श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 123 हउ वारी जीउ वारी नामु सुणि मंनि वसावणिआ ॥ हरि जीउ सचा ऊचो ऊचा हउमै मारि मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। मंनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। मारि = मार के।1। रहाउ। अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा का नाम सुन के उसे अपने मन में बसाए रखते हैं। वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। (वह जीवों वाली ‘मैं मेरी’ से) बहुत ऊँचा है। भाग्यशाली जीव अहंकार को मार के (ही) उसमें लीन होते हैं।1। रहाउ। हरि जीउ साचा साची नाई ॥ गुर परसादी किसै मिलाई ॥ गुर सबदि मिलहि से विछुड़हि नाही सहजे सचि समावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना = अरबी शब्द) बड़प्पन, बड़ाई। किसै = किसी विरले को। सबदि = शब्द से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। उसका बड़प्पन सदा कायम रहने वाला है। गुरु की कृपा से किसी (विरले भाग्यशाली) को (प्रभु अपने चरणों में) मिलाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा में) मिलते हैं, वह (उससे) बिछुड़ते नहीं। वे आत्मिक अडोलता में व सदा स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।2। तुझ ते बाहरि कछू न होइ ॥ तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: ते = से। वेखहि = देखता है, संभाल करता है।3। अर्थ: (हे भाई!) तुझसे (अर्थात, तेरे हुक्म से) बाहर कुछ नहीं हो सकता। तू (जगत) पैदा करके (उसकी) संभाल (भी) करता है। तू (हरेक के दिल की) जानता भी है। (हे भाई!) कर्तार स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) करता है (और जीवों से) करवाता है। गुरु की मति के द्वारा स्वयं ही जीवों को अपने में मिलाता है।3। कामणि गुणवंती हरि पाए ॥ भै भाइ सीगारु बणाए ॥ सतिगुरु सेवि सदा सोहागणि सच उपदेसि समावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: कामणि = कामिनी, स्त्री। भै = डर अदब में। भाइ = प्रेम में। सेवि = सेव के, आसरा बन के। सचु उपदेसु = सदा स्थिर प्रभु के साथ मिलाने वाले उपदेश में।4। अर्थ: जो जीव-स्त्री परमात्मा के गुण अपने अंदर बसाती है वह परमात्मा को मिल पड़ती है। परमात्मा के डर अदब में रह के, परमात्मा के प्रेम में जुड़ के वह (परमात्मा के गुणों को अपने जीवन का) श्रृंगार बनाती है। वह गुरु का आसरा परना बन के सदा के लिए पति प्रभु वाली बन जाती है। वह प्रभु मिलाप वाले गुर-उपदेश में लीन रहती है।4। सबदु विसारनि तिना ठउरु न ठाउ ॥ भ्रमि भूले जिउ सुंञै घरि काउ ॥ हलतु पलतु तिनी दोवै गवाए दुखे दुखि विहावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूले = कुमार्ग पर पड़ के। घरि = घर में। काउ = कौआ। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। दुखे = दुखि ही, दुख में ही।5। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शबदको भुला देते हैं उन्हें (परमात्मा की हजूरी में) कोई जगह ठिकाना नहीं मिलता। वह (माया मोह की) भटकन में पड़ कर कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। जैसे कोई कौए को किसी उजड़े घर में (खाने के लिए कुछ भी नहीं मिल सकता, वैसे ही गुरु शब्द को भुलाने वाले लोग आत्मिक जीवन के पक्ष से खाली हाथ ही रहते हैं)। ऐसे मनुष्य इस लोक व परलोक दोनों को बर्बाद कर लेते हैं, उनकी उम्र सदा दुख में ही व्यतीत होती है।5। लिखदिआ लिखदिआ कागद मसु खोई ॥ दूजै भाइ सुखु पाए न कोई ॥ कूड़ु लिखहि तै कूड़ु कमावहि जलि जावहि कूड़ि चितु लावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: म्सु = स्याही। खोई = खत्म कर ली। दूजै भाइ = माया के प्यार में। तै = और। जलि जावहि = जल जाते हैं, खिझते हैं। कूड़ि = झूठ में, नाशवान के मोह में।6। अर्थ: (माया के आँगन में माया के लेखे) लिखते लिखते (अनेक) कागज व (बेअंत) स्याही खत्म कर लेते हैं। पर माया के मोह में फंसे रह के किसी को कभी आत्मिक आनंद नहीं मिला। वे माया का ही लेखा लिखते रहते हैं, और माया ही एकत्र करते रहते हैं। वे सदा खिझते ही रहते हैं क्योंकि वे नाशवान माया में ही अपना मन जोड़े रखते हैं।6। गुरमुखि सचो सचु लिखहि वीचारु ॥ से जन सचे पावहि मोख दुआरु ॥ सचु कागदु कलम मसवाणी सचु लिखि सचि समावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर प्रभु के रूप। मोख दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा। सचु = सफल। मसवाणी = दवात। लिखि = लिख के।7। अर्थ: गुरु की शरण में रहने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का नाम लिखते है। परमात्मा के गुणों के विचार लिखते हैं। वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं, वे माया के मोह से विरक्त रहने का राह ढूँढ लेते हैं। उन मनुष्यों के कागज सफल हैं, उनकी कलम सफल हैं, दवात भी सफल है, जो सदा स्थिर प्रभु का नाम लिख लिख के सदा स्थिर प्रभु में ही लीन रहते हैं।7। मेरा प्रभु अंतरि बैठा वेखै ॥ गुर परसादी मिलै सोई जनु लेखै ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२२॥२३॥ पद्अर्थ: अंतरि = (जीवों के) अंदर। लेखै = लेखे में, स्वीकार। ते = सै।8। अर्थ: (हे भाई!) मेरा परमात्मा (सब जीवों के) अंदर बैठा (हरेक की) संभाल करता है। जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस परमात्मा के चरणों में जुड़ता है, वही मनुष्य परमात्मा की नजरों में स्वीकार होता है। हे नानक! परमात्मा का नाम पूरे गुरु के पास से ही मिलता है। जिसे ये नाम मिल जाता है, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर प्राप्त करता है।8।22।23। माझ महला ३ ॥ आतम राम परगासु गुर ते होवै ॥ हउमै मैलु लागी गुर सबदी खोवै ॥ मनु निरमलु अनदिनु भगती राता भगति करे हरि पावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: आतम राम = सभी आतमाओं में व्यापक प्रभु। परगासु = प्रकाश, आत्मिक रोशनी। आतम राम परगासु = इस सच्चाई की समझ कि परमात्मा सब जीवों में व्यापक है। ते = से। खोवै = दूर करता है। करे = कर के।1। अर्थ: गुरु से ही मनुष्य को ये प्रकाश हो सकता है कि परमात्मा की ज्योति सब में व्यापक है। गुरु के शब्द द्वारा ही मनुष्य (मन को) लगी हुई मैल धो सकता है। जिस मनुष्य का मन मल-रहित हो जाता है वह प्रभु की भक्ति में रंगा जाता है। भक्ति कर करके वह परमात्मा (का मिलाप) प्राप्त कर लेता है।1। हउ वारी जीउ वारी आपि भगति करनि अवरा भगति करावणिआ ॥ तिना भगत जना कउ सद नमसकारु कीजै जो अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करनि = करते हैं। कउ = को। सद = सदा। कीजै = करनी चाहिए। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ। अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदके कुर्बान जाता हूँ, जों स्वयं परमात्मा की भक्ति करते हैं तथा औरों से भी भक्ति करवाते हैं। ऐसे भगतो के आगे सदा सिर झुकाना चाहिए जो हर रोज परमात्मा के गुण गाते हैं।1। रहाउ। आपे करता कारणु कराए ॥ जितु भावै तितु कारै लाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा होवै गुर सेवा ते सुखु पावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: कारणु = (भक्ति करने का) सबब। जितु कारै = जिस काम में। तितु = उस में।2। अर्थ: कर्तार स्वयं ही (जीवों से भक्ति करवाने का) सबब पैदा करता है (क्योंकि) वह जीवों को उस काम में लगाता है जिस में लगाना उसे अच्छा लगता है। खुश किस्मती से ही जीव से गुरु का आसरा लिया जा सकता है। गुरु का आसरा ले कर (भाग्यशाली) मनुष्य आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।2। मरि मरि जीवै ता किछु पाए ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसाए ॥ सदा मुकतु हरि मंनि वसाए सहजे सहजि समावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: मरि = (अहम्) मार के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। किछु = (भक्ति का) कुछ (आनंद)। मंनि = मनि, मन में। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही।3। अर्थ: जब मनुष्य बारंबार प्रयत्न करके अहंकार को मारता है, तो आत्मिक जीवन हासिल करता है। तबवह परमात्मा की भक्ति का कुछ आनंद लेता है। (तब) गुरु की कृपा से वह परमात्मा को अपने मन में बसाता है। जो मनुष्य परमात्मा को अपने मन में बसाए रखता है, वह सदैव (अहम् आदि विकारों से) आजाद रहता है। वह सदा आत्किम अडोलता में लीन रहता है।3। बहु करम कमावै मुकति न पाए ॥ देसंतरु भवै दूजै भाइ खुआए ॥ बिरथा जनमु गवाइआ कपटी बिनु सबदै दुखु पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: मुकति = (अहम् से) खलासी। देसंतरु = देशांतर, और-और देश। खुआए = गुमराह में हुआ रहता है। कपटी = छल करने वाले ने।4। अर्थ: (भक्ति के बिना) अगर मनुष्य अनेक और (निहित धार्मिक) कर्म करता है (तो भी विकारों से) मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अगर देश-देशांतरों का रटन करता फिरे तो भी माया के मोह में रह के कुमार्ग पर पड़ा रहता है। (असल में वह मनुष्य छल ही करता है और) छली मनुष्य अपना मानव जीवन व्यर्थ गवाता है। गुरु के शब्द (का आसरा लिए) बिना वह दुख ही पाता रहता है।4। धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर परसादी परम पदु पाए ॥ सतिगुरु आपे मेलि मिलाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता मन। ठाकि = (विकारों की ओर से) रोक के। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मेलि = प्रभु मिलाप में, प्रभु के चरणों में। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।5। अर्थ: जो मनुष्य (विकारों की तरफ) दौड़ते मन की रक्षा करता है (इसे विकारों से) रोक के रखता है। वह गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है। गुरु स्वयं ही उसे परमात्मा के चरणों में मिला देता है। प्रीतम प्रभु को मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |