श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनसा मारि सचि समाणी ॥ इनि मनि डीठी सभ आवण जाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा मनु निहचलु निज घरि वासा पावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, कामना। मारि = (मन को) मार के। इनि = इस ने। मनि = मन ने। इनि मनि = इस मन ने। घरि = घर में।3।

अर्थ: (मन को) मार के जिस मनुष्य की वासना सदा स्थिर प्रभु में लीन हो गई है, उसने इस (टिके हुए) मन से इस सारे जनम मरन के चक्कर की खेल देख ली है (समझ ली है)। वह मनुष्य गुरु का आसरा लेता है, उसका मन सदा वास्ते (माया के हमलों से) अडोल हो जाता है। वह अपने असल घर में (प्रभु चरणों में) ठिकाना हासिल कर लेता है।3।

गुर कै सबदि रिदै दिखाइआ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचो सचा वेखि सालाही गुर सबदी सचु पावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: गुर कै सबदि = गुरु के शब्द ने। रिदै = हृदय में। सबदि = शब्द से। वेखि = देख के। सालाही = मैं सालाहता हूँ।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द ने (मुझे परमात्मा मेरे) हृदय में (बसता) दिखा दिया है। शब्द ने (मेरे अंदर से) माया का मोह जला दिया है। (अब) मैं (हर जगह) उस सदा स्थिर प्रभु को देख के (उसकी) महिमा करता हूँ। (हे भाई!) गुरु के शब्द में (जुड़ने वाले मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु का मिलाप हासिल कर लेते हैं।4।

जो सचि राते तिन सची लिव लागी ॥ हरि नामु समालहि से वडभागी ॥ सचै सबदि आपि मिलाए सतसंगति सचु गुण गावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: लिव = लगन। समालहि = हृदय में संभालते हैं।5।

अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के नाम रंग) में रंगे जाते हैं, उनके अंदर (प्रभु चरणों के वास्ते) सदा कायम रहने वाली लगन पैदा हो जाती है। वे बहुत भाग्यशाली मनुष्य प्रभु के नाम को (अपने हृदय में) सम्भाल के रखते हैं। जिस मनुष्यों को प्रभु स्वयं ही महिमा की वाणी में जोड़ता है, वह साधु-संगत में रह के सदा स्थिर प्रभु को स्मरण करते है। असके गुण गाते हैं।5।

लेखा पड़ीऐ जे लेखे विचि होवै ॥ ओहु अगमु अगोचरु सबदि सुधि होवै ॥ अनदिनु सच सबदि सालाही होरु कोइ न कीमति पावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: लेखा = परमात्मा के गुणों की हस्ती का अंत ढूँढने वाला हिसाब। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेंद्रियां नहीं पहुँच सकती। सुधि = समझ। अनदिनु = हर रोज। सच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से।6।

अर्थ: (हे भाई!) उस परमात्मा की कुदरति का उसकी हस्ती का उसके गुणों का पूरा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। उसका स्वरूप लेखों से बाहर हे। वह अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य के ज्ञानेंद्रियों तक उसकी पहुँच नही हो सकती। पर (परमात्मा की इस अगाधता की) समझ गुरु के शब्द द्वारा ही होती है।

मैं तो हर समय प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा उसकी महिमा करता हूँ। कोई भी और ऐसा नहीं जिस को परमात्मा के बराबर का कहा जा सके।6।

पड़ि पड़ि थाके सांति न आई ॥ त्रिसना जाले सुधि न काई ॥ बिखु बिहाझहि बिखु मोह पिआसे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: सांति = आत्मिक अडोलता। जाले = जलाए। बिखु = जहर। बिहाजहि = खरीदते हैं। बोलि = बोल के।7।

अर्थ: (परमात्मा का अंत पाने के लिए अनेक पुस्तकें) पढ़ पढ़ के (विद्वान लोग) थक गए, (प्रभु का स्वरूप भी ना समझ सके, और) आत्मिक अडोलता (भी) प्राप्त ना हुई। बल्कि (माया की) तृष्णा (की आग) में ही जलते रहे। आत्मिक मौत लाने वाली वो माया रूपी जहर ही एकत्र करते रहते हैं। इस माया-जहर के मोह की ही उन्हें प्यास लगी रहती है। झूठ बोल के वो इस जहर को ही अपनी (आत्मिक खुराक) बनाए रखते हैं।7।

गुर परसादी एको जाणा ॥ दूजा मारि मनु सचि समाणा ॥ नानक एको नामु वरतै मन अंतरि गुर परसादी पावणिआ ॥८॥१७॥१८॥

पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा को ही।8।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से सिर्फ एक परमात्मा से ही गहरी सांझ डाली, प्रभु के बिना अन्य प्यार को मार के उसका मन सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन हो गया।

जिस के मन में सिर्फ परमात्मा का नाम ही बसता है, वह गुरु की कृपा से (परमात्मा के चरणों में) मिलाप हासिल कर लेते हैं।8।17।18।

माझ महला ३ ॥ वरन रूप वरतहि सभ तेरे ॥ मरि मरि जमहि फेर पवहि घणेरे ॥ तूं एको निहचलु अगम अपारा गुरमती बूझ बुझावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: वरन = वर्ण, रंग। वरतहि = मौजूद है। फेर = चक्कर। घणेरे = बहुत। निहचलु = अटल।1।

अर्थ: (हे प्रभु! जगत में बेअंत जीव हैं, इन) सब में तेरे ही अलग अलग रूप दिखाई दे रहे हैं। (ये बेअंत जीव) बार बार पैदा होते मरते हैं, इन्हें जनम मरण के कई चक्कर पड़े रहते हैं। (हे प्रभु!) सिर्फ तू ही अटल है अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है, ये समझ तू ही गुरु की मति पर चला के जीवों को देता है।1।

हउ वारी जीउ वारी राम नामु मंनि वसावणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ वरनु न कोई गुरमती आपि बुझावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। मंनि = मनि, मन में। तिसु = उस (परमात्मा) का। रेखिआ = चिन्ह चक्र। वरनु = रंग।1। रहाउ।

नोट: ‘वरन’ बहुवचन और ‘वरनु’ एकवचन है।

अर्थ: मैं उन मनुष्यों पर से सदा कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा का नाम अपने मन में बसाते हैं। उस परमात्मा का कोई खास रूप नहीं, कोई खास चिन्ह-चक्र नहीं, कोई खास रंग नहीं। वह स्वयं ही जीवों को गुरु की मति के द्वारा अपनी सूझ देता है।1। रहाउ।

सभ एका जोति जाणै जे कोई ॥ सतिगुरु सेविऐ परगटु होई ॥ गुपतु परगटु वरतै सभ थाई जोती जोति मिलावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: सेविऐ = यदि सेवा की जाए, अगर आसरा लिया जाए।2।

अर्थ: सारी सृष्टि में एक परमात्मा की ही ज्योति मौजूद है। पर ये समझ किसी विरले मनुष्य को पड़ती है। गुरु की शरण पड़ने से ही (सभ जीवों में व्यापक ज्योति) प्रत्यक्ष दिखने लगती है। हर जगह परमात्मा की ज्योति गुप्त भी मौजूद है और प्रत्यक्ष भी। प्रभु की ज्योति हरेक जीव की ज्योति में मिली हुई है।2।

तिसना अगनि जलै संसारा ॥ लोभु अभिमानु बहुतु अहंकारा ॥ मरि मरि जनमै पति गवाए अपणी बिरथा जनमु गवावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। पति = इज्जत। बिरथा = व्यार्थ।3।

अर्थ: (हे भाई!) जगत (माया की) तृष्णा की अग्नि में जल रहा है, (इस पर लोभ अभिमान अहंकार अपना अपना) जोर डाल रहे हैं। (तृष्णा की आग के कारण) जगत आत्मिक मौत झेल के जनम मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है। अपनी इज्जत गवा रहा है और अपना मानव जनम व्यर्थ गवा रहा है।3।

गुर का सबदु को विरला बूझै ॥ आपु मारे ता त्रिभवणु सूझै ॥ फिरि ओहु मरै न मरणा होवै सहजे सचि समावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। त्रिभवणु = सारा जगत। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। मरणा = आत्मिक मौत। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।

अर्थ: कोई एक-आध (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु के शब्द को समझता है, (जो समझता है, वह जब अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करता है, तब वह परमात्मा को तीनों भवनों में व्यापक जान लेता है। (इस अवस्था पे पहुँच के) पुनः वह आत्मिक मौत नहीं झेलता। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। वह आत्मिक अडोलता में टिक के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4।

माइआ महि फिरि चितु न लाए ॥ गुर कै सबदि सद रहै समाए ॥ सचु सलाहे सभ घट अंतरि सचो सचु सुहावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: सद = सदा। सुहावणिआ = शोभा दे रहा है।5।

अर्थ: (ऐसी आत्मिक अवस्था पर पहुँचा हुआ मनुष्य) दुबारा कभी माया (के मोह) में अपना मन नहीं जोड़ता। वह गुरु के शब्द की इनायत से सदा परमात्मा की याद में टिका रहता है। वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की ही महिमा करता है। उसे यही दिखता है कि सारे शरीरों में वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही शोभा दे रहा है।5।

सचु सालाही सदा हजूरे ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरे ॥ गुर परसादी सचु नदरी आवै सचे ही सुखु पावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: हजूरे = अंग संग, हाजिर नाजर। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचे = सदा स्थिर प्रभु में।6।

अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा करता हूं, जो सदा (सब जीवों के) अंग संग बसता है। गुरु के शब्द में जुड़ने से वह हर जगह ही बसा हुआ दिखने लग पड़ता है। जिस मनुष्य को गुरु की कृपा से सदा कायम रहने वाला परमात्मा (हर जगह बसा हुआ) दिखाई देने लग पड़ता है। वह उस सदा स्थिर में ही लीन रह के आत्मिक आनंद लेता है।6।

सचु मन अंदरि रहिआ समाइ ॥ सदा सचु निहचलु आवै न जाइ ॥ सचे लागै सो मनु निरमलु गुरमती सचि समावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: आवै न जाइ = जो ना पैदा होता हैना मरता है।7।

अर्थ: सदा कायम रहने वाला परमात्मा हरेक मनुष्य के मन में मौजूद रहता है। वह स्वयं सदा अटल रहता है। ना कभी पैदा होता है, ना मरता है। जो मन उस सदा स्थिर प्रभु में प्यार पा लेता है, वह पवित्र हो जाता है। गुरु की मति पर चल करवह उस सदा स्थिर रहने वाले (की याद) में जुड़ा रहता है।7।

सचु सालाही अवरु न कोई ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होई ॥ नानक नामि रते वीचारी सचो सचु कमावणिआ ॥८॥१८॥१९॥

पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता हूँ। जितु सेविऐ = जिसका स्मरण करने से। वीचारी = विचारवान, अच्छे बुरे की परख करने वाले।8।

अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा कायम रहने वाले परमातमा की ही महिमा करता हूँ। मुझे कहीं उस जैसा कोई और नहीं दिखता। उस सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करने से सदैव आत्मिक आनंद बना रहता है।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे जाते हैं, वे अच्छी-बुरी करतूत को परखने के लायक हो जाते हैं, और वे सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम जपने की कमाई करते हैं।8।18।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh