श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तूं वडा तूं ऊचो ऊचा ॥ तूं बेअंतु अति मूचो मूचा ॥ हउ कुरबाणी तेरै वंञा नानक दास दसावणिआ ॥८॥१॥३५॥

पद्अर्थ: मूचा = बड़ा। वंञा = वंजां, जाता हूँ। दास दसावणिआ = दासों का दास।8।

अर्थ: (हे प्रभु! ताकत व स्मर्था में) तू (सब से) बड़ा है (आत्मिक उच्चता में) तू सबसे ऊँचा है। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। तू बेअंत बड़ी हस्ती वाला है।

हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, मैं तेरे दासों का दास हूँ।8।1।35।

नोट: अंक १ बताता है कि ये अष्टपदी महले पंजवें (श्री गुरु अरजुन देव जी) की है।

माझ महला ५ ॥ कउणु सु मुकता कउणु सु जुगता ॥ कउणु सु गिआनी कउणु सु बकता ॥ कउणु सु गिरही कउणु उदासी कउणु सु कीमति पाए जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। मुकता = माया के बंधनों से आजाद। जुगता = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला। बकता = वक्ता, प्रभु के गुण वर्णन करने वाला। गिरही = गृहस्थी।1।

अर्थ: वह कौन सा मनुष्य है जो माया के बंधनों से आजाद रहता है और प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है? वह कौन सा मनुष्य है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है और उसकी महिमा करता है? (अच्छा) गृहस्थी कौन हो सकता है? माया से निर्लिप कौन है? वह कौन सा मनुष्य है जो (मनुष्य जन्म की) कद्र समझता है?।1।

किनि बिधि बाधा किनि बिधि छूटा ॥ किनि बिधि आवणु जावणु तूटा ॥ कउण करम कउण निहकरमा कउणु सु कहै कहाए जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: किनि बिधि = किस तरीके से? कउण करम = (अच्छे) कौन से कर्म? निहकरमा = मेहनत करते हुए भी वासना रहित।2।

अर्थ: मनुष्य (माया के मोह के बंधनों में) कैसे बंध जाता है और कैसे (उन बंधनों से) स्वतंत्र होता है? किस तरीके से जनम मरन का चक्र खत्म होता है? अच्छे काम कौन से है? वह कौन सा मनुष्य है जो दुनिया में बिचरता हुआ भी वासना रहित है? वह कौन सा मनुष्य है जो स्वयं महिमा करता है तथा (औरों से भी) करवाता है?।2।

कउणु सु सुखीआ कउणु सु दुखीआ ॥ कउणु सु सनमुखु कउणु वेमुखीआ ॥ किनि बिधि मिलीऐ किनि बिधि बिछुरै इह बिधि कउणु प्रगटाए जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: इह बिधि = ये ढंग।3।

अर्थ: सुखी जीवन देने वाला कौन है? कौन दुखों में घिरा हुआ है? सन्मुख किस को कहा जाता है? बेमुख किसे कहते हैं? प्रभु चरणों में किस तरह मिल सकते हैं? मनुष्य प्रभु से कैसे बिछुड़ जाता है? ये विधि कौन सिखाता है?।3।

कउणु सु अखरु जितु धावतु रहता ॥ कउणु उपदेसु जितु दुखु सुखु सम सहता ॥ कउणु सु चाल जितु पारब्रहमु धिआए किनि बिधि कीरतनु गाए जीउ ॥४॥

पद्अर्थ: अखरु = शब्द। धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता (मन)। सम = एक जैसा।4।

अर्थ: वह कौन सा शब्द है जिससे विकारों की तरफ दौड़ता मन टिक जाता है (ठहर जाता है)? वह कौन सा उपदेश है जिस पे चल के मनुष्य दुख सुख एक समान सह सकता है? वह कौन सा जीवन ढंग है जिससे मनुष्य परमात्मा को स्मरण कर सके? किस तरह परमात्मा की महिमा करता रहे?।4।

गुरमुखि मुकता गुरमुखि जुगता ॥ गुरमुखि गिआनी गुरमुखि बकता ॥ धंनु गिरही उदासी गुरमुखि गुरमुखि कीमति पाए जीउ ॥५॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। धंनु = धन्य, भाग्यशाली।5।

अर्थ: गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य माया के बंधनों से आजाद रहता है और परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है। गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है और प्रभु की महिमा करता है। गुरु के सनमुख रहने वाला मनुष्य ही भाग्यशाली गृहस्थी है। वह दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी निर्लिप रहता है। वही मनुष्य जन्म की कद्र समझता है।5।

हउमै बाधा गुरमुखि छूटा ॥ गुरमुखि आवणु जावणु तूटा ॥ गुरमुखि करम गुरमुखि निहकरमा गुरमुखि करे सु सुभाए जीउ ॥६॥

पद्अर्थ: सुभाए = प्रेम में टिक के।6।

अर्थ: (अपने मन के पीछे चल के मनुष्य अपने ही) अहंकार के कारण (माया के बंधनों में) बंध जाता है। गुरु की शरण पड़ के (इन बंधनों से) आजाद हो जाता है। गुरु के बताए राह पे चलने से मनुष्य के जनम मरन का चक्र समाप्त हो जाता है। गुरु के सन्मुख रह के अच्छे काम हो सकते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दुनिया की किर्त कार करता हुआ भी वासना रहित रहता है। ऐसा मनुष्य जो कुछ भी करता है प्रभु के प्रेम में टिक के करता है।6।

गुरमुखि सुखीआ मनमुखि दुखीआ ॥ गुरमुखि सनमुखु मनमुखि वेमुखीआ ॥ गुरमुखि मिलीऐ मनमुखि विछुरै गुरमुखि बिधि प्रगटाए जीउ ॥७॥

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सुखी जीवन वाला है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य नित्य दुखी रहता है। गुरु के बताए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा की तरफ मुंह रखने वाला है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा रब से मुंह मोड़े रखता है। गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा को मिल सकते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा परमातमा से विछुड़ जाता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही (सही जीवन की) विधि सिखाता है।7।

गुरमुखि अखरु जितु धावतु रहता ॥ गुरमुखि उपदेसु दुखु सुखु सम सहता ॥ गुरमुखि चाल जितु पारब्रहमु धिआए गुरमुखि कीरतनु गाए जीउ ॥८॥

अर्थ: गुरु के मुंह से निकले शब्द ही वह बोल हैं जिसकी इनायत से विकारों की तरफ दौड़ता मन खड़ा हो जाता है। गुरु से मिला उपदेश ही (ये स्मर्था रखता है कि मनुष्य उस के आसरे) दुख सुख को एक समान करके सहता है। गुरु की राह पे चलना ही ऐसी जीवन चाल है कि इस के द्वारा मनुष्य परमातमा का ध्यान धर सकता है और परमात्मा की महिमा करता है।8।

सगली बणत बणाई आपे ॥ आपे करे कराए थापे ॥ इकसु ते होइओ अनंता नानक एकसु माहि समाए जीउ ॥९॥२॥३६॥

अर्थ: (पर, गुरमुख और मनमुख--ये) सारी रचना परमात्मा ने स्वयं ही बनायी है, (सब जीवों में व्यापक हो के) वह स्वयं ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है। वह स्वयं ही जगत की सारी खेल चला रहा है।

हे नानक! वह स्वयं ही अपने एक स्वरूप से बेअंत रूपों रंगों वाला बना हुआ है। (यह सारा बहुरंगी जगत) उस एक में ही लीन हो जाता है।9।2।36।

माझ महला ५ ॥ प्रभु अबिनासी ता किआ काड़ा ॥ हरि भगवंता ता जनु खरा सुखाला ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता तूं करहि सोई सुखु पावणिआ ॥१॥

पद्अर्थ: काड़ा = फिक्र, चिन्ता। भगवंता = सब सुखों का मालिक। खरा = बहुत। मान = मन का।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य को ये यकीन हो कि मेरे सिर पर) अबिनाशी प्रभु (रक्षक है, उसे) कोई चिन्ता फिक्र नहीं होता। (जब मनुष्य को ये निश्चय हो कि) सब सुखों का मालिक हरि (मेरा रक्षक है) तो वह बहुत आसान जीवन व्यतीत करता है।

हे प्रभु जिसे ये निश्चय है कि तू जिंद का प्राणों का, मन का सुख दाता है, और जो कुछ तू करता है वही होता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद माणता है।1।

हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि मनि तनि भावणिआ ॥ तूं मेरा परबतु तूं मेरा ओला तुम संगि लवै न लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। ओला = आसरा। लवै = नजदीक। लवै न लावणिआ = बराबरी का नहीं।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) मैं तेरे से सदके हूँ कुर्बान हूं। गुरु की शरण पड़ने से तू मन में, दिल में प्यारा लगने लग जाता है। हे प्रभु! तू मेरे लिए पर्बत (के समान सहारा) है, तू मेरा आसरा है। मैं तेरे साथ किसी और को बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता।1। रहाउ।

तेरा कीता जिसु लागै मीठा ॥ घटि घटि पारब्रहमु तिनि जनि डीठा ॥ थानि थनंतरि तूंहै तूंहै इको इकु वरतावणिआ ॥२॥

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। तिनि = उस ने। जनि = जन में। तिनि जनि = उस जन ने। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। अंतरि = में।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू पारब्रह्म (हरेक हृदय में बस रहा) है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा मीठा लगने लग जाए, उस मनुष्य ने तूझे हरेक हृदय में बसा हुआ देख लिया है। हरेक जगह में तू ही तू ही, सिर्फ एक तू ही बस रहा है।2।

सगल मनोरथ तूं देवणहारा ॥ भगती भाइ भरे भंडारा ॥ दइआ धारि राखे तुधु सेई पूरै करमि समावणिआ ॥३॥

पद्अर्थ: भाइ = प्रेम से। सेई = वही लोग। करमि = बख्शिश से।3।

अर्थ: हे प्रभु! सब जीवों की मन मांगी मुरादें तू ही पूरी करने वाला है। तेरे घर में भक्ति धन के, प्रेम धन के खजाने भरे पड़े हैं। जो लोग तेरी पूरी मेहर से तेरे में लीन रहते हैं, दया करके उनको तू (माया के हमलों से) बचा लेता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh