श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माझ महला ३ ॥ मनमुख पड़हि पंडित कहावहि ॥ दूजै भाइ महा दुखु पावहि ॥ बिखिआ माते किछु सूझै नाही फिरि फिरि जूनी आवणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पढ़हि = पढ़ते हैं। दूजै भाइ = माया के प्यार में। बिखिआ = माया। माते = मस्त।1।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ते हैं (और इस कारण अपने आप को) पण्डित-विद्वान कहलवाते हैं। (पर, फिर भी वह) माया के प्यार में (टिके रहते हैं। धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी अहम् आदि का) बड़ा दुख सहते रहते हैं। माया के मोह में मस्त रहने करके उन्हें (आत्मिक जीवन की) कुछ भी समझ नहीं पड़ती, वह मुड़ मुड़ जूनियों में पड़े रहते हैं।1।

हउ वारी जीउ वारी हउमै मारि मिलावणिआ ॥ गुर सेवा ते हरि मनि वसिआ हरि रसु सहजि पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ते = से। गुर सेवा ते = गुरु की शरण पड़ने से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो अहंकार दूर करके (गुरु चरणों में) मिले रहते हैं। गुरु की शरण पड़ने के कारण परमात्मा उनके मन में आ बसता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वे परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।1। रहाउ।

वेदु पड़हि हरि रसु नही आइआ ॥ वादु वखाणहि मोहे माइआ ॥ अगिआनमती सदा अंधिआरा गुरमुखि बूझि हरि गावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: रसु = स्वाद, आनंद। वादु = बहस, झगड़ा। अगिआन = ज्ञान हीनता, बेसमझी।2।

अर्थ: (अपने आप को पण्डित कहलवाने वाले लोग) वेद (तो) पढ़ते हैं, (पर) उन्हें परमात्मा के मिलाप का आनंद नहीं आता। (वेद आदि पढ़ के तो वह सिर्फ कोई ना कोई) धर्म चर्चा व बहस ही (और लोगों को) सुनाते हैं। पर (स्वयं वो) माया के मोह में ही टिके रहते हैं। उनकी अपनी मति बेसमझी वाली ही रहती है। उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य (ही गुरु द्वारा) मति ले के परमात्मा की महिमा कर सकते हैं।2।

अकथो कथीऐ सबदि सुहावै ॥ गुरमती मनि सचो भावै ॥ सचो सचु रवहि दिनु राती इहु मनु सचि रंगावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: अकथो = अकथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। सुहावै = प्यारा लगता है। सचो = सदा स्थिर रहने वाला। रवहि = स्मरण करते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।

अर्थ: (जिस हृदय में) अकथ परमात्मा की महिमा होती रहे, (उस हृदय में) गुरु के शब्द की इनायत से (परमात्मा) सुंदर लगने लग पड़ता है। गुरु के उपदेश से सदा स्थिर प्रभु (मनुष्य के) मन को प्यारा लगने लग पड़ता है। (गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य) दिन रात सदा स्थिर परमात्मा को ही स्मरण करते रहते हैं। (उनका) ये मन सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगा रहता है।3।

जो सचि रते तिन सचो भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ गुर कै सबदि सदा सचु जाता मिलि सचे सुखु पावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: भावै = अच्छा लगता है। देइ = देता है। जाता = सांझ डाल ली।4।

अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं, उन्हें वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु प्यारा लगता है। (ये दाति परमात्मा) स्वयं ही (उनको) देता है। (ये दाति दे के वह) पछताता नहीं (क्योंकि इस दाति की इनायत से) गुरु के शब्द में जुड़ केवह सदा स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाए रखते है, और सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में मिल के आत्मिक आनंद लेते हैं।4।

कूड़ु कुसतु तिना मैलु न लागै ॥ गुर परसादी अनदिनु जागै ॥ निरमल नामु वसै घट भीतरि जोती जोति मिलावणिआ ॥५॥

पद्अर्थ: जागै = सचेत रहता है।5।

अर्थ: (ऐसे मनुष्यों के हृदयों को) झूठ छू नहीं सकता, ठगी छू नहीं सकती। विकारों की मैल नहीं लगती। जिस मनुष्य के हृदय में पवित्र स्वरूप परमात्मा का नाम बसता है, वह गुरु की कृपा से हर वक्त (माया के हमलों से) सुचेत रहता है। उसकी तवज्जो परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।5।

त्रै गुण पड़हि हरि ततु न जाणहि ॥ मूलहु भुले गुर सबदु न पछाणहि ॥ मोह बिआपे किछु सूझै नाही गुर सबदी हरि पावणिआ ॥६॥

पद्अर्थ: त्रेगुण = त्रिगुणी माया की खातिर। ततु = असलियत। मूलहु = मूल से, प्रभु से।6।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, वह (जगत के) मूल परमात्मा (की याद) से वंचित रहते हैं। वह जगत के असले प्रभु के साथ गहरी सांझ नहीं डालते, और वह सदा त्रिगुणी माया के लेखे ही पढ़ते रहते हैं। माया के मोह में गलतान उन मनुष्यों को (परमातमा की भक्ति करने के बारे में) कुछ भी नहीं सूझता। (हे भाई!) गुरु के शब्द की इनायत से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।6।

वेदु पुकारै त्रिबिधि माइआ ॥ मनमुख न बूझहि दूजै भाइआ ॥ त्रै गुण पड़हि हरि एकु न जाणहि बिनु बूझे दुखु पावणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीन गुणों वाली।7।

अर्थ: (पण्डित) वेद (आदि धर्म पुस्तकों को) ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। (पर उसके अंदर) त्रिगुणी माया (का प्रभाव बना रहता है)। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (आत्मिक जीवन को) नहीं समझते। (उनका मन) माया के प्यार में ही (टिका रहता है)। वह (इन धर्म पुस्तकों को) त्रिगुणी माया (कमाने) की खातिर पढ़ते हैं। एक परमात्मा से सांझ नहीं डालते (धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी इस भेद को) समझे बिनां दुख (ही) पाते हैं।7।

जा तिसु भावै ता आपि मिलाए ॥ गुर सबदी सहसा दूखु चुकाए ॥ नानक नावै की सची वडिआई नामो मंनि सुखु पावणिआ ॥८॥३०॥३१॥

पद्अर्थ: तिसु भावै = उस प्रभु को अच्छा लगता है। सहसा = सहम।8।

अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या बस?) जब परमात्मा की अपनी रजा होती है, तबवह स्वयं (ही जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका सहम व दुख दूर करता है।

हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम जपने की सदा स्थिर रहने वाली इज्जत देता है, वह मनुष्य प्रभु के नाम स्मरण को ही (जीवन उद्देश्य) मान के आत्मिक आनंद का सुख पाता है।8।30।31।

माझ महला ३ ॥ निरगुणु सरगुणु आपे सोई ॥ ततु पछाणै सो पंडितु होई ॥ आपि तरै सगले कुल तारै हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: निरगुण = निर्गुण, माया के तीन गुणों से परे। सरगुण = सर्गुण, जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। ततु = अस्लियत।1।

अर्थ: वह परमात्मा स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुणों का लेस मात्रभी अस्तित्व नहीं होता। स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। (आकार-रहित भी स्वयं ही है, और इसका दिखाई देता आकार भी खुद ही है)। जो मनुष्य उसके असल को पहचानता है (उस असले के साथ सांझ डालता है), वह पण्डित बन जाता है। वह मनुष्य खुद (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है, वह सदा परमात्मा के नाम को अपने मन में बसाए रखता है।1।

हउ वारी जीउ वारी हरि रसु चखि सादु पावणिआ ॥ हरि रसु चाखहि से जन निरमल निरमल नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आनंद।1। रहाउ।

अर्थ: मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो परमात्मा का नाम रस चख के (उसका आत्मिक) आनंद लेते हैं। जो मनुष्य हरि नाम का रस चखते हैं, वे पवित्र आत्मा हो जाते हैं, वे पवित्र प्रभु का नाम सदा स्मरण करते हैं।1। रहाउ।

सो निहकरमी जो सबदु बीचारे ॥ अंतरि ततु गिआनि हउमै मारे ॥ नामु पदारथु नउ निधि पाए त्रै गुण मेटि समावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: निहकरमी = निर्लिप, वासना रहित। गिआनि = ज्ञान द्वारा। नउ निधि = नौ खजाने।2।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में बसाता है, वह दुनिया के कार्य-व्यवहार वासना रहित हो के करता है। उसके अंदर जगत का मूल प्रभु प्रगट हो जाता है। वह (गुरु के बख्शे) ज्ञान की सहायता से (अपने अंदर के) अहंकार को दूर कर लेता है। वह परमात्मा का नाम खजाना ढूंढ लेता है (जो उसके वास्ते दुनिया के) नौ खजाने (ही हैं)। (इस नाम पदार्थ की इनायत से) वह माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा के (प्रभु चरणों में) लीन रहता है।2।

हउमै करै निहकरमी न होवै ॥ गुर परसादी हउमै खोवै ॥ अंतरि बिबेकु सदा आपु वीचारे गुर सबदी गुण गावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: बिबेकु = अच्छे बुरे की परख। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को।3।

अर्थ: जो मनुष्य “मैं करता हूँ मैं करता हूँ” की रट लगाए रखते हैं, वे वासना रहित नहीं हो सकते। गुरु की कृपा से ही (कोई विरला मनुष्य) अहंकार को दूर कर सकता है। (जो मनुष्य अहम् को दूर कर लेता है) उसके अंदर अच्छे-बुरे कामों की परख की सूझ पैदा हो जाती है। वह सदा अपने आत्मिक जीवन को विचारता रहता है।3।

हरि सरु सागरु निरमलु सोई ॥ संत चुगहि नित गुरमुखि होई ॥ इसनानु करहि सदा दिनु राती हउमै मैलु चुकावणिआ ॥४॥

पद्अर्थ: सरु = (मान-) सर, सरोवर। होइ = हो के।4।

अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा ही पवित्र मानसरोवर है, पवित्र समुंदर है (पवित्र तीर्थ है), संत जन गुरु की शरण पड़ के (उस में से) सदा (प्रभु नाम रूपी मोती) चुगते रहते हैं। संत जन सदा दिन रात (उस सरोवर में) स्नान करते हैं, तथा (अपने अंदर से) अहंकार की मैल उतारते रहते हैं।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh