोक में हरेक मनुष्य से उसके द्वारा किए कर्मों का) हिसाब मांगा जाता है। वहाँ तो सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की कमाई करके आजाद होते हैं। जो मनुष्य गुरु की बताई सेवा करते हैं, वे (प्रभु के नाम धन से) धनाढ बन जाते हैं। वे इस लोक में भी और परलोक में भी सदा प्रभु के नाम में ही लीन रहते हैं।3। भै भाइ सीगारु बणाए ॥ गुर परसादी महलु घरु पाए ॥ अनदिनु सदा रवै दिनु राती मजीठै रंगु बणावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: भै = (प्रभु के) डर अदब में (रह के)। भाइ = (प्रभु के) प्यार में (जुड़ के)। सीगारु = गहणा। रवै = स्मरण करता है। मजीठै रंगु = मजीठा वाला पक्का रंग।4। अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के डर अदब में रह के प्रभु के प्रेम में मगन हो के (प्रभु के नाम को अपने जीवन का) गहना बनाता है, वह गुरु की कृपा से प्रभु चरणों में ठिकाना बना लेता है। प्रभु चरणों में घर प्राप्त कर लेता है। वह हर रोज दिन रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है (वह अपनी जिंद को) मजीठा जैसा (पक्का प्रभु का) नाम रंग चढ़ा लेता है।4। सभना पिरु वसै सदा नाले ॥ गुर परसादी को नदरि निहाले ॥ मेरा प्रभु अति ऊचो ऊचा करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: को = कोई विरला। नदरि निहाले = आँखों से देखता है।5। अर्थ: (हे भाई!) प्रभु पति सदा सभ जीवों के साथ (सब के अंदर) बसता है, पर कोई विरला जीव गुरु की कृपा से (उसे हर जगह) अपनी आँखों से देखता है। (हे भाई!) प्यारा प्रभु बहुत ही ऊँचा है (बेअंत ऊँचे आत्मिक जीवन का मालिक है, और हम जीव नीच-जीवन के है) वह स्वयं ही मेहर करके (जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है।5। माइआ मोहि इहु जगु सुता ॥ नामु विसारि अंति विगुता ॥ जिस ते सुता सो जागाए गुरमति सोझी पावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: मोहि = मोह में। अंत = आखिर। विगुता = ख्वार होती है। जिस ते = जिस से, जिस परमात्मा के हुक्म अनुसार।6। अर्थ: ये जगत माया के मोह में फंस कर सोया हुआ है (आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हो रहा है)। परमात्मा का नाम भुला के आखिर खुआर ही होता है। (फिर भी ये इस नींद में से जागता नहीं। जागे भी कैसे? इसके बस की बात नहीं) जिसके हुक्म के अनुसार (जगत माया के मोह की नींद में) सो रहा है, वही इसे जगाता है (वह प्रभु स्वयं ही इसे) गुरु की मति पे चला के (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है।6। अपिउ पीऐ सो भरमु गवाए ॥ गुर परसादि मुकति गति पाए ॥ भगती रता सदा बैरागी आपु मारि मिलावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भरमु = भटकना। मुकति = माया के मोह से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। बैरागी = वैरागवान, माया के मोह से ऊपर। आपु = स्वै भाव।7। अर्थ: जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीता है। वह (माया के मोह वाली) भटकना दूर कर लेता है। गुरु की कृपा से वह माया के मोह से खलासी पा लेता है। वह उच्च अवस्था प्राप्त कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगा जाता है, (इस की इनायत से वही) माया के मोह से निर्लिप रहता है और सवै-भाव मार केवह अपने आप को प्रभु चरणों में मिला लेता है।7। आपि उपाए धंधै लाए ॥ लख चउरासी रिजकु आपि अपड़ाए ॥ नानक नामु धिआइ सचि राते जो तिसु भावै सु कार करावणिआ ॥८॥४॥५॥ पद्अर्थ: धंधै = झमेले में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।8। अर्थ: हे नानक! प्रभु खुद ही जीवों को पैदा करता है और खुद ही माया की दौड़ भाग में जोड़ देता है। चौरासी लाख जोनियों के जीवों को रिजक भी प्रभु स्वयं ही पहुँचाता है। पर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करके उस सदा स्थिर प्रभु (के नाम रंग) में रंगे रहते हैं। वे वही कार करते हैं जो उस परमात्मा को स्वीकार होती है।8।4।5। माझ महला ३ ॥ अंदरि हीरा लालु बणाइआ ॥ गुर कै सबदि परखि परखाइआ ॥ जिन सचु पलै सचु वखाणहि सचु कसवटी लावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: अंदरि = मनुष्य के शरीर में। सबदि = शब्द से। परखि = परख के। परखाइआ = परख कराई। जिन पलै = जिस के पास। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। कसवटी = रगड़ लगाने वाली बट्टी (पथरी), कसौटी।1। अर्थ: परमात्मा ने हरेक के शरीर के अंदर (अपना ज्योति-रूपी) हीरा लाल टिकाया हुआ है। (पर चुनिंदा भाग्यशालियों ने) गुरु के शब्द द्वारा (उस हीरे लाल की) परख करके (साधु-संगत में) परख कराई है। जिनके हृदय में सदा स्थिर प्रभु का नाम-हीरा बस गया है, वे सदा स्थिर नाम स्मरण करते हैं। वे (अपने आत्मिक जीवन की परख के वास्ते) सदा स्थिर नाम को ही कसौटी (के तौर पर) इस्तेमाल करते हैं।1। हउ वारी जीउ वारी गुर की बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अंजन माहि निरंजनु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। मंनि = मनि, मन में। अंजन = कालख, माया। निरंजन = माया के प्रभाव से रहित प्रभु!।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदा उनके सदके जाता हूँ, जो गुरु की वाणी को अपने मन में बसाते हैं। उन्होंने माया में विचरते हुए ही (इस वाणी की इनायत से) निरंजन प्रभु को ढूंढ लिया है, वे अपनी तवज्जो को प्रभु की ज्योति में मिलाए रखते हैं।1। रहाउ। इसु काइआ अंदरि बहुतु पसारा ॥ नामु निरंजनु अति अगम अपारा ॥ गुरमुखि होवै सोई पाए आपे बखसि मिलावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: पसारा = माया का खिलारा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला।2। अर्थ: (एक तरफ) इस मानव शरीर में (माया का) बहुत खिलारा बिखरा हुआ है। (दूसरी तरफ) प्रभु माया के प्रभाव सेऊपर है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है। उसका नाम (मनुष्य को कैसे प्राप्त हो?)। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वही (निरंजन के नाम को) प्राप्त करता है। प्रभु स्वयं ही मेहर करके (उसे अपने चरणों में) मिला लेता है।2। मेरा ठाकुरु सचु द्रिड़ाए ॥ गुर परसादी सचि चितु लाए ॥ सचो सचु वरतै सभनी थाई सचे सचि समावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: द्रिढ़ाए = दृढ़ कराता है, पक्का टिकाता है। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। सचो सचु = सच ही सच, सदा स्थिर प्रभु ही। सचे सचि = सच ही सच, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में ही।3। अर्थ: पालणहारा प्यारा प्रभु (जिस मनुष्य के हृदय में अपना) सदा स्थिर नाम दृढ़ करता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से सदा स्थिर प्रभु में अपना मन जोड़ता है। (उसे यकीन बन जाता है कि) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही सभी जगहों में मौजूद है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।3। वेपरवाहु सचु मेरा पिआरा ॥ किलविख अवगण काटणहारा ॥ प्रेम प्रीति सदा धिआईऐ भै भाइ भगति द्रिड़ावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: किलविख = पाप, भै-डर अदब में रह कर। भाइ = प्रेम में।4। अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्यारा प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसे किसी किस्म की अधीनता भी नहीं है। वह सब जीवों के पाप और औगुण दूर करने की ताकत रखता है। प्रेम प्यार से उसका ध्यान धरना चाहिए। उसके डर अदब में रह के प्यार से उसकी भक्ति (अपने हृदय में) पक्की करनी चाहिए।4। तेरी भगति सची जे सचे भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ सभना जीआ का एको दाता सबदे मारि जीवावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर रहने वाली। सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! देइ = देता है। सबदे = शब्द में जोड़ के। मारि = (विकारों की ओर से) मार के।5। अर्थ: हे सदा स्थिर प्रभु! तेरी भक्ति (की दाति जीव को तभी मिलती है यदि) तेरी रजा हो। (हे भाई! भक्ति व अन्य सांसारिक पदार्थों की दाति) प्रभु स्वयं ही (जीवों को) देता है। (दे दे के वह) पछताता भी नहीं। (क्योंकि) सब जीवों को दातें देने वाला वह खुद ही खुद है। गुरु के शब्द से (जीव को विकारों की ओर से) मार के सवयं ही आत्मिक जीवन देने वाला है।5। हरि तुधु बाझहु मै कोई नाही ॥ हरि तुधै सेवी तै तुधु सालाही ॥ आपे मेलि लैहु प्रभ साचे पूरै करमि तूं पावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: तुधै = तूझे ही। सेवी = मैं सेवा करता हूँ। तै = और। सालाही = मैं सालाहता हूँ। प्रभु = हे प्रभु! पूरै करमि = तेरी पूरी बख्शिश से। तूं = तुझे।6। अर्थ: हे हरि! तेरे बिना मुझे (अपना) कोई और (सहारा) नहीं दिखता। हे हरि! मैं तेरी ही सेवा भक्ति करता हूँ। मैं तेरी ही महिमा करता हूँ। हे सदा कायम रहने वाले प्रभु! तू स्वयं ही मुझे अपने चरणों से जोड़े रख। तेरी पूरी मेहर से ही तुझे मिल सकते हैं।6। मै होरु न कोई तुधै जेहा ॥ तेरी नदरी सीझसि देहा ॥ अनदिनु सारि समालि हरि राखहि गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: जेहा = जैसा। नदरी = मिहर की निगाह से। सीझसि = सफल होती है। देहा = काया,शरीर। सारि = सार ले कर। समालि = संभाल के। हरि = हे हरि! सहजि = आत्मिक अडोलता में।7। अर्थ: हे प्रभु! तेरे जैसा मुझे और कोई नहीं दिखता। तेरी मेहर की निगाह से ही (अगर तेरी भक्ति की दाति मिले तो तेरा यह) शरीर सफल हो सकता है। हे हरि! तू स्वयं ही हर समय जीवों की संभाल करके (विकारों से) रक्षा करता है। (तेरी मेहर से) जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।7। तुधु जेवडु मै होरु न कोई ॥ तुधु आपे सिरजी आपे गोई ॥ तूं आपे ही घड़ि भंनि सवारहि नानक नामि सुहावणिआ ॥८॥५॥६॥ पद्अर्थ: सिरजी = पैदा की। गोई = लीन कर ली। घड़ि = घड़ के, साज के। भंनि = तोड़ के, नाश करके। नामि = नाम में।8। अर्थ: हे प्रभु! तेरे बराबर का मुझे और कोई नही दिखाई देता। तूने खुद ही रचना रची हैख् तू स्वयं ही इसका नाश करता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू स्वयं ही बना-तोड़ के सँवारता है, तूं स्वयं ही अपने नाम की बरकत से (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है।8।5।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |