श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरमुखि जीवै मरै परवाणु ॥ आरजा न छीजै सबदु पछाणु ॥ गुरमुखि मरै न कालु न खाए गुरमुखि सचि समावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। मरै = (अहंकार की ओर से) मर जाता है, अहम् मार लेता है। आरजा = उम्र। न छीजै = व्यर्थ नहीं जाती। पछाणु = पहचान, साथी। मरै न = आत्मिक मौत नहीं होती। कालु = आत्मिक मौत।2।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है और अहंकार की तरफ से मरा रहता है (इस तरह वह प्रभु की नजरों में) स्वीकार हो जाता है। उसकी उम्र व्यर्थ नहीं जाती। गुरु का शब्द उसका जीवन साथी बना रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक मौत से बचा रहता है। आत्मिक मौत उस पर कोई जोर नहीं डाल सकती। वह सदा स्थिर प्रभु की याद में लीन रहता है।2।

गुरमुखि हरि दरि सोभा पाए ॥ गुरमुखि विचहु आपु गवाए ॥ आपि तरै कुल सगले तारे गुरमुखि जनमु सवारणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: दरि = दर पे। आपु = स्वै भाव।3।

अर्थ: गुरु के आसरे परने रहने वाला मनुष्य परमात्मा के दर पर शोभा प्राप्त करता है। वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर किए रखता है। वह स्वयं संसार समुंदर (के विकारों से) पार लांघ जाता है। अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपना जीवन सवार लेता है।3।

गुरमुखि दुखु कदे न लगै सरीरि ॥ गुरमुखि हउमै चूकै पीर ॥ गुरमुखि मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में। पीर = पीड़। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण लेता है, उसके शरीर में कभी हउमै का रोग नहीं लगता। उसके अंदर से अहंकार की पीड़ा समाप्त हो जाती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन अहम् की मैल से साफ रहता है, (गुरु का आसरा लेने के कारण उसको) फिर (अहंकार की मैल) नही चिपकती, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।

गुरमुखि नामु मिलै वडिआई ॥ गुरमुखि गुण गावै सोभा पाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती गुरमुखि सबदु करावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: अनंदि = आनंद में। सबदु = महिमा की कार।5।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है। (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह परमात्मा के गुण गाता है और (हर जगह) शोभा कमाता है। गुरु के दर पे टिके रहने के कारण मनुष्य सदा दिन रात आत्मिक आनंद में मगन रहता है। वह सदा परमात्मा की महिमा ही करता रहता है।5।

गुरमुखि अनदिनु सबदे राता ॥ गुरमुखि जुग चारे है जाता ॥ गुरमुखि गुण गावै सदा निरमलु सबदे भगति करावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही।6।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त गुरु के शब्द में रंगा रहता है। सदा से ही ये नियम है कि गुरु के दर पर रहने वाला मनुष्य प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है। वह सदा परमात्मा के गुण गाता है और पवित्र जीवन वाला बना रहता है। गुरु के शब्द द्वारा वह परमात्मा की भक्ति करता है।6।

बाझु गुरू है अंध अंधारा ॥ जमकालि गरठे करहि पुकारा ॥ अनदिनु रोगी बिसटा के कीड़े बिसटा महि दुखु पावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: अंध अंधारा = माया के मोह का घोर अंधकार। जमकालि = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। गरठे = ग्रसे हुए, जकड़े हुए।7।

अर्थ: गुरु की शरण पड़े बिना (माया के मोह का) घोर अंधेरा छाया रहता है। (इस अंधकार के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत ने ग्रस लिया होता है वे (दुखी हो हो के) पुकारें करते रहते हैं (दुखों के गिले करते हैं)। वे हर वक्त विकारों के रोग में फंसे रहते हैं और दुख सहते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही कुरबल कुरबल करते रहते हैं।7।

गुरमुखि आपे करे कराए ॥ गुरमुखि हिरदै वुठा आपि आए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२५॥२६॥

पद्अर्थ: वुठा = आ बसा। नामि = नाम में।8।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण में रहता है, उसके हृदय में परमात्मा स्वयं आ बसता है। उसे फिर ये निश्चय हो जाता है कि (प्रभु सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सब कुछ करता है ओर (जीवों से) करवाता है।

हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) आदर मिलता है, और (प्रभु का नाम) पूरे गुरु से (ही) मिलता है।8।25।26।

माझ महला ३ ॥ एका जोति जोति है सरीरा ॥ सबदि दिखाए सतिगुरु पूरा ॥ आपे फरकु कीतोनु घट अंतरि आपे बणत बणावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द द्वारा। कीतोनु = किया उन, उस प्रभु ने किया।1।

अर्थ: पूरा गुरु अपने शब्द में जोड़ के (शरण आए मनुष्य को) दिखा देता है (निष्चय करा देता है) कि सब शरीरों में परमात्मा की ही ज्योति व्यापक है। परमात्मा ने स्वयं ही सब जीवों की बनावट बनायी है (पैदा किए हैं) और खुद ही उसने सारे शरीरों में (आत्मिक जीवन का) फर्क बनाया हुआ है।1।

हउ वारी जीउ वारी हरि सचे के गुण गावणिआ ॥ बाझु गुरू को सहजु न पाए गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = कोई भी मनुष्य। सहजु = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ।

अर्थ: मैं सदा उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं (आत्मिक अडोलता में रह के ही महिमा की जा सकती है, तथा) गुरु की शरण के बिना कोई मनुष्य आत्मिक अडोलता हासिल नहीं कर सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ही आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।1। रहाउ।

तूं आपे सोहहि आपे जगु मोहहि ॥ तूं आपे नदरी जगतु परोवहि ॥ तूं आपे दुखु सुखु देवहि करते गुरमुखि हरि देखावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: सोहहि = शोभा देता है। मोहहि = मोह रहा है। करते = हे कर्तार!।2।

अर्थ: हे कर्तार! तू स्वयं ही (जगत रच के जगत रचना से अपनी) सुंदरता दिखा रहा है, और (उस सुंदरता से) तू खुद ही जगत को मोहित करता है। तू खुद ही अपनी मेहर की निगाह से जगत को (अपनी कायम की मर्यादा के धागे में) परोए रखता है। हे कर्तार! तू खुद ही जीवों को दुख देता है, खुद ही जीवों को सुख देता है। हे हरि! गुरु की शरण पड़ने वाले बंदे (हर जगह) तेरा ही दर्शन करते हैं।2।

आपे करता करे कराए ॥ आपे सबदु गुर मंनि वसाए ॥ सबदे उपजै अम्रित बाणी गुरमुखि आखि सुणावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। सबदे = शब्द के द्वारा ही। आखि = कह के, उचार के।3।

अर्थ: (हे भाई! सारे जीवों में व्यापक हो के) कर्तार खुद ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करा रहा है। कर्तार खुद ही गुरु का शब्द (जीवों के) मन में बसाता है। गुरु के शब्द के द्वारा ही आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी (की लगन जीवों के हृदय में) पैदा होती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (महिमा की वाणी) उचार के (और लोगों को भी) सुनाता है।3।

आपे करता आपे भुगता ॥ बंधन तोड़े सदा है मुकता ॥ सदा मुकतु आपे है सचा आपे अलखु लखावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: भुगता = भोगने वाला। मुकता = आजाद। अलखु = अदृष्ट।4।

अर्थ: कर्तार स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद ही दुनिया के पदार्थ भोगने वाला है। कर्तार खुद ही (सारे जीवों के माया के) बंधन तोड़ता है। वह खुद सदा ही बंधनों से मुक्त है। सदा स्थिर रहने वाला कर्तार खुद ही सदा निर्लिप है, खुद ही अदृश्य (भी) है, और खुद ही अपना स्वरूप (जीवों को) दिखलाने वाला है।4।

आपे माइआ आपे छाइआ ॥ आपे मोहु सभु जगतु उपाइआ ॥ आपे गुणदाता गुण गावै आपे आखि सुणावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: छाइया = छाया, प्रभाव।5।

अर्थ: (हे भाई!) कर्तार ने खुद ही माया पैदा की है, उसने खुद ही माया का प्रभाव पैदा किया है। कर्तार ने खुद ही माया का मोह पैदा किया है और खुद ही सारा जगत पैदा किया है। कर्तार स्वयं ही अपने गुणों की दाति (जीवों को) देने वाला है, स्वयं ही (अपने) गुण (जीवों में व्यापक हो के) गाता है। स्वयं ही (अपने गुण) उचार के (और लोगों को) सुनाता है।5।

आपे करे कराए आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ तुझ ते बाहरि कछू न होवै तूं आपे कारै लावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: थापि = पैदा करें। उथापे = नाश करता है। कारै = कार्य में।6।

अर्थ: (हे भाई! सब जीवों में व्यापक हो के) कर्तार स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और स्वयं ही (जीवों से) करा रहा है। कर्तार स्वयं ही जगत की रचना करके स्वयं ही (जगत का) नाश करता है।

(हे प्रभु! जो कुछ जगत में हो रहा है) तेरे हुक्म से बाहर कुछ नहीं होता, तू खुद ही (सब जीवों को) काम में लगा रहा है।6।

आपे मारे आपि जीवाए ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ सेवा ते सदा सुखु पाइआ गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: मरे = आत्मिक मौत देता है। जीवाए = आत्मिक जीवन देता है।7।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (किसी जीव को) आत्मिक मौत दे रहा है (किसी को) आत्मिक जीवन बख्श रहा है। प्रभु स्वयं ही (जीवों को गुरु) मिलाता है और (गुरु) मिला के अपने चरणों में जोड़ता है। (गुरु की बताई) सेवा करने वाले ने सदा आत्मिक आनंद पाया है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh