श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः १ ॥ खतिअहु जमे खते करनि त खतिआ विचि पाहि ॥ धोते मूलि न उतरहि जे सउ धोवण पाहि ॥ नानक बखसे बखसीअहि नाहि त पाही पाहि ॥१॥

पद्अर्थ: खतिअहु = खता से, पाप से। करनि = (संधि विच्छेद ‘कर+नित्य’ गलत है) करते हैं। मूलि = बिल्कुल ही। पाही = (सं: उपानह्) जूतियां। खते = पाप।1।

नोट: शब्द ‘करनि’ क्रिया है, ‘वर्तमान, अंनपुरख, बहुवचन।

अर्थ: पापों के कारण (जो जीव) पैदा होते हैं, (यहां भी) पाप करते हैं और (आगे भी इनके किए पापों के संस्कारों करके) पापों में ही प्रवृर्ति होते हैं। ये पाप धोने से बिल्कुल नहीं उतरते, चाहे सौ धोने धोएं (चाहे सौ बार धोने का यत्न करें)। हे नानक! यदि प्रभु मेहर करे (तो ये पाप) बख्शे जाते हैं, नहीं तो जूतियां ही पड़ती हैं।1।

मः १ ॥ नानक बोलणु झखणा दुख छडि मंगीअहि सुख ॥ सुखु दुखु दुइ दरि कपड़े पहिरहि जाइ मनुख ॥ जिथै बोलणि हारीऐ तिथै चंगी चुप ॥२॥

पद्अर्थ: झखणा = व्यर्थ का बोलना, सिर खपायी। मंगीअहि = मांगे जाते हैं। दरि = प्रभु के दर से। पहिरहि = पहनते हैं। जाइ = जन्म ले के। बोलणि = बोलने से, (दुखों से) गिला करने से। हारीऐ = हार ही माननी पड़ती है।2।

अर्थ: हे नानक! (ये जो) दुख छोड़ के सुख मांगते हैं, ऐसा बोलना सिर खपाई ही है। सुख और दुख दोनों प्रभु के दर से कपड़े मिले हुए हैं, जो मनुष्य जन्म ले कर यहाँ पहनते हैं (भाव, दुख और सुख के चक्र हरेक पर आते ही रहते हैं); सो जिसके सामने एतराज गिला करने से (अंत को) हार ही माननी पड़ती है वहाँ चुप रहना ही ठीक है (भाव रजा में चलना सबसे अच्छा है)।2।

पउड़ी ॥ चारे कुंडा देखि अंदरु भालिआ ॥ सचै पुरखि अलखि सिरजि निहालिआ ॥ उझड़ि भुले राह गुरि वेखालिआ ॥ सतिगुर सचे वाहु सचु समालिआ ॥ पाइआ रतनु घराहु दीवा बालिआ ॥ सचै सबदि सलाहि सुखीए सच वालिआ ॥ निडरिआ डरु लगि गरबि सि गालिआ ॥ नावहु भुला जगु फिरै बेतालिआ ॥२४॥

पद्अर्थ: अंदरु = अंदरला मन। अलखि = अलख ने, अदृश्य ने, प्रभु ने। सिरजि = (जगत) पैदा करके। उझड़ि = कुमार्ग में। गुरि = गुरु ने। वाहु = शाबाश। सतिगुर वाहु = गुरु को शाबाश। घराहु = घर से ही। गरबि = अहंकार में।24।

नोट: शब्द ‘अंदरु’ व्याकरण के अनुसार संज्ञा है, पर शब्द ‘अंदरि’ संबंधक है; जैसे खुंढा अंदरि रखि कै। दोनों शब्दों का जोड़ ध्यान देने योग्य है।

नोट: शब्द ‘भालिआ’, ‘निहालिआ’ आदि भूतकाल में है, इनका अर्थ ‘वर्तमान’ में करना है।

अर्थ: जो मनुष्य चारों तरफ देख के (भाव, बाहर की चारों तरफ की भटकना छोड़ के) अपना अंदर का ढूँढता है (उसे दिख जाता है कि) सच्चे अलख अकाल पुरख ने (जगत) पैदा करके स्वयं ही उसकी संभाल की है (भाव, संभाल कर रहा है)।

गलत रास्ते पर भटक रहे मनुष्य को गुरु ने रास्ता दिखाया है (राह गुरु दिखाता है), सच्चे सत्गुरू को शाबाश है (जिसकी इनायत से) सच्चे प्रभु को स्मरण करते हैं। (जिस मनुष्य के अंदर सत्गुरू ने ज्ञान का) दीपक जगा दिया है उसे अपने अंदर से ही (नाम) रत्न मिल गया है। (गुरु की शरण आ के) सच्चे शब्द के द्वारा प्रभु की महिमा करके (मनुष्य) सुखी हो जाते हैं, खसम वाले हो जाते हैं।

(पर) जिन्होंने प्रभु का भय नहीं रखा, उन्हें (और) डर सताते हैं। वे अहंकार में गलते हैं। प्रभु के नाम से भूला हुआ जगत बेताला हुआ फिरता है।24।

सलोकु मः ३ ॥ भै विचि जमै भै मरै भी भउ मन महि होइ ॥ नानक भै विचि जे मरै सहिला आइआ सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: भै विचि = सहम में। भउ = सहम। भै विचि = प्रभु के डर में। सहिला = सफला, सरल। मरै = अपनत्व गवाता है।1।

अर्थ: जगत सहम में पैदा होता है, सहम में मरता है। सदा ही सहम इसमें टिका रहता है। (पर) हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के डर में स्वैभाव मारता है उसका पैदा होना मुबारक है (जगत की ममता मनुष्य के अंदर सहम पैदा करती है। जब ये अपनत्व व ममता खत्म हो जाए तो किसी चीज के छीने जाने का डर सहम नहीं रहता)।1।

मः ३ ॥ भै विणु जीवै बहुतु बहुतु खुसीआ खुसी कमाइ ॥ नानक भै विणु जे मरै मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: मुहि कालै = काले मुंह से, (भाव,) बदनामी कमा के।2।

अर्थ: परमात्मा का डर हृदय में बसाए बिना मनुष्य लंबी उम्र भी जीता रहे और बड़ी मौजें करता रहे, तो भी, हे नानक! अगर प्रभु का डर हृदय में बसाए बिना ही मरता है, तो मुंह पे कालिख़ कमा के ही जाता है।2।

पउड़ी ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सरधा पूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु न कबहूं झूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता दुखु न जाणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता हरि रंगु माणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता जम का डरु केहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता सद ही सुखु देहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता नव निधि पाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सचि समाईऐ ॥२५॥

पद्अर्थ: सरधा = श्रद्धा, भरोसा, सिदक। दइआलु = मिहरवान, कृपालु। पूरीऐ = पूरा, पक्का।25।

अर्थ: जिस मनुष्य के ऊपर सत्गुरू कृपा करे (उसके अंदर परमात्मा पर) पक्का भरोसा बंध जाता है, वह (किसी दुख-कष्ट के आने पे) कभी गिला शिकवा नहीं करता (क्योंकि) वह (किसी आए दुख को) दुख नहीं समझता, सदा प्रभु के मेल का आनंद लेता है। (दुख-कष्ट तो कहीं रहा) उसे यम का डर भी नहीं रहता (इस तरह) उसके शरीर को सदा सुख रहता है। जिस पे गुरु दयावान हो जाए उसे (मानो) जगत में नौ खजाने मिल गए हैं। (क्योंकि) वह तो (खजानों के मालिक) सच्चे प्रभु में जुड़ा रहता है।25।

सलोकु मः १ ॥ सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी जूठा मंगि मंगि खाही ॥ फोलि फदीहति मुहि लैनि भड़ासा पाणी देखि सगाही ॥ भेडा वागी सिरु खोहाइनि भरीअनि हथ सुआही ॥ माऊ पीऊ किरतु गवाइनि टबर रोवनि धाही ॥ ओना पिंडु न पतलि किरिआ न दीवा मुए किथाऊ पाही ॥ अठसठि तीरथ देनि न ढोई ब्रहमण अंनु न खाही ॥ सदा कुचील रहहि दिनु राती मथै टिके नाही ॥ झुंडी पाइ बहनि निति मरणै दड़ि दीबाणि न जाही ॥ लकी कासे हथी फुमण अगो पिछी जाही ॥ ना ओइ जोगी ना ओइ जंगम ना ओइ काजी मुंला ॥ दयि विगोए फिरहि विगुते फिटा वतै गला ॥ जीआ मारि जीवाले सोई अवरु न कोई रखै ॥ दानहु तै इसनानहु वंजे भसु पई सिरि खुथै ॥ पाणी विचहु रतन उपंने मेरु कीआ माधाणी ॥ अठसठि तीरथ देवी थापे पुरबी लगै बाणी ॥ नाइ निवाजा नातै पूजा नावनि सदा सुजाणी ॥ मुइआ जीवदिआ गति होवै जां सिरि पाईऐ पाणी ॥ नानक सिरखुथे सैतानी एना गल न भाणी ॥ वुठै होइऐ होइ बिलावलु जीआ जुगति समाणी ॥ वुठै अंनु कमादु कपाहा सभसै पड़दा होवै ॥ वुठै घाहु चरहि निति सुरही सा धन दही विलोवै ॥ तितु घिइ होम जग सद पूजा पइऐ कारजु सोहै ॥ गुरू समुंदु नदी सभि सिखी नातै जितु वडिआई ॥ नानक जे सिरखुथे नावनि नाही ता सत चटे सिरि छाई ॥१॥

नोट: जैनीओं के गुरु ‘सरेवड़े’ अहिंसा के पुजारी थे। ताजा साफ पानी नहीं पीते कि जीव हिंसा ना हो जाए, ताजी रोटी पकाते खाते नहीं। पाखाने को फोलते हैं कि जीव पैदा ना हो जाएं। स्नान नहीं करते; बात ये कि जीव हिंसा को उन्होंने इतना वहिम बना लिया है कि बड़े गंदे रहते हैं। हरेक के हाथ में एक चउरी होती है; नंगे पांव एक कतार में चलते हैं कि कही कोई कीड़ी पांव तले आ के मर ना जाए। सबसे अगला आदमी उस चउरी से राह में आए कीड़े को परे हटा देता है। अपने हाथों से कोई काम काज नहीं करते, मांग के खाते हैं। जहां बैठते सिर लुढ़का के बैठते हैं, निक्त उदास, अंदर कोई चाव व खुशी नहीं, ऐसे उदासी डाल के बैठे रहते हैं। सो, इन्होंने इस तरह दुनिया गवा दी। पर, दीन भी नहीं संवारते। बस एक जीव हिंसा का वहिम लगाए रहते हैं। ना कोई हिन्दू मत की मर्यादा, ना कोई मुसलमानी जीवन युक्ति। ना दान ना पुण्य। ना कोई पूजा ना पाठ ना बंदगी, ईश्वर की ओर से भी गए। ये शब्द इन ‘सरवड़ों’ के बारे में है।

पद्अर्थ: मलवाणी = मैला पानी। फदीहति = (अरबी में फज़ीहत के ‘ज़’ को ‘द’ भी पढ़ा जाता है। जैसे, फ़जमल को फादल, काज़ी को कादी) पखाना। सगाही = हिचकते हैं, शर्म करते हैं। भरिअनि = भरे जाते हैं। माऊ पीऊ किरतु = माँ बाप वाला कामकाज, रोजी कमाने का काम। धाही = धाहें मार के। किथाऊ = पता नहीं कहां? कुचील = गंदे। टिके = टिक्के, तिलक। झुंडी पाइ = औंधे हो के, गर्दन गिरा के। दड़ि दीबाणि = किसी सभा दीवान में। कासे = प्याले। अगो पिछी = आगे-पीछे, एक कतार में। जंगम = शिव उपासक जो घंटिआं बजा बजा के मांगते फिरते हैं। दयि = रब द्वारा (दयु = प्यार करने वाला परमात्मा)। विगोए = गवाए हुए। विगुते = खुआर, परेशान। फिटा = फिटकारा हुआ, धिक्कारित हुआ। गला = बातें, सारा ही टोला। वंजे = टूटे हुए। भसु = स्वाह, राख। मेरु = सुमेर पर्वत। देवी = देवताओं। पुरबी = धार्मिक मेले। बाणी = कथा वारता। नाइ = नहा के। सुजाणी = निपुण। मुइआ जीवदिया = मरन जीवन प्रयन्त, सारी उम्र, जनम से मरन तक। गति = स्वच्छ हालत। वुठे = बरसात होने से। सुरही = गाएं। बिलावलु = खुशी, चाव। साधन = स्त्री। विलोवै = बिलोती है। तितु घिइ = उस घी से। पईऐ = (घी) पड़ने से, घी के उपयोग से। नदी सभि = सारे दरिया। सिखी = (गुरु की) शिक्षा। जितु = जिस में। चटे = चाटे। छाई = सुआह।1।

अर्थ: (ये सरेवड़े जीव हिंसा के वहिम में) सिर (के बाल) उखड़वा के (कि कहीं जुआं ना पड़ जाएं) मैला पानी पीते हैंऔर झूठी रोटी मांग मांग के खाते हैं। (अपने) पाखाने को फोल के मुंह में (गंदी) हवाड़ लेते हैं ओर पानी देख के (इससे) झिझकते हैं (भाव, पानी का इस्तेमाल नहीं करते)। भेड़ों की तरह सिर (के बाल) उखड़वाते हैं, (बाल उखाड़ने वालों के) हाथ राख से भरे जाते हैं। माता-पिता के किए काम (भाव, मेहनत से कमाई करके परिवार पालने का काम) छोड़ बैठते हैं (इसलिए) इनका परिवार धाहें मार के रोता है।

(ये लोक तो ऐसे ही गवाया, आगे जा के इनके परलोक का हाल सुनिए) ना तो हिन्दू मत के अनुसार (मरणोपरांत) पिण्ड पक्तल क्रिया दीआ आदि की रस्म करते हैं। मरे हुए पता नहीं कहां जा पड़ते हैं (भाव परलोक सवारने की कोई कोशश नहीं है) (हिन्दुओं के) अढ़सठ तीर्थ इन्हें कोई सहारा नहीं देते (भाव, हिन्दुओं की तरह किसी तीर्थ पर भी नहीं जाते) ब्राहमण (इनका) अंन्न नहीं खाते (भाव, ब्राहमण की भी सेवा नहीं करते)। सदा दिन रात बड़े गंदे रहते हैं। माथे पे तिलक नहीं लगाते (भाव, नहा धो के शरीर को साफ सुथरा भी नहीं करते)। सदा गर्दन गिरा के बैठे रहते हैं जैसे किसी के मरने का सोग कर रहे हैं। (भाव, इनके अंदर कोई आत्मिक हुलारा भी नहीं है।) किसी सत्संग आदि में भी कभी नहीं जाते हैं। लोगों के साथ प्याले बांधे हुए हैं, हाथों में चउरियां पकड़ी हुई हैं, और (जीव हिंसा के डर से) एक कतार में चलते हैं। ना इनकी जोगियों वाली रहुरीति, ना जंगमों वाली, ना काज़ी मौलवियों वाली। रब की ओर से (भी) टूटे हुए भटकते हैं (भाव, परमात्मा की बंदगी में भी इनकी कोई श्रद्धा नहीं) ये सारा मामला ही गड़बड़ है।

(ये बेचारे नहीं समझते कि) जीवों को मारने जिवाने वाला प्रभु खुद ही है। प्रभु के बिना कोई और इनको (जीवित) रख नहीं सकता। (जीव हिंसा के वहिम में पड़ के, मेहनत कमाई छोड़ के) ये दान व स्नान से वंचित हुए हैं। राख पड़े ऐसे भ्रमित सिर पे। (ये लोग साफ पानी नहीं पीते और पानी में नहाते भी नहीं हैं। ये यह बात नहीं समझते कि जब देवताओं ने) सुमेर पर्वत को मथानी बना के (समुंदर को बिलोया) तब (पानी में से) ही रत्न निकले थे (भाव, इस बात को तो लोग पुराने समय से ही जानते हैं कि पानी में से बेअंत कीमती पदार्थ निकलते हैं, जो मनुष्य के काम आते हैं, आखिरवह पानी में घुसने से ही निकलेंगे)। (पानी की इनायत की वजह से ही) देवताओं के वास्ते अठारह तीर्थ बनाए गए जहां पर्व लगते हैं, कथा-वारता होती है नहा के नमाज़ पढ़ी जाती है, नहा के ही पूजा होती है। स्वच्छ लोग नित्य स्नान करते हैं। सारी उम्र ही मनुष्य की स्वच्छ हालत तभी रह सकती है, अगर स्नान करे। पर, हे नानक! ये सिर फिरे ऐसी उलटी राह पर पड़े हुए हैं (ऐसे शैतान हैं कि) इन्हें स्नान वाली बात ठीक नहीं लगी।

(पानी की और बरकतें देखो) बरसात होने से (सब जीवों के अंदर) खुशी पैदा होती है। जीवों की जीवन जुगति ही (पानी में) टिकी हुई है। वर्षा होने से अन्न पैदा होता है, चारा उगता है, कपास होती है, जो सबका पर्दा बनती है। बरसात होने से ही (उगा हुआ) घास गाऐ चुगती हैं (और दूध देती हैं, उस दूध से बना) दही घर की औरत बिलोती है (और घी बनाती है), उस घी से ही सदा हवन-यज्ञ पूजा आदि होते हैं। ये घी पड़ने से ही हरेक कार्य शोभता है।

(एक और स्नान भी है) सतिगुरु (मानो) समुंदर है उसकी शिक्षा (जैसे) सारी नदियां हैं। (इस गुरु शिक्षा) में नहाने से (भाव, ध्यान जोड़ने से) बड़ाई मिलती है। हे नानक! अगर ये सिरफिरे (इस ‘नाम’ जल में) स्नान नहीं करते, तो निरा मुंह की कालख ही कमाते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh