श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 113 माझ महला ३ ॥ सभ घट आपे भोगणहारा ॥ अलखु वरतै अगम अपारा ॥ गुर कै सबदि मेरा हरि प्रभु धिआईऐ सहजे सचि समावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सभ घट = सारे शरीर। आपे = प्रभु स्वयं ही। अलखु = (अलक्ष्य = invisible, unobserved) अदृष्टि। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।1। अर्थ: (हे भाई!) सारे शरीरों में (व्यापक हो के प्रभु) स्वयं ही (जगत के सारे पदार्थ) भोग रहा है। (फिर भी वह) अदृष्ट रूप में मौजूद है अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है। उस प्यारे हरि प्रभु को गुरु के शब्द में जोड़ के स्मरणा चाहिए। (जो मनुष्य स्मरण करते हैं वह) आत्मिक अडोलता में सदा स्थिर प्रभु में समाए रहते हैं।1। हउ वारी जीउ वारी गुर सबदु मंनि वसावणिआ ॥ सबदु सूझै ता मन सिउ लूझै मनसा मारि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मंनि = मन में। सूझै = सूझ पड़ता है, अंतर आत्मे टिकाता है। सिउ = साथ। लूझै = लड़ता है, सामना करता है। मनसा = (मनीषा) कामना।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा उस मनुष्य के सदके कुर्बान जाता हूँ जो सतिगुरु के शब्द को (अपने) मन में बसाता है। जब गुरु का शब्द मनुष्य के अंतर आत्मे टिकता है, तो वह अपने मन से टकराव करता है, और मन की कामना मार के (प्रभु चरणों में) लीन रहता है।1। रहाउ। पंच दूत मुहहि संसारा ॥ मनमुख अंधे सुधि न सारा ॥ गुरमुखि होवै सु अपणा घरु राखै पंच दूत सबदि पचावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: मुहहि = ठग रहे हैं। अंधे = माया में अंधे हुए जीव को। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले को। सुधि = (intelligence), अकल। सार = खबर। सबदि = शब्द के द्वारा। पचावणिआ = जला देता है, मार देता है।2। अर्थ: (हे भाई! कामादिक) पाँच वैरी, जगत (के आत्मिक जीवन) को लूट रहे हैं। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को ना अकल है ना ही (इस लूट की) खबर है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह अपना घर बचा लेता है। वह गुरु के शब्द में टिक के इन पाँच वैरियों का नाश कर लेता है।2। इकि गुरमुखि सदा सचै रंगि राते ॥ सहजे प्रभु सेवहि अनदिनु माते ॥ मिलि प्रीतम सचे गुण गावहि हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। अनदिनु = हर रोज। माते = मस्त। साचे = सदा स्थिर प्रभु के।3। नोट: ‘इकि’ है शब्द ‘इक’ का बहुवचन। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं, वे सदैव सदा स्थिर प्रभु के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। वे आत्मिक अडोलता में मस्त हर समय प्रभु का स्मरण करते हैं। वे प्रभु प्रीतम को मिल के उस सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं और प्रभु के दर से आदर हासिल करते हैं।3। एकम एकै आपु उपाइआ ॥ दुबिधा दूजा त्रिबिधि माइआ ॥ चउथी पउड़ी गुरमुखि ऊची सचो सचु कमावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: एकम = पहले पहल। एकै = एक ने ही, एक निर्गुण रूप ने ही। आपु = अपने आप को। उपाइआ = प्रगट किया, पैदा किया। दुबिधा = दो किस्मा, निर्गुण और सर्गुण स्वरूपों वाला। दूजा = दूसरा (काम उसने ये किया)। त्रिबिधि = तीन गुणों वाली। पउड़ी = दर्जा, ठिकाना। चउथी = तीन गुणों से ऊपर की।4। अर्थ: पहले प्रभु अकेला स्वयं (निर्गुण स्वरूप) था। उसने अपने आप को प्रगट किया। इस तरह फिर दो किस्मों वाला (निर्गुण और सर्गुण स्वरूप वाला) बन गया और उस के तीन गुणों वाली माया रच दी। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, उसका आत्मिक ठिकाना माया के तीन गुणों (के प्रभाव) से ऊपर ऊँचा रहता है। वह सदैव सदा स्थिर प्रभु का नाम जपने की कमाई करता रहता है।4। सभु है सचा जे सचे भावै ॥ जिनि सचु जाता सो सहजि समावै ॥ गुरमुखि करणी सचे सेवहि साचे जाइ समावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सभ = हर जगह। सचे = सदा स्थिर प्रभु को। भावै = अच्छा लगे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जाता = गहरी सांझ डाल ली। करणी = करतब।5। अर्थ: अगर सदा स्थिर प्रभु की रजा हो (तो जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है, उसे यह निश्चय हो जाता है कि) सदा स्थिर परमात्मा हर जगह मौजूद है। (प्रभु की मेहर से) जिस मनुष्य ने सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है। (हे भाई!) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों का कर्तव्य ही ये है कि वे सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते रहते हैं और सदा स्थिर प्रभु में ही जा के लीन हो जाते हैं।5। सचे बाझहु को अवरु न दूआ ॥ दूजै लागि जगु खपि खपि मूआ ॥ गुरमुखि होवै सु एको जाणै एको सेवि सुखु पावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: दूआ = दूसरा, उस जैसा। दूजै = माया के मोह में। लागि = लग के। खपि खपि = दुखी हो हो के। मूआ = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।6। अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना कोई और दूसरा (आत्मिक आनंद देने वाला नहीं है) जगत (उसे विसार के और सुख की खातिर) माया के मोह में फंस के दुखी हो के आत्मिक मौत ले लेता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। वह एक परमात्मा का ही स्मरण करके आत्मिक आनंद लेता है।6। जीअ जंत सभि सरणि तुमारी ॥ आपे धरि देखहि कची पकी सारी ॥ अनदिनु आपे कार कराए आपे मेलि मिलावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। धरि = रख के। सारी = नरद।7। अर्थ: (हे प्रभु! जगत के) सारे जीव तेरा ही आसरा देख सकते हैं (हे प्रभु! ये तेरा रचा हुआ जगत, मानो चौपड़ की खेल है), तू स्वयं ही (इस चौपड़ पे) कच्ची-पक्की नर्दें (भाव, ऊँचे और कच्चे जीवन वाले जीव) रच के इनकी संभाल करता है। (हे भाई!) हर रोज (हर वक्त) प्रभु स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के जीवों से) कार करवाता है, और स्वयं ही अपने चरणों में मिलाता है।7। तूं आपे मेलहि वेखहि हदूरि ॥ सभ महि आपि रहिआ भरपूरि ॥ नानक आपे आपि वरतै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥८॥६॥७॥ पद्अर्थ: हदूरि = अंग संग रह के। वेखहि = संभाल करता है।8। अर्थ: (हे भाई!) तू स्वयं ही जीवों के अंग संग हो के सबकी संभाल करता है और अपने चरणों में जोड़ता है। (हे भाई!) सब जीवों में प्रभु स्वयं ही हाजिर नाजिर मौजूद है। हे नानक! सब जगह प्रभु स्वयं ही बरत रहा है। गुरु के सन्मुख रहने वाले लोगों को ये समझ आ जाती है।8।6।7। माझ महला ३ ॥ अम्रित बाणी गुर की मीठी ॥ गुरमुखि विरलै किनै चखि डीठी ॥ अंतरि परगासु महा रसु पीवै दरि सचै सबदु वजावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली, आत्मिक मौत से बचाने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। किनै = किस ने। अंतरि = अंदर, हृदय में। परगासु = सही जीवन की सूझ, रोशनी। दरि = दर पे।1। अर्थ: सतिगुरु की वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है और जीवन में मिठास भरने वाली है। पर, किसी विरले गुरमुखि ने इस वाणी का रस ले के ये तब्दीली देखी है। जो मनुष्य गुरु की वाणी का श्रेष्ठ रस लेता है, उसके अंदर सही जीवन की सूझ पैदा हो जाती है। वह सदैव सदा सिथर प्रभु के दर पर टिका रहता है। उसके अंदर गुरु का शब्द अपना पूरा प्रभाव डाले रखता है।1। हउ वारी जीउ वारी गुर चरणी चितु लावणिआ ॥ सतिगुरु है अम्रित सरु साचा मनु नावै मैलु चुकावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंम्रितसरु = अमृत का कुण्ड। साचा = सदा कायम रहने वाला। नावै = स्नान करता है।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदा उस मनुष्य के सदके कुर्बान जाता हूँ, जो गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रखते हैं। सतिगुरु आत्मिक जीवन देने वाले जल का कुण्ड है, वह कुण्ड सदा कायम रहने वाला भी है। (जिस मनुष्य का) मन (उस कुण्ड में) स्नान करता है, (वह अपने मन की विकारों की) मैल दूर कर लेता है।1। रहाउ। तेरा सचे किनै अंतु न पाइआ ॥ गुर परसादि किनै विरलै चितु लाइआ ॥ तुधु सालाहि न रजा कबहूं सचे नावै की भुख लावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले। परसादि = कृपा से। न रजा = नहीं रजता, पेट नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। सालाहि = महिमा करके। कब हूँ = कभी भी। नावै की = नाम की।2। अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! किसी भी जीव को तेरे गुणों का अंत नहीं मिला। किसी विरले मनुष्य ने ही गुरु की कृपा से ही (तेरे चरणों में अपना) चिक्त जोड़ा है। (हे प्रभु! मेहर कर कि) मैं तेरी महिमा करते करते कभी भी ना तृप्त होऊँ। तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम की भूख मुझे हमेशा लगी रहे।2। एको वेखा अवरु न बीआ ॥ गुर परसादी अम्रितु पीआ ॥ गुर कै सबदि तिखा निवारी सहजे सूखि समावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: वेखा = मैं देखता हूं। बीआ = दूसरा। तिखा = (माया की) प्यास, त्रिष्णा। सहजे = सहिज, आतिमक अडोलता में।3। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से मैंने आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम रस को पिया है। अब मैं हर जगह एक परमात्मा को ही देखता हूँ। (उसके बिना मुझे) कोई और नहीं (दिखता)। गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने माया की तृष्णा दूर कर ली है, अब मैं आत्मिक अडोलता मैं आत्मिक आनंद में लीन रहता हूँ।3। रतनु पदारथु पलरि तिआगै ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ लागै ॥ जो बीजै सोई फलु पाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: पलरि = तोरीए की नाड़ियां। दजै भाइ = दूसरे के प्यार में, प्रभु के बिना और के प्रेम में।4। अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु को भुला के) माया के प्यार में फंसा रहता है, वह परमात्मा के नाम रतन को (दुनिया के सब पदार्थों से श्रेष्ठ) पदार्थ को तरोई की नाड़ियों के बदले में हाथों से गवाता रहता है। जो (दुखदायी बीज) वह मनमुख बीजता है, उसका वही (दुखदायी) फल वह हासिल करता है। वह सुपने में भी आत्मिक आनंद नही पाता।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |