श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 124 इकि कूड़ि लागे कूड़े फल पाए ॥ दूजै भाइ बिरथा जनमु गवाए ॥ आपि डुबे सगले कुल डोबे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, नाशवान मोह में। बोलि = बोल के। बिखु = जहर।6। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: कई जीव ऐसे हैं जो नाशवान जगत के मोह में ही फंसे रहते हैं। वे फल भी वही प्राप्त करते हैं जिनसे साथ टूट जाता है (और इस तरह सदा) माया के मोह में ही रह के वे अपना मानव जनम व्यर्थ गवा लेते हैं। वे स्वयं माया के मोह में गलतान रहते हैं, अपनी सारी कुलों को उस मोह में ही डुबोए रखते हैं, वह सदा माया के मोह की ही बातें करके उस जहर को अपनी आत्मिक खुराक बनाए रखते हैं (जो उनकी आत्मिक मौत का कारण बनता है)।6। इसु तन महि मनु को गुरमुखि देखै ॥ भाइ भगति जा हउमै सोखै ॥ सिध साधिक मोनिधारी रहे लिव लाइ तिन भी तन महि मनु न दिखावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: को = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला। भाइ = प्रेम से। जा = जब। सोखै = सुखाता है। सिध = योग साधना में मगन योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। मोनिधारी = सदा चुप रहने वाले साधु।7। अर्थ: (आम तौर पे हरेक मनुष्य माया के पदार्थों के पीछे ही भटकता फिरता है) गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य अपने मन को अपने इस शरीर के अंदर ही टिका हुआ देखता है। (पर ये तब ही होता है) जब वह प्रभु के प्रेम में प्रभु की भक्ति में टिक के (अपने अंदर से) अहंकार को खत्म कर देता है। पहुँचे हुए योगी, योग साधना करने वाले योगी, मौनधारी साधु तवज्जो जोड़ने का यत्न करते हैं, पर वे भी अपने मन को शरीर के अंदर टिका हुआ नहीं देख सकते।7। आपि कराए करता सोई ॥ होरु कि करे कीतै किआ होई ॥ नानक जिसु नामु देवै सो लेवै नामो मंनि वसावणिआ ॥८॥२३॥२४॥ पद्अर्थ: कीते = पैदा किए हुए जीव से। किआ = क्या? नामो = नाम ही।8। अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश? मन को काबू करने का और भक्ति में जुड़ने का उद्यम) वह कर्तार स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। (अपने आप) कोई जीव क्या कर सकता है? कर्तार के पैदा किए हुए इस जीव द्वारा किए गए अपने उद्यम से कुछ नहीं हो सकता। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम की दात देता है, वही नाम स्मरण कर सकता है। उस सदा प्रभु के नाम को ही अपने मन में बसाए रखता है।8।23।24। माझ महला ३ ॥ इसु गुफा महि अखुट भंडारा ॥ तिसु विचि वसै हरि अलख अपारा ॥ आपे गुपतु परगटु है आपे गुर सबदी आपु वंञावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: अखुट = नाखत्म होने वाला। भण्डार = खजाने। तिसु विचि = इस शरीर गुफा में। अलख = अदृष्ट। आपु = स्वै भाव।1। अर्थ: (योगी पहाड़ों की गुफाओं में बैठ के आत्मिक शक्तियां प्राप्त करने के यत्न करते हैं, पर) इस शरीर गुफा में (आत्मिक गुणों के इतने) खजाने (भरे हुए हैं जो) खत्म होने वाले नहीं। (क्योंकि सारे गुणों का मालिक) अदृष्ट व बेअंत हरि इस शरीर में ही बसता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के शब्द में लीन हो के (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया उन्हें दिखाई देने लग पड़ता है कि परमात्मा स्वयं ही हर जगह मौजूद है। किसी को प्रत्यक्ष नजर आ जाता है और किसी को छुपा हुआ ही प्रतीत होता है।1। हउ वारी जीउ वारी अम्रित नामु मंनि वसावणिआ ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुरमती अम्रितु पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मंनि = मनि, मन में। महा रसु = बड़े रस वाला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं उनसे सदके जाता हूँ जो आत्मिक जीवन देने वालेहरी के नाम को अपने मन में बसाते हैं। आत्मिक जीवन दाता हरि नाम अत्यंत रसीला व मधुर है, मीठा है। गुरु की मति पर चल कर ही ये नाम अंमृत पिया जा सकता है।1। रहाउ। हउमै मारि बजर कपाट खुलाइआ ॥ नामु अमोलकु गुर परसादी पाइआ ॥ बिनु सबदै नामु न पाए कोई गुर किरपा मंनि वसावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: बजर कपाट = कड़े मजबूत भिक्ति पर्दे।2। अर्थ: जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से) अहंकार को मार के (अहम् के) कठोर कपाट खोल लिए हैं, उसने गुरु की कृपा से वह नाम अंमृत (अंदर ही) ढूँढ लिया है जो किसी (दुनियावी पदार्थ के बदले) मोल में नहीं मिलता। गुरु के शब्द (में जुड़े) बगैर कोई मनुष्य नाम अंमृत प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु की कृपा से ही (हरि नाम) मन में बसाया जा सकता है।2। गुर गिआन अंजनु सचु नेत्री पाइआ ॥ अंतरि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ जोती जोति मिली मनु मानिआ हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: अंजनु = सुर्मा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। मानिआ = पतीज गया।3। अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु से ज्ञान का अंजन (सुर्मा) (अपनी आत्मिक) आँखों में डाला है, उस के अंदर (आत्मिक) प्रकाश हो गया है। उसने (अपने अंदर से) अज्ञान अंधेरा दूर कर लिया है। उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में लीन रहती है। उसका मन (प्रभु की याद में) मगन हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के दर पे शोभा हासिल करता है।3। सरीरहु भालणि को बाहरि जाए ॥ नामु न लहै बहुतु वेगारि दुखु पाए ॥ मनमुख अंधे सूझै नाही फिरि घिरि आइ गुरमुखि वथु पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: सरीरहु बाहरि = शरीर से बाहर (जंगलों, पहाड़ों की गुफाओं में)। फिरि घिरि = आखिर थक के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। वथु = नाम वस्तु।4। अर्थ: (पर यदि कोई मनुष्य अपने) शरीर के बाहर (अर्थात जंगलों में, पहाड़ों की गुफाओं में इस आत्मिक रोशनी को) तलाशने जाता है, उसे (ये आत्मिक प्रकाश देने वाला) हरि नाम तो नहीं मिलता, (उल्टा) वह (बेगार में फंसे किसी) बेगारी की तरह दुख ही पाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को समझ नहीं पड़ती। (जंगलों पहाड़ों में खुआर हो हो के, भटक के) आखिर वह आ के गुरु की शरण पड़ के ही नाम अंमृत प्राप्त करता है।4। गुर परसादी सचा हरि पाए ॥ मनि तनि वेखै हउमै मैलु जाए ॥ बैसि सुथानि सद हरि गुण गावै सचै सबदि समावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। तनि = तन में। बैसि = बैठ के। सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। सचै = सदा स्थिर प्रभु में। सबदि = शब्द द्वारा।5। अर्थ: जब मनुष्य गुरु की कृपा से सदा स्थिर हरि का मिलाप प्राप्त करता है, तो वह अपने मन में (ही) अपने तन में (ही) उसका दर्शन कर लेता है, और उसके अंदर से अहंकार की मैल दूर हो जाती है। अपने शुद्ध हुए हृदय में ही बैठ के (भटकना रहित हो के) वह सदा परमात्मा के गुण गाता है, गुरु के शब्द द्वारा सदा स्थिर प्रभु में समाया रहता है।5। नउ दर ठाके धावतु रहाए ॥ दसवै निज घरि वासा पाए ॥ ओथै अनहद सबद वजहि दिनु राती गुरमती सबदु सुणावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: नउ दर = नौ गोलकें। धावत = दौड़ता, भटकता मन। ठाके = रोकता, वरजे। दसवै = दसवें दर में, चिदाकाश में, दिमाग में। निज घरि = अपने घर में। अनहद = अनाहत, बिना बजाए बजने वाले, एक रस।6। अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने नौ दरवाजे (नौ गोलकें) (विकारों के प्रभाव की ओर से) बंद कर लिए हैं, जिस ने (विकारों की ओर) दौड़ता अपना मन काबू कर लिया है। उसने अपने चिक्त आकाश के द्वारा (अपनी ऊँची हुई अक़्ल के द्वारा) अपने असल घर में (प्रभु चरणों में) निवास प्राप्त कर लिया है। उस अवस्था में पहुँचे मनुष्य के अंदर (हृदय में) सदा एक रस परमात्माकी महिमा के बोल अपना प्रभाव डाले रखते हैं। वह दिन रात अपने गुरु की मति पर चल के महिमा की वाणी को ही अपनी तवज्जो में टिकाए रखता है।6। बिनु सबदै अंतरि आनेरा ॥ न वसतु लहै न चूकै फेरा ॥ सतिगुर हथि कुंजी होरतु दरु खुलै नाही गुरु पूरै भागि मिलावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: हथि = हाथ में। होरतु = किसी और तरीके से। दरु = दरवाजा।7। नोट: शब्द ‘दर’, ‘दरु’, तथा ‘दरि’ में अंतर स्मरणीय है। अर्थ: गुरु के शब्द के बिना मनुष्य के हृदय में माया के मोह का अंधकार बना रहता है। जिसके कारण उसे अपने अंदरनाम पदार्थ नहीं मिलता और उसके जनम मरन का चक्कर बना रहता है। (मोह के बज्र किवाड़ खोलने की) कुँजी गुरु के हाथ में ही है। किसी और तरीके से वह दरवाजा नहीं खुलता। और, गुरु भी बहुत किस्मत से ही मिलता है।7। गुपतु परगटु तूं सभनी थाई ॥ गुर परसादी मिलि सोझी पाई ॥ नानक नामु सलाहि सदा तूं गुरमुखि मंनि वसावणिआ ॥८॥२४॥२५॥ पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से।8। अर्थ: हे प्रभु! तू सब जगह मौजूद है। (किसी को) प्रत्यक्ष (दिखाई देता है और किसी के लिए) छुपा हुआ है। (तेरे सर्व-व्यापक होने की) समझ गुरु की कृपा से (तुझे) मिल के होती है। हे नानक! तू (गुरु की शरण पड़ कर) सदा परमात्मा के नाम की महिमा करता रह। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु के नाम को अपने मन में बसा लेता है।8।24।25। माझ महला ३ ॥ गुरमुखि मिलै मिलाए आपे ॥ कालु न जोहै दुखु न संतापे ॥ हउमै मारि बंधन सभ तोड़ै गुरमुखि सबदि सुहावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की ओर मुंह करने से, गुरु की शरण पड़ने से। कालु = आत्मिक मौत। जोहै = देखती। सबदि = शब्द में जुड़ के। सुहावणिआ = सुहाने जीवन वाला बन जाता है।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा परना लेता है, उसे परमात्मा मिल जाता है। परमात्मा स्वयं ही उसे गुरु मिलाता है। (ऐसे मनुष्य को) आत्मिक मौत अपनी नजर में नहीं रखती, उसे कोई दुख-कष्ट सता नहीं सकता। गुरु के आसरे रहने वाला मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके (माया के मोह के) सारे बंधन तोड़ लेता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका जीवन खूबसूरत बन जाता है।1। हउ वारी जीउ वारी हरि हरि नामि सुहावणिआ ॥ गुरमुखि गावै गुरमुखि नाचै हरि सेती चितु लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नामि = नाम से। नाचै = हुलारे में आता है।1। रहाउ। अर्थ: मैं उस मनुष्य से सदा सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के अपना जीवन सुंदर बना लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु के गुण गाता रहता है। उसका मन (नाम स्मरण के) हिलोरों में आया रहता है। गुरु का आसरा रखने वाला मनुष्य परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना मन जोड़े रखता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |