श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे धंधै लाइआ ॥ मोह ठगउली पाइ कै तुधु आपहु जगतु खुआइआ ॥ तिसना अंदरि अगनि है नह तिपतै भुखा तिहाइआ ॥ सहसा इहु संसारु है मरि जमै आइआ जाइआ ॥ बिनु सतिगुर मोहु न तुटई सभि थके करम कमाइआ ॥ गुरमती नामु धिआईऐ सुखि रजा जा तुधु भाइआ ॥ कुलु उधारे आपणा धंनु जणेदी माइआ ॥ सोभा सुरति सुहावणी जिनि हरि सेती चितु लाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: ठगउली = ठग बूटी। आपहु = अपने आप से। खुआइआ = गवा लिया। नह तिपतै = नहीं तृप्ति होती। सहसा = संशय, तौखला। सुखि = सुख में। रजा = तृप्त हो गया। माइआ = माँ। जणेदी = पैदा करने वाली।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू खुद ही जगत पैदा करके खुद ही (इसे) जंजाल में डाल देता है। (माया के) मोह की ठग बूटी खिला के तू जगत को अपने आप से (भाव, अपनी याद से) वंचित कर देता है। (जगत के) अंदर तृष्णा की आग (जल रही) है। (इस वास्ते ये माया की) प्यास व भूख का मारा हुआ तृप्त नहीं होता। ये जगत है ही तौखला (रूप), (इस तौखले में पड़ा जीव) पैदा होता मरता व जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। (माया का यह) मोह गुरु (की शरण) के बिना टूटता नहीं, (ज्यादातर जीव) और-और (धार्मिक) कर्म करके हार चुके हैं।

प्रभु का नाम गुरु की शिक्षा के द्वारा ही स्मरण किया जा सकता है। (हे प्रभु!) जब तुझे भाए (तो जीव तेरे नाम के) सुख में (टिक के) तृप्त होते हैं। धन्य है (उस जीव को) पैदा करने वाली माँ, (नाम की इनायत से वह) अपना खानदान (ही विकारों से) बचा लेती है। जिस मनुष्य ने प्रभु के साथ चिक्त जोड़ा है, (जगत में उसकी) शोभा होती है और उसकी सुंदर सूझ हो जाती है।2।

सलोकु मः २ ॥ अखी बाझहु वेखणा विणु कंना सुनणा ॥ पैरा बाझहु चलणा विणु हथा करणा ॥ जीभै बाझहु बोलणा इउ जीवत मरणा ॥ नानक हुकमु पछाणि कै तउ खसमै मिलणा ॥१॥

अर्थ: अगर आँखों के बिना देखें (अर्थात, अगर पराया रूप देखने वाली आदत से हट के जगत को देखें), कानों से बिना सुनें (भाव, अगर निंदा सुनने की वृक्ति से हटा के बरतें), अगर बिना पैरों के चलें (भाव, यदि गलत मार्ग पर चलने से पैरों को रोके रखें), यदि हाथों के बिना काम करें (भाव, अगर पराया नुकसान करने से रोक के हाथों का बरतें), यदि जीभ के बिना बोलें (अर्थात, पराई निंदा रस से बचा के जीभ से काम लें); इस तरह जीते हुए मरना है। हे नानक! पति प्रभु का हुक्म पहचाने तो ही उससे मिल सकते हैं (भाव, यदि ये समझ लें कि पति प्रभु द्वारा आँख आदि इंद्रियों को कैसे इस्तेमाल करने का हुक्म है, तो उस प्रभु से मिल सकते हैं)।1।

मः २ ॥ दिसै सुणीऐ जाणीऐ साउ न पाइआ जाइ ॥ रुहला टुंडा अंधुला किउ गलि लगै धाइ ॥ भै के चरण कर भाव के लोइण सुरति करेइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इव कंत मिलावा होइ ॥२॥

पद्अर्थ: साउ = स्वाद, आनंद। रुहला = लूला, पैर के बगैर। टुंडा = हाथ के बगैर। धाइ = दौड़ के, भाग के। भै के = (प्रभु के) डर से। कर = हाथ। भाव = प्यार। लोइण = आँखें। सुरति = ध्यान। इव = इस तरह।2।

अर्थ: (परमात्मा, कुदरति में बसता) दिखाई दे रहा है। (उसकी जीवन तुकांत सारी रचना) में सुनी जा रही है। (उसके कामों से) प्रतीत हो रहा है (कि वह कुदरति में मौजूद है, फिर भी उसके मिलाप का) स्वाद (जीव को) हासिल नहीं होता। (ऐसा क्यों?) इसलिए कि प्रभु को मिलने के लिए (जीव के पास) ना पैर हैं, ना हाथ हैं और ना ही आँखें हैं। (फिर ये) भाग के कैसे (प्रभु के) गले जा लगे?

यदि (जीव प्रभु के) डर (में चलने) को (अपने) पैर बनाए, प्यार के हाथ बनाए और (प्रभु की) याद (में जुड़ने) को आँखें बनाए, तो नानक कहता है, हे सुजान जीवस्त्री! इस तरह पति प्रभु से मेल होता है।2।

पउड़ी ॥ सदा सदा तूं एकु है तुधु दूजा खेलु रचाइआ ॥ हउमै गरबु उपाइ कै लोभु अंतरि जंता पाइआ ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू सभ करे तेरा कराइआ ॥ इकना बखसहि मेलि लैहि गुरमती तुधै लाइआ ॥ इकि खड़े करहि तेरी चाकरी विणु नावै होरु न भाइआ ॥ होरु कार वेकार है इकि सची कारै लाइआ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है इकि अलिपतु रहे जो तुधु भाइआ ॥ ओहि अंदरहु बाहरहु निरमले सचै नाइ समाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। खड़े = खड़े हो के, सचेत हो के। इकि = कई जीव। कलत्र = स्त्री। अलिप्त = निर्लिप, निर्मोह। ओहि = वह जीव। नाइ = नाम में।3।

नोट: ‘ओहि’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा ही एक (स्वयं ही स्वयं) है। ये (तुझसे अलग दिखता तमाशा) तूने खुद ही रचा है। (तूने ही जीवों के अंदर) अहंकार पैदा करके, जीवों के अंदर लोभ (भी) डाल दिया है। (इसलिए) सारे ही जीव तेरी ही परोई हुई कार कर रहे है। जैसे तुझे भाए वैसे इनकी रक्षा कर।

कई जीवों को तू बख्शता है (और अपने चरणों में) जोड लेता है। गुरु की शिक्षा में तूने स्वयं ही उनको लगाया है। (ऐसे) कई जीव सुचेत हो के तेरी बंदगी कर रहे हैं। तेरे नाम (की याद) के बिना कोई और काम उन्हें नहीं भाता (भाव, किसी और काम की खातिर तेरा नाम भुलाने को वे तैयार नहीं)। जिस ऐसे लोगों को तूने इस सच्ची कार में लगाया है, उन्हें (तेरा नाम विसार के) कोई और काम करना बुरा लगता है।

ये जो पुत्र, स्त्री व परिवार है, (हे प्रभु!) जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं, वे इनसे निर्मोही रहते हैं। तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में जुड़े हुए वह लोग अंदर बाहर से निर्मल रहते हैं।3।

सलोकु मः १ ॥ सुइने कै परबति गुफा करी कै पाणी पइआलि ॥ कै विचि धरती कै आकासी उरधि रहा सिरि भारि ॥ पुरु करि काइआ कपड़ु पहिरा धोवा सदा कारि ॥ बगा रता पीअला काला बेदा करी पुकार ॥ होइ कुचीलु रहा मलु धारी दुरमति मति विकार ॥ ना हउ ना मै ना हउ होवा नानक सबदु वीचारि ॥१॥

पद्अर्थ: सुइने कै परबति = सोने के सुमेर पर्वत पर। करी = मैं बना लूँ। कै = या, यद्यपि,चाहे। पइआलि = पाताल में। पाणी पइआलि = नीचे पानी में। उरधि = उल्टा, ऊँचा। सिरि भारि = सिर के भार। पुरु = पूरे तौर पे। सदाकारि = सदा ही। कुचीलु = गंदा। मलुधारी = मैला।1।

अर्थ: मैं (चाहे) सोने के (सुमेर) पर्वत पर गुफा बनां लूँ, चाहे नीचे पानी में (जा के रहूँ); चाहे धरती में रहूँ, चाहे आकाश में उल्टा सिर भार खड़ा रहूं। चाहे शरीर को पूरी तरह से कपड़ों से ढक लूँ, चाहे शरीर को सदा ही धोता रहूँ। चाहे मैं सफेद, लाल, पीले या काले कपड़े पहन के (चार) वेदों का उच्चारण करूँ, या फिर (सरेवड़ियों की तरह) गंदा व मैला रहूँ - ये सारे बुरी मति के बुरे काम (विकार) ही हैं। हे नानक! (मैं तो ये चाहता हूँ कि सतिगुरु के) शब्द को विचार के (मेरा) अहंकार ना रहे।1।

मः १ ॥ वसत्र पखालि पखाले काइआ आपे संजमि होवै ॥ अंतरि मैलु लगी नही जाणै बाहरहु मलि मलि धोवै ॥ अंधा भूलि पइआ जम जाले ॥ वसतु पराई अपुनी करि जानै हउमै विचि दुखु घाले ॥ नानक गुरमुखि हउमै तुटै ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपे नामो आराधे नामे सुखि समावै ॥२॥

पद्अर्थ: वसत्र = कपड़े। पखालि = धो के। आपे = स्वयं ही, अपनी ओर से। संजमि = संजमी, जिसने काम आदिक विकारों को वस में कर लिया है, ऋषि, तपस्वी। अंतरि = मन में। भूलि = भूल के, टूट के। जम जाले = मौत के जाल में, उस धंधे रूपी जाल में जहां सदा मौत का डर बना रहे। दुखु घाले = दुख सहता है। नामे = नाम के द्वारा ही। सुखी = सुख में।2।

अर्थ: (जो मनुष्य नित्य) कपड़े धो के शरीर धोता है (और सिर्फ कपड़े और शरीर स्वच्छ रखने से ही) अपनी ओर से तपस्वी बन बैठता है। (पर) मन में लगी हुई मैल की उसको खबर नहीं, (सदा शरीर को) बाहर से मल मल के धोता है। (वह) अंधा मनुष्य (सीधे राह से) भटक के मौत का डर पैदा करने वाले जाल में फंसा हुआ है, अहंकार में दुख सहता है। क्योंकि, पराई वस्तु (शरीर व अन्य पदार्थों आदिक) को अपनी समझ बैठता है।

हे नानक! (जब) गुरु के सन्मुख हो के (मनुष्य का) अहम् दूर होता है, तबवह प्रभु का नाम स्मरण करता है, नाम जपता है। नाम ही याद करता है व नाम ही की इनायत से सुख में टिका रहता है।2।

पवड़ी ॥ काइआ हंसि संजोगु मेलि मिलाइआ ॥ तिन ही कीआ विजोगु जिनि उपाइआ ॥ मूरखु भोगे भोगु दुख सबाइआ ॥ सुखहु उठे रोग पाप कमाइआ ॥ हरखहु सोगु विजोगु उपाइ खपाइआ ॥ मूरख गणत गणाइ झगड़ा पाइआ ॥ सतिगुर हथि निबेड़ु झगड़ु चुकाइआ ॥ करता करे सु होगु न चलै चलाइआ ॥४॥

पद्अर्थ: हंसि = जीव। संजोगु मेलि = संजोग मेल के, जोड़ मिथ के। तिन ही = उन ही, उन्हीं। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिन ही = उसी (प्रभु) ने ही। तिन ही = उसने ही। सबाइआ = सारे। हरखहु = खुशी से। गणत गणाए = लेखा लिख के। मूरख गणत गाणाइ = मूर्खों वाले काम कर करके। झगड़ा = जनम मरन का लंबा झमेला। सु होगु = वही होगा।4।

नोट: ‘तिन ही’ है जिनि का विलोम तिनि। यहां ‘तिनि’ के ‘न’ की ‘ि’ मात्रा हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ ‘वाक्य रचना’ में अंक ‘ही’।

अर्थ: शरीर व जीव (आत्मा) का संयोग निर्धारित करके (परमात्मा ने इनको मानव जन्म में) इकट्ठा कर दिया है। जिस (प्रभु) ने (शरीर व जीव को) पैदा किया है उसने ही (इनके लिए) विछोड़ा (भी) बना रखा है। (पर इस विछोड़े को भुला के) मूर्ख (जीव) भोग भोगता रहता है, जो सारे दुखों का (मूल बनता) है।

पाप कमाने के कारण (भोगों के) सुख से रोग पैदा होते हैं (भोगों की) खुशी से चिन्ता (और अंत को) विछोड़ा पैदा करके जनम मरण का लंबा झमेला अपने सिर ले लेता है।

जनम मरन के चक्र को खत्म करने की ताकत सतिगुरु के हाथ में है, (जिस को गुरु मिलता है उसका ये) झमेला खत्म हो जाता है। (जीवों की कोई) अपनी चलाई सियानप चल नहीं सकती। जो कर्तार करता है वही होता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh