श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 132 अंध कूप ते कंढै चाड़े ॥ करि किरपा दास नदरि निहाले ॥ गुण गावहि पूरन अबिनासी कहि सुणि तोटि न आवणिआ ॥४॥ पद्अर्थ: कूप = कूआँ। अंध कूप ते = माया के मोह के अंधे कूएं से। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाले = देखता है। करि = करके। सुणि = सुन के।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवकों पर मेहर करता है। उनको मेहर की नजर के साथ देखता है, उन्हें माया के मोह के अंधे कूएं में से निकाल के बाहर किनारे पर चढ़ा देता हैं वह सेवक अविनाशी प्रभु के गुण गाते रहते हैं। (हे भाई! प्रभु के गुण बेअंत हैं) कहने से, सुनने से (उसके गुणों का) खात्मा नहीं हो सकता है।4। ऐथै ओथै तूंहै रखवाला ॥ मात गरभ महि तुम ही पाला ॥ माइआ अगनि न पोहै तिन कउ रंगि रते गुण गावणिआ ॥५॥ पद्अर्थ: गरभ महि = पेट में। रंग रते = प्रेम रंग में रंगे हुए।5। अर्थ: हे प्रभु! इस लोक में परलोक में तू ही (सब जीवों का) रक्षक है। माँ के पेट में ही (जीवों की) पालना करता है। उन लोगों को माया (की तृष्णा) की आग छू नहीं सकती, जो तेरे प्रेम रंग में रंगे हुए तेरे गुण गाते रहते हैं।5। किआ गुण तेरे आखि समाली ॥ मन तन अंतरि तुधु नदरि निहाली ॥ तूं मेरा मीतु साजनु मेरा सुआमी तुधु बिनु अवरु न जानणिआ ॥६॥ पद्अर्थ: समाली = मैं संभालूं, मैं याद करूँ। तुधु = तुझे ही। नदरि निहाली = नजर से मैं देखता हूं।6। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे कौन कौन से गुण कह के याद करूँ? मैं अपने मन में तन में तूझे ही बसता देख रहा हूँ। हे प्रभु! तू ही मेरा मालिक है। तेरे बिना मैं किसी और को (तेरे जैसा मित्र) नहीं समझता।6। जिस कउ तूं प्रभ भइआ सहाई ॥ तिसु तती वाउ न लगै काई ॥ तू साहिबु सरणि सुखदाता सतसंगति जपि प्रगटावणिआ ॥७॥ पद्अर्थ: सहाई = मददगार। काई = कोई। सरणि = शरण्य, a protector, रक्षा करने के समर्थ। जपि = जप के।7। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य वास्ते तू रक्षक बन जाता है, उसे कोई दुख कलेष छू नहीं सकता। तू ही उसका मालिक है, तू ही उसका रक्षक है, तू ही उसे सुख देने वाला है। साधु-संगत में तेरा नाम जप के वह तुझे अपने हृदय में प्रत्यक्ष देखता है।7। तूं ऊच अथाहु अपारु अमोला ॥ तूं साचा साहिबु दासु तेरा गोला ॥ तूं मीरा साची ठकुराई नानक बलि बलि जावणिआ ॥८॥३॥३७॥ पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। गोला = गुलाम। मीरा = मालिक। साची = सदा कायम रहने वाली। ठकुराई = माल्कियत।8। अर्थ: हे प्रभु! (आत्मिक जीवन में) तू (सब जीवों से) ऊँचा है, तू (मानो, गुणों का समुंदर) है, जिसकी गहराई नहीं मापी जा सकती। तेरी हस्ती का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। तेरा मुल्य नहीं पड़ सकता (किसी भी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। मैं तेरा दास हूँ, गुलाम हूँ। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू (मेरा) मालिक है; तेरी मल्कियत सदा कायम रहने वाली है। मैं तुझसे सदा सदके हूँ, कुर्बान हूँ।8।3।37। माझ महला ५ घरु २ ॥ नित नित दयु समालीऐ ॥ मूलि न मनहु विसारीऐ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दयु = प्यार करने वाला परमात्मा। मूलि न = कभी नही। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) सदा ही उस परमात्मा को हृदय में बसाना चाहिए जो सब जीवों पे तरस करता है, उसे अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। रहाउ। संता संगति पाईऐ ॥ जितु जम कै पंथि न जाईऐ ॥ तोसा हरि का नामु लै तेरे कुलहि न लागै गालि जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: जितु = जिस (साधु-संगत) से। पंथि = रास्ते में। जम कै पंथि = जमों के राह पर, उस राह पे जहां यम से वास्ता पड़े, आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर। तोसा = रास्ते का खर्च। कुलहि = कुल को। गालि = गाली, कलंक, बदनामी।1। अर्थ: (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से परमात्मा का नाम मिलता है। साधु-संगत की इनायत से आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर नहीं पड़ते। (हे भाई! जीवन सफर वास्ते) परमात्मा का नाम खर्च (अपने पल्ले बांध) ले, (इस तरह) तेरी कुल को (भी) कोई बदनामी नहीं आएगी।1। जो सिमरंदे सांईऐ ॥ नरकि न सेई पाईऐ ॥ तती वाउ न लगई जिन मनि वुठा आइ जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: सांइऐ = सांई को। नरकि = नर्क में। सेई = उन्हें। पाईऐ = पाया जाता। मनि = मन में। वुठा = बसा हुआ।2। अर्थ: जो मनुष्य खसम परमात्मा का स्मरण करते हैं उन्हें नर्क में नहीं डाला जाता। (हे भाई!) जिनके मन में परमात्मा आ बसता है, उन्हें कोई दुख कलेष छू नहीं सकता।2। सेई सुंदर सोहणे ॥ साधसंगि जिन बैहणे ॥ हरि धनु जिनी संजिआ सेई ग्मभीर अपार जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: बैहणे = बैठना उठना, मिलना जुलना। संजिआ = सींचा, एकत्र किया। गंभीर = गहरे जिगरे वाले।3। अर्थ: वही मनुष्य सोहने सुंदर (जीवन वाले) हैं, जिनका उठना बैठना साधसंगति में है। जिस लोगों ने परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर लिया, वे बेअंत गहरे जिगरे वाले बन जाते हैं।3। हरि अमिउ रसाइणु पीवीऐ ॥ मुहि डिठै जन कै जीवीऐ ॥ कारज सभि सवारि लै नित पूजहु गुर के पाव जीउ ॥४॥ पद्अर्थ: अमिउ = नाम अमृत। रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर। मुहि डिठै = अगर मुंह देख लिया जाए। जीवीऐ = आत्मिक जीवन मिले। सभि = सारे। पाव = (शब्द ‘पाउ’ का वचन) पैर।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम अमृत पीना चाहिए। (ये नाम अमृत) सारे रसों का श्रोत है। (हे भाई!) परमात्मा के सेवक का दर्शन करने से आत्मिक जीवन मिलता है, (इस वास्ते तू भी) सदा गुरु के पैर पूज (गुरु की शरण पड़ा रह, और इस तरह) अपने सारे काम सर कर ले।4। जो हरि कीता आपणा ॥ तिनहि गुसाई जापणा ॥ सो सूरा परधानु सो मसतकि जिस दै भागु जीउ ॥५॥ पद्अर्थ: जो = जिसे। तिनहि = तिनि ही, उस ने ही। सूरा = सूरमा। मसतकि = माथे पे।5। नोट: ‘तिनहि’ में ‘न’ की ‘ि’ हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण। अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा ने अपना (सेवक) बना लिया है, उसने ही पति प्रभु का स्मरण करते रहना है। जिस मनुष्य के माथे पे (प्रभु की इस दाति के) भाग्य जाग जाएं, वह (विकारों से टक्कर ले सकने के समर्थ) शूरवीर बन जाते हैं। वह (मनुष्यों में) श्रेष्ठ मनुष्य माने जाते हैं।5। मन मंधे प्रभु अवगाहीआ ॥ एहि रस भोगण पातिसाहीआ ॥ मंदा मूलि न उपजिओ तरे सची कारै लागि जीउ ॥६॥ पद्अर्थ: मंधे = (मध्य) में। अवगाहीआ = (अवगाह = to bathe oneself into, to plunge) डुबकी लगानी चाहिए। एहि = इन।6। नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! अपने मन में ही डुबकी लगाओ और प्रभु के दर्शन करो-यही है दुनिया के सारे रसों का भोग। यही है दुनिया की बादशाहियां। (जिस मनुष्यों ने परमात्मा को अपने अंदर ही देख लिया, उनके मन में) कभी कोई विकार पैदा नहीं होता। वह नाम जपने की सच्ची कार में लग के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।6। करता मंनि वसाइआ ॥ जनमै का फलु पाइआ ॥ मनि भावंदा कंतु हरि तेरा थिरु होआ सोहागु जीउ ॥७॥ पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। भावंदा = पसंद। थिरु = कायम।7। अर्थ: जिस मनुष्य ने कर्तार को अपने मन में बसा लिया, उसने मानव जनम का फल प्राप्त कर लिया। (हे जीव-स्त्री!) अगर तुझे कंत हरि अपने मन में प्यारा लगने लग जाए, तो तेरा ये सुहाग सदा के लिए (तेरे सिर पर) कायम रहेगा।7। अटल पदारथु पाइआ ॥ भै भंजन की सरणाइआ ॥ लाइ अंचलि नानक तारिअनु जिता जनमु अपार जीउ ॥८॥४॥३८॥ पद्अर्थ: भै भंजन = डर दूर करने वाला। अंचलि = आँचल से, पल्ले से। तारिअनु = तारि+उन, उस ने तारे।8। अर्थ: (परमात्मा का नाम सदा कायम रहने वाला धन है, जिन्होंने) यह सदा कायम रहने वाला धन ढूँढ लिया, जो लोग सदा डर नाश करने वाले परमात्मा की शरण में आ गए, उन्हें, हे नानक! परमात्मा ने अपने साथ लगा के (संसार समुंदर से) पार लंघा लिया। उन्होंने मानव जन्म की बाजी जीत ली।8।4।38। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माझ महला ५ घरु ३ ॥ हरि जपि जपे मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपै = जप के। धीरे = धीरज पकड़ता है।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा का नाम जप जप के (मनुष्य का) मन धैर्यवान हो जाता है (दुनियां के सुखों दुखों में डोलता नहीं)। रहाउ। सिमरि सिमरि गुरदेउ मिटि गए भै दूरे ॥१॥ पद्अर्थ: भै = सारे डर। सिमरि = स्मरण करके।1। अर्थ: सबसे बड़े अकाल-पुरख को स्मरण कर-कर के सारे डर सहम मिट जाते हैं; दूर हो जाते हैं।1। सरनि आवै पारब्रहम की ता फिरि काहे झूरे ॥२॥ पद्अर्थ: काहे झूरै = कोई चिन्ता फिक्र नहीं रह जाती, क्यूँ झुरेगा?।2। अर्थ: जब मनुष्य परमात्मा का आसरा ले लेता है, उसे कोई चिन्ता, फिक्र छू नहीं सकती।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |