श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 119 खोटे खरे तुधु आपि उपाए ॥ तुधु आपे परखे लोक सबाए ॥ खरे परखि खजानै पाइहि खोटे भरमि भुलावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: उपाए = पैदा किए हैं। आपे = स्वयं ही। सबाए = सारे। परखि = परख के। पाइहि = तू पाता है। भरमि = भटकना में पड़ के।6। अर्थ: (हे प्रभु!) खोटे जीव और खरे जीव तेरे खुद के ही पैदा किए हुए हैं। तू स्वयं ही सारे जीवों (की करतूतों) को परखता रहता है। खरे जीवों को परख के तू अपने खजाने में डाल लेता है (अपने चरणों में जोड़ लेता है) और खोटे जीवों को भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाल देता है।6। किउ करि वेखा किउ सालाही ॥ गुर परसादी सबदि सलाही ॥ तेरे भाणे विचि अम्रितु वसै तूं भाणै अम्रितु पीआवणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: किउ करि = किस तरह? वेखा = देखूं, मैं दर्शन करूं। किउ = कैसे? भाणै = रजा अनुसार।7। अर्थ: (हे कर्तार!) मैं (तेरा दास) किस तरह तेरे दर्शन करूं? किस तरह तेरी महिमा करूं? (यदि तेरी अपनी ही मेहर हो, और तू मुझे गुरु मिला दे, तो) गुरु की कृपा से गुरु के शब्द में लग के तेरी महिमा कर सकता हूँ। (हे प्रभु!) तेरे हुकमि से ही तेरा अमृत नाम (जीव के हृदय में) बसता है। तू अपने हुक्म अनुसार ही अपना नाम-अंमृत (जीवों को) पिलाता है।7। अम्रित सबदु अम्रित हरि बाणी ॥ सतिगुरि सेविऐ रिदै समाणी ॥ नानक अम्रित नामु सदा सुखदाता पी अम्रितु सभ भुख लहि जावणिआ ॥८॥१५॥१६॥ पद्अर्थ: सतिगुरि सेविआ = अगर गुरु का आसरा लिया जाए। रिदै = हृदय में। पी = पी के।8। अर्थ: (हे भाई!) अगर सतिगुरु का आसरा-परना लिया जाए, तब ही आत्मिक जीवन देने वाला गुरु-शब्द तब ही आत्मिक जीवन दाती महिमा की वाणी मनुष्य के हृदय में बस सकती है। हे नानक! आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम सदा आत्मिक आनंद देने वाला है। ये नाम अंमृत पीने से (माया की) सारी भूख उतर जाती है।8।15।16। माझ महला ३ ॥ अम्रितु वरसै सहजि सुभाए ॥ गुरमुखि विरला कोई जनु पाए ॥ अम्रितु पी सदा त्रिपतासे करि किरपा त्रिसना बुझावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सु+भाय, ऊचें प्रेम में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। त्रिपतासे = तृप्त हो जाता है। त्रिसना = प्यास।1। अर्थ: जब मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिकता है, प्रभु प्रेम में जुड़ता है, तब उसके अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल बरखा करता है। पर (ये दाति) कोई वह विरला मनुष्य हासिल करता है, जो गुरु के बताए हुए रास्ते पे चलता है। आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पी के मनुष्य सदा के लिए (माया की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। (प्रभु) मेहर करके उनकी तृष्णा बुझा देता है।1। हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि अम्रितु पीआवणिआ ॥ रसना रसु चाखि सदा रहै रंगि राती सहजे हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ। चाखि = चख के। रंगि = प्रेम रंग में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1 रहाउ। अर्थ: मैं सदा उनके सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीते हैं। जिनकी जीभ नाम रस चख के प्रभु के प्रेम रंग में सदा रंगी रहती है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।1। रहाउ। गुर परसादी सहजु को पाए ॥ दुबिधा मारे इकसु सिउ लिव लाए ॥ नदरि करे ता हरि गुण गावै नदरी सचि समावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: को = कोई विरला। सहजु = आत्मिक अडोलता। दुबिधा = दुचिक्ता पन। इकसु सिउ = सिर्फ एक से। लिव = लगन। नदरि = मिहर की नजर। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2। अर्थ: गुरु की कृपा से कोई विरला मनुष्य आत्मिक अडोलता हासिल करता है। (जिसकी इनायत से) वह मन का दुचिक्तापन मार के सिर्फ परमात्मा (के चरणों) के साथ लगन लगाए रखता है। जब परमात्मा (किसी जीव पर मिहर की) निगाह करता है तब वह परमात्माके गुण गाता है, और प्रभु की मेहर की नजर सेसदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।2। सभना उपरि नदरि प्रभ तेरी ॥ किसै थोड़ी किसै है घणेरी ॥ तुझ ते बाहरि किछु न होवै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! घणेरी = बहुत। ते = से।3। अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर की निगाह सब जीवों पर ही है। किसी पे थोड़ी किसी पे बहुत। तुझसे बाहर (तेरी मेहर की निगाह के बगैर) कुछ नहीं होता- ये समझ उस मनुष्य को होती है जो गुरु की शरण पड़ता है।3। गुरमुखि ततु है बीचारा ॥ अम्रिति भरे तेरे भंडारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे कोई न पावै गुर किरपा ते पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: ततु = अस्लियत। अंम्रित = अमृत से। सेवे = शरण पड़ के।4। अर्थ: हे प्रभु! आत्मिक जीवन देने वाले तेरे नाम जलसे तेरे खजाने भरे पड़े हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने इस अस्लियत को समझा है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जानता है कि) गुरु की शरण पड़े बिना कोई मनुष्य नाम-अंमृत नही ले सकता। गुरु की कृपा से ही हासिल कर सकता है।4। सतिगुरु सेवै सो जनु सोहै ॥ अम्रित नामि अंतरु मनु मोहै ॥ अम्रिति मनु तनु बाणी रता अम्रितु सहजि सुणावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सोहै = शोभता है, सोहणे जीवन वाला बन जाता है। अंतरु मनु = अंदरूनी मन। मोहै = मस्त हो जाता है। रता = रंगा जाता है।5। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य सुहाने जीवन वाला बन जाता है। आत्मिक जीवन देने वाले नाम में उसका अंदरूनी मन मस्त रहता है। उस मनुष्य का मन उस का तन नाम अंमृत से महिमा की वाणी से रंगा जाता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली नाम धुनि को सुनता रहता है।5। मनमुखु भूला दूजै भाइ खुआए ॥ नामु न लेवै मरै बिखु खाए ॥ अनदिनु सदा विसटा महि वासा बिनु सेवा जनमु गवावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: भूला = कुराहे पड़ा हुआ। दूजै भाइ = प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। खुआए = सही जीवन-राह से वंचित रहता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। खाए = खा के। अनदिनु = हर रोज। विसटा = गंद।6। अर्थ: पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ जाता है। माया के प्यार में (खचित हो के) सही जीवन-राह से वंचित हो जाता है। वह परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता। वह (माया का मोह रूपी) जहर खा के आत्मिक मौत ले लेता है। (गंदगी के कीड़े की तरह) उस मनुष्य का निवास सदा हर वक्त (विकारों के) गंद में ही रहता है। परमातमा की सेवा भक्ति के बिना वह अपना मानव जनम बरबाद कर लेता है।6। अम्रितु पीवै जिस नो आपि पीआए ॥ गुर परसादी सहजि लिव लाए ॥ पूरन पूरि रहिआ सभ आपे गुरमति नदरी आवणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: ने = को। परसादी = कृपा से। पूरन = व्यापक।7। अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) वही मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीता है, जिसे परमात्मा स्वयं मिलाता है। गुरु की कृपा से वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है। सतिगुरु की मति ले कर फिर उसे ये प्रत्यक्ष दिखता है कि हर जगह स्वयं मौजूद है।7। आपे आपि निरंजनु सोई ॥ जिनि सिरजी तिनि आपे गोई ॥ नानक नामु समालि सदा तूं सहजे सचि समावणिआ ॥८॥१६॥१७॥ पद्अर्थ: निरंजनु = माया रहित प्रभु। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की। तिनि = उस (प्रभु) ने। गोई = नाश की। समालि = याद रख। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।8। अर्थ: (हे भाई!) माया के प्रभाव से ऊँचा रहने वाला परमात्मा हर जगह स्वयं ही मौजूद है। जिस परमात्मा ने ये सृष्टि पैदा की है वह स्वयं ही इसका नाश करता है। हे नानक! तू उस परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में संभाल के रख। (नाम जपने की इनायत से) आत्मिक अडोलता में टिक के उस सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।8।16।17। माझ महला ३ ॥ से सचि लागे जो तुधु भाए ॥ सदा सचु सेवहि सहज सुभाए ॥ सचै सबदि सचा सालाही सचै मेलि मिलावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। तुधु = तूझे। भाए = अच्छे लगे। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज सुभाए = प्रेम से आत्मिक अडोलता के भाव में। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। सालाही = मैं महिमा करूं। सचै मेलि = सदा स्थिर प्रभु के मेल में, सदा स्थिर प्रभु के चरणों में।1। अर्थ: (हे प्रभु!) जो लोग तुझे अच्छे लगते हैं वह (तेरे) सदा-स्थिर नाम में जुड़े रहते हैं। वे आत्मिक अडोलता के भाव में (टिक के) सदा (तेरे) सदा स्थिर रहने वाले नाम को स्मरण करते हैं। (हे भाई! यदि प्रभु की मेहर हो तो) मैं भी सदा स्थिर प्रभु के महिमा के शब्द के द्वारा उस सदा स्थिर प्रभु की महिमा करता रहूँ। (जो महिमा करते हैं) वे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के चरणों में जुड़े रहते हैं।1। हउ वारी जीउ वारी सचु सालाहणिआ ॥ सचु धिआइनि से सचि राते सचे सचि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: धिआइनि = ध्यान धरते हैं। राते = मस्त। सचे सचि = सदा स्थिर प्रभु में ही। रहाउ। अर्थ: मैं उनसे सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का ध्यान धरते हैं, वे उस सदा स्थिर में रंगे रहते हैं वे सदा ही सदा स्थिर में लीन रहते हैं।1। रहाउ। जह देखा सचु सभनी थाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ तनु सचा रसना सचि राती सचु सुणि आखि वखानणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: जह = जहां। देखा = देखूँ, देखता हूँ। मंनि = मनि, मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ। तनु सचा = अडोल शरीर, ज्ञानेंद्रियां विकारों में अडोल। रसना = जीभ।2। अर्थ: (हे भाई!) मैं जिधर देखता हूँ, सदा स्थिर परमात्मा हर जगह बसता है। गुरु की कृपा से ही मैं अपने मन में बसा सकता हूँ। जो मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु का नाम सुन के, उच्चार के, उसके गुण कथन करते हैं, उनकी जीभ सदा स्थिर रहने वाले प्रभु (के नाम रंग) में ही रंगी जाती है, उनके ज्ञानेंद्रियां अडोल हो जाती हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |