श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 114 अपनी किरपा करे सोई जनु पाए ॥ गुर का सबदु मंनि वसाए ॥ अनदिनु सदा रहै भै अंदरि भै मारि भरमु चुकावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। अनदिनु = हर रोज। भै अंदरि = (‘अंदरि’ संबंधक के कारण शब्द ‘भउ’, ‘भै’ में बदल गया। देखें गुरबाणी व्याकरण)। भै = भय से। मारि = (मन को) मार के।5। अर्थ: जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी कृपा करता है वही मनुष्य (आत्मिक आनंद) प्राप्त करता है (क्योंकि वह) गुरु का शब्द अपने मन में बसाए रखता है। वह मनुष्य हर रोज हर समय परमात्मा के डर अदब में टिका रहता है, और उस डर अदब की इनायत से अपने मन को मार के (विकारों को मार के विकारों की तरफ की) दौड़-भाग दूर करे रखता है।5। भरमु चुकाइआ सदा सुखु पाइआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ अंतरु निरमलु निरमल बाणी हरि गुण सहजे गावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: भरमु = भटकना। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। अंतरु = अंदर का, मन (शब्द ‘अंतरि’ संबंधक है, जबकि ‘अंतरु’ संज्ञा है)।6। अर्थ: जिस मनुष्य ने (अपने मन की विकारों की ओर की) दौड़-भाग खत्म कर ली, उसने सदा आत्मिक आनंद प्राप्त किया। गुरु की कृपा से उसने सब से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली। जीवन को पवित्र करने वाली गुरबाणी की सहायता से उसका मन पवित्र हो गया। वह आत्मिक अडोलता में टिक के सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।6। सिम्रिति सासत बेद वखाणै ॥ भरमे भूला ततु न जाणै ॥ बिनु सतिगुर सेवे सुखु न पाए दुखो दुखु कमावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: वखाणै = उचारता है, और लोगों को सुनाता है। भरमे = भरमि ही, भटकन में ही। भला = कुमार्ग पर पड़ा रहता है। ततु = अस्लियत (तत्वं = The real nature of the human soul or the material world as being identical with the Supreme Being)।7। अर्थ: (पंडित) वेद शास्त्र स्मृतियों (आदि धर्म पुस्तकें) और लोगों को पढ़ पढ़ के सुनाता रहता है, पर स्वयं माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर चलता है। वह असलियत को नहीं समझता। गुरु की बताई सेवा किए बगैर वह आत्मिक आनंद नहीं प्राप्त कर सकता, दुख ही दुख (पैदा करने वाली) कमाई करता रहता है।7। आपि करे किसु आखै कोई ॥ आखणि जाईऐ जे भूला होई ॥ नानक आपे करे कराए नामे नामि समावणिआ ॥८॥७॥८॥ पद्अर्थ: नामे नामि = नाम ही नाम, नाम में ही नाम में ही।8। अर्थ: (पर ये सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है। सब जीवों में व्यापक हो के परमात्मा) स्वयं ही (सब कुछ) करता है। किसे कौन कह सकता है (कि तू कुमार्ग पर जा रहा है)? किसी को समझाने की जरूरत तभी पड़ सकती है, यदि वह (स्वयं) कुमार्ग पर पड़ा हुआ हो। हे नानक! परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करा रहा है, वह स्वयं ही (सर्व-व्यापक हो के अपने) नाम में ही लीन हो सकता है।8।7।8। माझ महला ३ ॥ आपे रंगे सहजि सुभाए ॥ गुर कै सबदि हरि रंगु चड़ाए ॥ मनु तनु रता रसना रंगि चलूली भै भाइ रंगु चड़ावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुहाने प्रेम में। सबदि = शब्द से। रता = रंगा जाता है। रसना = जीभ। चलूली = गहरे रंग वाली। भै = (प्रभु के) डर अदब में। भाइ = (प्रभु के) प्रेम में।1। अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जिस मनुष्यों को) आत्मिक अडोलता के (रंग) में रंगता है, श्रेष्ठ प्यार (के रंग) में रंगता है, जिन्हें गुरु के शब्द में (जोड़ के यह) रंग चढ़ाता है, उनका मन रंग जाता है। उनका शरीर रंगा जाता है। उनकी जीभ (नाम-) रंग में गहरी लाल हो जाती है। गुरु उन्हें प्रभु के डर-अदब में रख के प्रभु के प्यार में जोड़ के नाम-रंग चढ़ाता है।1। हउ वारी जीउ वारी निरभउ मंनि वसावणिआ ॥ गुर किरपा ते हरि निरभउ धिआइआ बिखु भउजलु सबदि तरावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मंनि = मन में। ते = से, साथ। बिखु = जहर। भउजलु = संसार समुंदर।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदा उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ जो उस परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं, जिसे किसी का डर खतरा नहीं। जिन्होंने गुरु की कृपा से निरभउ परमात्मा का ध्यान धरा है। परमात्मा उन्हें गुरु-शब्द में जोड़ के जहर रूपी संसार समुंदर से पार लंघा लेता है (भाव, उस संसार समुंदर से पार लंघाता है जिस का मोह आत्मिक जीवन वास्ते जहर जैसा है)।1। रहाउ। मनमुख मुगध करहि चतुराई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ जेहा आइआ तेहा जासी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुगध = मूर्ख। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = स्वीकार नही होता। जासी = जाएगा।2। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य चतुराईयां करते हैं (और कहते हैं कि हम तीर्थ-स्नान आदि पुंन्य कर्म करते हैं)। (पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) बाहर से कितना ही पवित्र कर्म करने वाला हो (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होता। (वह जगत में आत्मिक जीवन से) जैसा (खाली आता है) वैसा ही (खाली) चला जाता है। (जगत में) अवगुण कर करके (आखिर) पछताता ही (चला जाता) है।2। मनमुख अंधे किछू न सूझै ॥ मरणु लिखाइ आए नही बूझै ॥ मनमुख करम करे नही पाए बिनु नावै जनमु गवावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: किछू न सूझै = (सही जीवन युक्ति बारे), कुछ भी नहीं सूझता।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को, माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को (सही जीवन युक्ति के बारे में) कुछ नही सूझता। (पिछले जन्मों में मनमुखता के अधीन किए कर्मों के अनुसार) आत्मिक मौत (के संस्कार अपने मन की तख्ती पर) लिखा के वह (जगत में) आता है (यहां भी उसे) समझ नहीं आती, अपने मन के पीछे चल के ही कर्म करता रहता है और (सही जीवन जुगति की सूझ) हासिल नहीं करता, और परमात्मा के नाम से वंचित रह के मानव जनम को व्यर्थ गवा जाता है।3। सचु करणी सबदु है सारु ॥ पूरै गुरि पाईऐ मोख दुआरु ॥ अनदिनु बाणी सबदि सुणाए सचि राते रंगि रंगावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सरु = श्रेष्ठ (काम)। गुरि = गुरु द्वारा। मोख दुआर = (विकारों से) खलासी का दरवाजा। अनदिनु = हर रोज। सबदि = शब्द द्वारा। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4। अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर प्रभु का नाम जपना ही करने योग्य काम है। गुरु का शब्द (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उद्यम) है। पूरे गुरु द्वारा ही विकारों से खलासी पाने का दरवाजा मिलता है। (गुरु जिनको) हर समय अपनी वाणी के द्वारा (परमात्मा की महिमा) सुनाता रहता है, वे सदा स्थिर प्रभु के नाम के रंग में रंगे जाते हैं। वे उसके प्रेम रंग में रंगे जाते है।4। रसना हरि रसि राती रंगु लाए ॥ मनु तनु मोहिआ सहजि सुभाए ॥ सहजे प्रीतमु पिआरा पाइआ सहजे सहजि मिलावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: रसि = रस में। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)।5। अर्थ: जिस मनुष्य की जीभ पूरी लगन लगा के परमात्मा के नाम रस में रंगी जाती है, उसका मन आत्मिक अडोलता में मस्त रहता है, उसका शरीर प्रेम रंग में मगन रहता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्यारे प्रीतम प्रभु को मिल लेता है, वह सदा ही आत्मक अडोलता में लीन रहता है।5। जिसु अंदरि रंगु सोई गुण गावै ॥ गुर कै सबदि सहजे सुखि समावै ॥ हउ बलिहारी सदा तिन विटहु गुर सेवा चितु लावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: रंगु = लगन। सुखि = आत्मिक आनंद में। विटहु = में से।6। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में लगन है, वही सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। वह गुरु के शब्द में जुड़ के आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में मगन हुआ रहता है। मैं सदा उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरु द्वारा बताई कार में अपना चिक्त लगाया हुआ है।6। सचा सचो सचि पतीजै ॥ गुर परसादी अंदरु भीजै ॥ बैसि सुथानि हरि गुण गावहि आपे करि सति मनावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: पतीजै = पसीजना। अंदरु = हृदय (याद रहे कि ‘अंदरु’ संज्ञा है, ‘अंदरि’ संबंधक है।) बैसि = बैठ के, टिक के। सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। आपे = प्रभु स्वयं ही। सति = सत्य, ठीक।7। नोट: ‘जिस नो’ बारे में। देखें ‘जिसु अंदरि’ शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। दंखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों का हृदय (महिमा के रस से) भीगा रहता है, जिनका मन सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके सदा स्थिर की याद में पसीजा रहता है वे श्रेष्ठ अंतरात्में में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। प्रभु स्वयं ही उनको ये श्रद्धा बख्शता है कि महिमा की कार ही सही जीवन कार है।7। जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी हउमै जाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥८॥८॥९॥ पद्अर्थ: अंतरि = में। दरि = दर पे।8। अर्थ: पर, प्रभु का नाम स्मरण करने की सूझ वही मनुष्य हासिल करता है, जिस पर प्रभु मेहर की निगाह करता है। गुरु की कृपा से (नाम स्मरण करने से) उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम बस जाता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पे उसको शोभा मिलती है।8।8।9। माझ महला ३ ॥ सतिगुरु सेविऐ वडी वडिआई ॥ हरि जी अचिंतु वसै मनि आई ॥ हरि जीउ सफलिओ बिरखु है अम्रितु जिनि पीता तिसु तिखा लहावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सेविऐ = यदि सेवा की जाए, यदि आसरा बनाया जाए (सेव् = to betaken oneself to)। अचिंतु = जिसे कोई चिन्ता ना सता सके। मनि = मन में। आई = आ के। सफलिओ = फलीभूत। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु तिखा = उसकी प्यास।1। अर्थ: अगर (मनुष्य) गुरु को (अपनी जिंदगी का) आसरा परना (अंगोछा) बना ले, तो उसको ये भारी इज्जत मिलती है कि वह परमात्मा उसके मन में आ बसता है जिसे दुनिया की कोई भी चिन्ता छू नही सकती। (हे भाई!) परमात्मा (मानो) एक फलदार वृक्ष है जिस में से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस रिसता है। जिस मनुष्य ने (वह रस) पी लिया, नाम रस ने उसकी (माया की) प्यास दूर कर दी।1। हउ वारी जीउ वारी सचु संगति मेलि मिलावणिआ ॥ हरि सतसंगति आपे मेलै गुर सबदी हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु। मेलि = मिला के।1। रहाउ। अर्थ: मैं सदके हूँ कुर्बान हूँ (परमात्मा से)। वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा साधु-संगत में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। परमात्मा खुद ही साधु-संगत का मेल करता है। (जो मनुष्य साधु-संगत में जुड़ता है वह) गुरु के शब्द से परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |