श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 127 गुर कै सबदि इहु गुफा वीचारे ॥ नामु निरंजनु अंतरि वसै मुरारे ॥ हरि गुण गावै सबदि सुहाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: इहु = ये जीव। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह रूपी कालख से रहित।4। अर्थ: यह जीव गुरु के शब्द द्वारा ही अपने शरीर रूपी गुफा में प्रभु के गुण विचारता है, और उसके हृदय में मुरारी प्रभु का माया के मोह की कालख से बचाने वाला नाम बस जाता है। उस गुरु के शब्द में (जुड़ के ज्यों ज्यों) परमात्मा के गुण गाता है। उसका जीवन सुंदर बन जाता है। प्रीतम को मिलके आत्मिक आनंद लेता है।4। जमु जागाती दूजै भाइ करु लाए ॥ नावहु भूले देइ सजाए ॥ घड़ी मुहत का लेखा लेवै रतीअहु मासा तोल कढावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: जागाती = मसूलिआ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। करु = मसूल। रतीअहु = एक रक्ती से।5। अर्थ: जो मनुष्य माया के प्यार में (फंसा रहता है, उससे) महसूलिया यमराज महसूल लेता है। परमात्मा के नाम से वंचित हुए मनुष्य को सजा देता है। यमराज महसूलिया उससे उसकी जिंदगी की एक-एक घड़ी का, आधी-आधी घड़ी का हिसाब लेता है। एक-एक रक्ती करके, एक-एक मासा करके यमराज उसके जीवन कर्मों का तौल करवाता है।5। पेईअड़ै पिरु चेते नाही ॥ दूजै मुठी रोवै धाही ॥ खरी कुआलिओ कुरूपि कुलखणी सुपनै पिरु नही पावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। दूजै = (प्रभु से बिना) और में। धाही = धाहें मार मार के (रोना)। खरी = बहुत। कुआलिओ = (कु+आलय) बुरे घर की।6। अर्थ: जो जीव-स्त्री पेके घर में (इस जीवन में) प्रभु पति को याद नहीं करती, और माया के मोह में पड़ के (आत्मिक गुणों की राशि पूंजी) लुटाती रहती है, वह (लेखा देने के समय) धाहें (चीखें) मार मार के रोती है। वह जीव-स्त्री बुरे घर की, बुंरे रूप वाली, बुरे लक्षणों वाली ही कही जाती है। (पेके घर रहते हुए) उसने कभी सुपने में भी प्रभु मिलाप नही किया।6। पेईअड़ै पिरु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गुरि हदूरि दिखाइआ ॥ कामणि पिरु राखिआ कंठि लाइ सबदे पिरु रावै सेज सुहावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। हदूरि = अंग संग। कामणि = (जीव-) स्त्री। कंठि = गले से।7। अर्थ: पेके घर में जिस जीव-स्त्री ने प्रभु पति को अपने मन में रखा, जिसे पूरे गुरु ने (प्रभु पति को उस के) अंग संग (बसता) दिखा दिया। जिस जीव-स्त्री ने प्रभु पति को सदा अपने गले से लगाए रखा, वह गुरु के शब्द द्वारा प्रभु पति के मिलाप का आनंद लेती रहती है, उसके हृदय की सेज सोहानी बनी रहती है।7। आपे देवै सदि बुलाए ॥ आपणा नाउ मंनि वसाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई अनदिनु सदा गुण गावणिआ ॥८॥२८॥२९॥ पद्अर्थ: सदि = बुला के। बुलाए = बुला के।8। अर्थ: (पर, जीवों के वश की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही (जीव को) बुला के (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही अपना नाम (जीव के) मन में बसाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिलता है, उसे (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह हर वक्त सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।8।28।29। माझ महला ३ ॥ ऊतम जनमु सुथानि है वासा ॥ सतिगुरु सेवहि घर माहि उदासा ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते हरि रसि मनु त्रिपतावणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। सेवहि = सेवा करते हैं, आसरा लेते हैं। घर माहि = गृहस्थ में रहते हुए ही। रसि = रस में।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा-परना लेते हैं, जो मनुष्य (साधु-संगत-) श्रेष्ठ स्थान में निवास रखते हैं, उनका मानव जनम श्रेष्ठ हो जाता है (सुधर जाता है)। वे गृहस्थ में रहते हुए ही (माया की ओर से) निर्लिप रहते हैं। वे परमात्मा के रंग में टिके रहते हैं, वे सदा प्रभु के नाम रंग में रंगे रहते हैं, प्रभु के नाम रस में उनका मन तृप्त रहता है।1। हउ वारी जीउ वारी पड़ि बुझि मंनि वसावणिआ ॥ गुरमुखि पड़हि हरि नामु सलाहहि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बुझि = समझ के। मंनि = मन में।1। रहाउ। अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके कुर्बान जाता हूँ, जो (धार्मिक पुस्तकें) पढ़ के समझ के (परमात्मा का नाम अपने) मन में बसाते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (गुरु की वाणी) पढ़ते हैं, परमात्मा का नाम सालाहते हैं, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पाते हैं।1। रहाउ। अलख अभेउ हरि रहिआ समाए ॥ उपाइ न किती पाइआ जाए ॥ किरपा करे ता सतिगुरु भेटै नदरी मेलि मिलावणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: अलख = अदृष्ट। उपाइ किती = (अन्य) किसी भी उपाय से। भेटै = मिलता है।2। अर्थ: परमात्मा अदृष्ट है, उसका भेद नही पाया जा सकता। वह (सब जीवों में हर जगह) व्यापक है। (गुरु का शरण पड़े बिना और) किसी भी तरीके से उसका मिलाप नहीं हो सकता। जब परमात्मा (किसी जीव पर) मेहर करता है, तो (उसे) गुरु मिलता है। (इस तरह परमात्मा अपनी) मेहर की नजर से उसे अपने चरणों में मिल जाता है।2। दूजै भाइ पड़ै नही बूझै ॥ त्रिबिधि माइआ कारणि लूझै ॥ त्रिबिधि बंधन तूटहि गुर सबदी गुर सबदी मुकति करावणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीन किस्मों वाली, तीन गुणों वाली। लूझै = खिझता है, जलता है।3। अर्थ: जो मनुष्य माया के प्यार में फंसा हुआ है, वह (अगर धार्मिक पुस्तकें) पढ़ता (भी) है तो भी उसे समझता नहीं है। वह (धार्मिक पुस्तकें पढ़ता हुआ भी) त्रिगुणी माया की खातिर (अंदर अंदर से) खिझता रहता है। त्रिगुणी माया (के मोह) बंधन गुरु के शब्द में जुड़ने से टूटते हैं। गुरु के शब्द में जोड़ के ही (परमात्मा जीव को) माया के बंधनों से खलासी दिलाता है।3। इहु मनु चंचलु वसि न आवै ॥ दुबिधा लागै दह दिसि धावै ॥ बिखु का कीड़ा बिखु महि राता बिखु ही माहि पचावणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। राता = मस्त। पचावणिआ = खुआर होता है।4। अर्थ: (माया के आँगन में मनुष्य का) ये मन चंचल (स्वभाव वाला रहता) है। (उसकी अपनी कोशिशों से) काबू में नहीं आता। (उसका मन माया के कारण) डाँवा डोल हालत में टिका रहता है। और (माया की खातिर) दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है। (आत्मिक मौत लाने वाली माया रूपी) जहर का ही वह कीड़ा (बना रहता) है। (जैसे विष्टा का कीड़ा विष्टा में प्रसन्न रहता है), वह इस जहर में ही खुश रहता है, और इस जहर में ही (उसका आत्मिक जीवन) खुआर होता रहता है।4। हउ हउ करे तै आपु जणाए ॥ बहु करम करै किछु थाइ न पाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होवै बखसे सबदि सुहावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: तै = तथा,और। आपु = स्वयं। थाइ न पाए = स्वीकार नही होता।5। अर्थ: (माया में लिपटा मनुष्य सदा) अहंकार के बोल बोलता है। अपने आप को बड़ा जाहिर करता है (अपनी और से निहित धार्मिक) कर्म (भी) खूब करता है, पर उसका कोई काम परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नही होता। (पर, हे प्रभु!) तेरी मेहर के बिनां (जीव से) कुछ नहीं हो सकता। (हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु दया करता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर जीवन वाला बन जाता है।5। उपजै पचै हरि बूझै नाही ॥ अनदिनु दूजै भाइ फिराही ॥ मनमुख जनमु गइआ है बिरथा अंति गइआ पछुतावणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: पचै = खुआर होता है। फिराही = फिरते हैं।6। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ नहीं पाता। वह कभी पैदा होता है कभी जलता है (भाव, वह कभी तो सुख का साँस लेता है कभी हाहुके भरता है)। जो मनुष्य (प्रभु को विसार के) माया के मोह में मस्त रहते हैं। वह हर समय (माया की खातिर ही) भटकते फिरते रहते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का जीवन व्यर्थ चला जाता है। वह आखिर (दुनियां से) पछताता ही जाता है।6। पिरु परदेसि सिगारु बणाए ॥ मनमुख अंधु ऐसे करम कमाए ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई बिरथा जनमु गवावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: परदेसि = परदेस में। अंधु = अंधा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में।7। अर्थ: (स्त्री का) पति परदेस में हो और वह (अपने शरीर का) श्रृंगार करती रहे (ऐसी स्त्री को सुख नहीं मिल सकता), अपने मन के पीछे चलने वाला माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (भी) ऐसे कर्म ही करता है। उसे इस लोक में (भी) शोभा नहीं मिलती, और परलोक में भी सहारा नहीं मिलता। वह अपना मनुष्य जनम व्यर्थ गवा लेता है।7। हरि का नामु किनै विरलै जाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती सहजे ही सुखु पावणिआ ॥८॥ पद्अर्थ: जाता = पहचाना, सांझ डाली। सबदि = शब्द द्वारा। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।8। अर्थ: किसी विरले मनुष्य ने परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ डाली है। कोई विरला मनुष्य पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ सांझ डालता है। (जो सांझ डालता है) वह हर रोज दिन रात प्रभु की भक्ति करता है, और आत्मिक अडोलता में ही टिका रह के आत्मिक आनंद लेता है।8। सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक नामि रते जन सोहहि करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥९॥२९॥३०॥ अर्थ: कोई एक आध मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के समझता है कि एक परमात्मा ही सब जीवों में मौजूद है। हे नानक! जो मनुष्य (उस सर्व-व्यापक परमात्मा के) नाम में मस्त रहते हैं, वे अपना जीवन सुंदर बना लेते हैं। प्रभु मेहर करके स्वयं ही उन्हें अपने साथ मिला लेता है।9।29।30। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |