श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपे ऊचा ऊचो होई ॥ जिसु आपि विखाले सु वेखै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि आपे वेखि विखालणिआ ॥८॥२६॥२७॥

पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। वेखि = देख के।8।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा अपनी स्मर्था से) स्वयं ही माया के प्रभाव से बहुत ऊँचा है। जिस किसी (भाग्यशाली मनुष्य) को (अपनी ये स्मर्था) परमात्मा स्वयं दिखाता है वह खुद देख लेता है (कि प्रभु बहुत शक्तिशाली है)।

हे नानक! (परमात्मा की अपनी ही मेहर से किसी भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में उसका नाम बसता है (उस मनुष्य में प्रगट हो के प्रभु खुद ही अपने स्वरूप का) दर्शन करके (और लोगों को) दर्शन कराता है।8।26।27।

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु भरपूरि रहिआ सभ थाई ॥ गुर परसादी घर ही महि पाई ॥ सदा सरेवी इक मनि धिआई गुरमुखि सचि समावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सरेवी = मैं सेवा करता हूँ। इक मनि = एकाग्र हो के।1।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्रभु सब जगहों पर पूर्ण तौर पे मौजूद है। गुरु की कृपा से मैंने उसे अपने हृदय घर में ही ढूँढ लिया है। मैं अब सदा उसे स्मरण करता हूँ। सदा एकाग्रचिक्त हो के उसका ध्यान धरता हूँ। जो भी मनुष्य गुरु का आसरा परना लेता है, वह सदा स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।1।

हउ वारी जीउ वारी जगजीवनु मंनि वसावणिआ ॥ हरि जगजीवनु निरभउ दाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। मंनि = मनि, मन में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं। परमात्मा जगत को जिंदगी देने वाला है। जो मनुष्य गुरु की मति ले कर उसे अपने मन में बसाता है वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1। रहाउ।

घर महि धरती धउलु पाताला ॥ घर ही महि प्रीतमु सदा है बाला ॥ सदा अनंदि रहै सुखदाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: धउलु = बैल, आसरा। बाला = जवान। अनंदि = आनंद में।2।

अर्थ: जो परमात्मा धरती व पाताल का आसरा है, वह मनुष्य के हृदय में (भी) बसता है। वह प्रीतम प्रभु सदा जवान रहने वाला है वह हरेक हृदय में ही बसता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के उस सुखदाते प्रभु को स्मरण करता है, वह सदा आत्मिक आनंद में रहता है। वह आत्मिक अडोलता में समाया रहता है।2।

काइआ अंदरि हउमै मेरा ॥ जमण मरणु न चूकै फेरा ॥ गुरमुखि होवै सु हउमै मारे सचो सचु धिआवणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। सचो सचु = स्थिर प्रभु को ही।3।

अर्थ: पर, जिस मनुष्य के शरीर में अहम् प्रबल है, ममता प्रबल है, उस मनुष्य का जनम मरण रूपी चक्र खत्म नहीं होता। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार लेता है, और वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही स्मरण करता है।3।

काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई ॥ दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई ॥ दोवै मारि जाइ इकतु घरि आवै गुरमति सहजि समावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: देइ = दे। दुही = दोनों ने ही। इकतु = एक में। इकतु घरि = एक घर में।4।

अर्थ: (अहंकार के प्रभाव तहत रहने वाले मनुष्य के) शरीर में (अहंम् से उत्पन्न हुए हुए) दोनों भ्राता पाप और पुण्य बसते हैं। इन दोनों ने ही जगत रचना की है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के इन दोनों (के प्रभाव) को मारता है, वह एक ही घर में (प्रभु चरणों में ही) टिक जाता है। वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।

घर ही माहि दूजै भाइ अनेरा ॥ चानणु होवै छोडै हउमै मेरा ॥ परगटु सबदु है सुखदाता अनदिनु नामु धिआवणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: दूजै भाइ = माया के मोह के कारण। अनेरा = अंधकार।5।

अर्थ: परमात्मा मनुष्य के हृदय-घर में ही बसता है। पर, माया के प्यार के कारण मनुष्य के अंदर माया का अंधकार बना रहता है। जब मनुष्य गुरु की शरण ले के (अपने अंदर से) अहम् और ममता को दूर करता है, तब (इसके अंदर परमात्मा की ज्योति का आत्मिक) प्रकाश हो जाता है। आत्मिक आनंद देने वाली परमात्मा की महिमा (इसके अंदर) उघड़ पड़ती है, और ये हर वक्त प्रभु का नाम स्मरण करता है।5।

अंतरि जोति परगटु पासारा ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा ॥ कमलु बिगासि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा से। बिगासि = खिल के।6।

अर्थ: जिस प्रभु ज्योति ने सारा जगत पसारा पसारा है, गुरु की शिक्षा से वह जिस मनुष्य के अंदर प्रगट हो जाती है, उसके अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है। उसका हृदय कमल पुष्प की तरह खिल जाता है। वह सदा आत्मिक आनंद पाता है। उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।6।

अंदरि महल रतनी भरे भंडारा ॥ गुरमुखि पाए नामु अपारा ॥ गुरमुखि वणजे सदा वापारी लाहा नामु सद पावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: रतनी = रतनों से।7।

अर्थ: मनुष्य के शरीर में (परमात्मा के गुण रूपी) रत्नों के खजाने भरे पड़े हैं (पर, ये उस मनुष्य को ही प्राप्त होते हैं) जो गुरु की शरण पड़ के बेअंत प्रभु का नाम प्राप्त करता है। गुरु के शरण पड़ने वाला मनुष्य (प्रभु नाम का) व्यापारी (बन के आत्मिक गुणों के रत्नों का) व्यापार करता है और सदा प्रभु नाम की कमाई करता है।7।

आपे वथु राखै आपे देइ ॥ गुरमुखि वणजहि केई केइ ॥ नानक जिसु नदरि करे सो पाए करि किरपा मंनि वसावणिआ ॥८॥२७॥२८॥

पद्अर्थ: वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है। केई केइ = कई अनेक।8।

अर्थ: (पर, जीवों के बस की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही जीवों के अंदर अपना नाम पदार्थ टिकाता है, परमात्मा स्वयं ही (ये दाति) जीवों को देता है। गुरु की शरण पड़ के अनेक (भाग्यशाली) मनुष्य नाम निधि का सौदा करते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, वह प्रभु का नाम प्राप्त करता है। प्रभु अपनी कृपा करके अपना नाम उसके मन में बसाता है।8।27।28।

माझ महला ३ ॥ हरि आपे मेले सेव कराए ॥ गुर कै सबदि भाउ दूजा जाए ॥ हरि निरमलु सदा गुणदाता हरि गुण महि आपि समावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सेव = सेवा भक्ति। सबदि = शब्द में जुड़ने से। दूजा भाउ = माया का प्यार।1।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में) जोड़ता है। (अपनी) सेवा भक्ति करवाता है। (जिस मनुष्य को प्रभु) गुरु के शब्द में (जोड़ता है, उसके अंदर से) माया का प्यार दूर हो जाता है। परमात्मा (स्वयं) सदा पवित्र स्वरूप है, (सब जीवों को अपने) गुण देने वाला है। परमात्मा स्वयं (अपने) गुणों में (जीव को) लीन करता है।1।

हउ वारी जीउ वारी सचु सचा हिरदै वसावणिआ ॥ सचा नामु सदा है निरमलु गुर सबदी मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सचु सचा = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1। रहाउ।

अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं। परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम सदा पवित्र है। (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु के शब्द द्वारा (इस नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ।

आपे गुरु दाता करमि बिधाता ॥ सेवक सेवहि गुरमुखि हरि जाता ॥ अम्रित नामि सदा जन सोहहि गुरमति हरि रसु पावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: करमि = हरेक जीव के किए कर्मों अनुसार। बिधाता = पैदा करने वाला।2।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही गुरु (रूप) है। स्वयंही दातें देने वाला है, स्वयं ही (जीव को उस के किए) कर्म अनुसार पैदा करने वाला है। प्रभु के सेवक गुरु की शरण पड़ के उसकी सेवा भक्ति करते हैं, और उससे गहरी सांझ डालते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम में जुड़ के सेवक जन अपना जीवन सुहाना बनाते हैं गुरु की मति पर चल के परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।2।

इसु गुफा महि इकु थानु सुहाइआ ॥ पूरै गुरि हउमै भरमु चुकाइआ ॥ अनदिनु नामु सलाहनि रंगि राते गुर किरपा ते पावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अनदिनु = हर रोज।3।

अर्थ: (जिस मनुष्य के हृदय में से) पूरे गुरु ने अहम् को दूर कर दिया, भटकना समाप्त कर दी। उसके इस शरीर-गुफा में परमात्मा प्रगट हो गया और उस का हृदय सुंदर बन गया।

(भाग्यशाली मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) हर वक्त परमात्मा का नाम सालाहते हैं, उसके प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, गुरु की कृपा से उसका मिलाप प्राप्त करते हैं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh