श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 152 सरम सुरति दुइ ससुर भए ॥ करणी कामणि करि मन लए ॥२॥ पद्अर्थ: सरम = श्रम, मेहनत, उद्यम। दुइ = दोनों (उद्यम और ऊँची अक़्ल)। ससुर = ससुर और सास। करणी = उत्तम जिंदगी। कामणि = स्त्री। मन = हे मन! करि लए = (जीव) बना लिए।2। अर्थ: उद्यम और ऊँची अक़्ल, ये दोनों उस जीव-स्त्री के सास-ससुर बनें। और हे मन! अगर जीव उत्तम जिंदगी को स्त्री बना ले।2। साहा संजोगु वीआहु विजोगु ॥ सचु संतति कहु नानक जोगु ॥३॥३॥ नोट: इस शब्द में जीव-स्त्री तथा प्रभु पति के योग (मिलाप) का जिक्र है। पद्अर्थ: साहा = विवाह के लिए शोधित महूरत। संजोगु = मिलाप, सत्संग। विजोगु = दुनिया से विछोड़ा, निर्मोहता। संतति = संतान। जोगु = मिलाप, प्रभु मिलाप।3। अर्थ: अगर सत्संग (में जाना) प्रभु के साथ विवाह का साहा निहित हो (जैसे विवाह के लिए निहित हुआ साहा टाला नहीं जा सकता, वैसे सत्संग से कभी ना टूटे)। अगर (सत्संग में रह के दुनिया से) निर्मोह रूप (प्रभु से) विवाह हो जाए; तो (इस विवाह में से) सत्य (भाव, प्रभु का सदा हृदय में टिके रहना, उस जीव-स्त्री की) संतान है। हे नानक! कह: ये है (सच्चा) प्रभु मिलाप।3।3। गउड़ी महला १ ॥ पउणै पाणी अगनी का मेलु ॥ चंचल चपल बुधि का खेलु ॥ नउ दरवाजे दसवा दुआरु ॥ बुझु रे गिआनी एहु बीचारु ॥१॥ पद्अर्थ: पउणै का = हवा का। मेलु = एकत्र। चपल = किसी एक जगह ना टिकने वाली। खेलु = खेल, दौड़ भाग। नउ दरवाजे = आँख, कान, नाक, मुंह आदि नौ रास्ते। दुआरु = द्वार, दरवाजा। दसवां दुआरु = दसवां दरवाजा (जिस द्वारा बाहरले जगत से मनुष्य के अंदर की जान पहिचान बनी रहती है), दिमाग़। रे गिआनी = हे ज्ञानवान! हे आत्मिक ज्ञान की समझ वाले! बुझु = समझ ले।1। अर्थ: हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्य! (गुरु की शरण पड़ के) ये बात समझ लो (कि जब) हवा, पानी और आग (आदि तत्वो का) मिलाप होता है (तब ये शरीर बनता है, और इसमें) चंचल और चपल बुद्धि की दौड़-भाग (शुरू हो जाती है)। (शरीर के) नौ द्वार (इस दौड़ भाग में शामिल रहते हैं, सिर्फ) दिमाग़ (ही है जिससे आत्मिक जीवन की सूझ पड़ सकती है)।1। कथता बकता सुनता सोई ॥ आपु बीचारे सु गिआनी होई ॥१॥ रहाउ॥ कथता बकता = (हरेक जीव में व्यापक हो के) बोलने वाला। सुनता = सुनने वाला।सोई = वह (परमात्मा) ही। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को, अपने असल को। बीचारे = विचारता है, याद रखता है, पड़तालता है। सु = वह मनुष्य। गिआनी = ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) अपने आत्मिक जीवन का विष्लेशण करता रहता है वह मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ वाला हो जाता है। (उसे ये समझ आ जाती है कि) वह परमात्मा ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) बोलने वाला, सुनने वाला है।1। रहाउ। देही माटी बोलै पउणु ॥ बुझु रे गिआनी मूआ है कउणु ॥ मूई सुरति बादु अहंकारु ॥ ओहु न मूआ जो देखणहारु ॥२॥ पद्अर्थ: देही माटी = मिट्टी आदि तत्वों से बना शरीर। बोलै पउणु = श्वास चल रहा है। मूआ कउणु = (गुरु को मिल के) कौन मरता है? सुरति = माया की ओर खींच। बादु = (माया की खातिर) विवाद, झगड़ा। ओहु = वह (जीवात्मा)।2। अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! इस बात को समझ (कि जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तो मनुष्य के अंदर सिर्फ स्वैभाव की मौत होती है, वैसे) और कुछ नहीं मरता। मिट्टी आदि तत्वों से बने इस शरीर में श्वास चलता ही रहता है। (हां, गुरु को मिलने से मनुष्य के अंदर से माया के प्रति) आकर्षण खत्म हो जाता है। (माया की खातिर मन का) झगड़ा समाप्त हो जाता है। (मनुष्य के अंदर से माया का) अहंकार मर जाता है। पर, वह (आत्मा) नहीं मरती जो सबकी संभाल करने वाले परमात्मा का अंश है।2। जै कारणि तटि तीरथ जाही ॥ रतन पदारथ घट ही माही ॥ पड़ि पड़ि पंडितु बादु वखाणै ॥ भीतरि होदी वसतु न जाणै ॥३॥ पद्अर्थ: जै कारणि = जिस (रत्न पदार्थ) के खातिर। तटि = किनारे पर। तटि तीरथ = तीर्थों के तट पर। जाही = जाते हैं। घट ही माही = हृदय में ही। पढ़ि = पढ़ के। बादु = विवाद, चरचा। वखाणै = उच्चरता है। भीतरि = हृदय में ही, अंदर ही।3। अर्थ: हे भाई! जिस (नाम-रत्न) की खातिर लोग तीर्थों के तट पर जाते हैं, वह कीमती रत्न (मनुष्य के) हृदय में ही बसता है। (वेद आदि पुस्तकों का विद्वान) पण्डित (वेद आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़ पढ़ के (भी) चर्चा करता रहता है। वह पण्डित (अपने) अंदर बसे हुए नाम-पदार्थ से सांझ नहीं पाता।3। हउ न मूआ मेरी मुई बलाइ ॥ ओहु न मूआ जो रहिआ समाइ ॥ कहु नानक गुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ मरता जाता नदरि न आइआ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: हउ = मैं, जीवात्मा। बलाइ = बला, ममता रूपी चुड़ैल। गुरि = गुरु ने। जाता = पैदा होताहै।4। अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा के दर्शन करा दिए, उसे दिखाई देने लगता है कि प्रभु पैदा होता मरता नहीं। (उसे) ये दिखाई देने लगता है कि जीवात्मा मरती नहीं। (मनुष्य के अंदर से) माया की ममता रूपी चुड़ैल ही मरती है। सब जीवों में व्यापक परमात्मा कभी नहीं मरता।4।4। गउड़ी महला १ दखणी ॥ सुणि सुणि बूझै मानै नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ आपि भुलाए ठउर न ठाउ ॥ तूं समझावहि मेलि मिलाउ ॥१॥ पद्अर्थ: सुणि सुणि = (“साचे गुर की साची सीख”) सुन सुन के। बूझै = (जो मनुष्य उस “सीख” को) समझता है। मानै = मान लेता है, यकीन कर लेता है (कि ‘नाम’ ही सच्चा व्यापार है)। मेलि = (“साचे गुर की साची सीख” में) जोड़ के। मिलाउ = मिलाप।1। अर्थ: जो मनुष्य (“साचे गुर की साची सीख”) सुन सुन के उसको विचारता समझता है और ये यकीन बना लेता है कि परमात्मा का नाम ही असल वणज-व्यापार है, मैं उससे सदा सदके जाता हूँ। जिस मनुष्य को प्रभु (इस ओर से) तोड़ देता है, उसे कोई और (आत्मिक) सहारा नहीं मिल सकता। हे प्रभु! जिसे तू स्वयं बख्शे, उसे तू (गुरु की शिक्षा में) मेल के (अपने चरणों का) मिलाप (बख्शता है)।1। नामु मिलै चलै मै नालि ॥ बिनु नावै बाधी सभ कालि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै नालि = (जगत से चलने के समय) मेरे साथ (जब, और सब कुछ यहीं रह जाएगा)। कालि = काल में, मौत के डर में। बाधी = बंधी हुई, जकड़ी हुई।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मेरी यही अरदास है (कि मुझे तेरा) नाम मिल जाए, (तेरा नाम ही जगत से जाते समय) मेरे साथ जा सकता है। तेरा नाम स्मरण के बिना सारी लुकाई मौत के सहम में जकड़ी हुई है।1। रहाउ। खेती वणजु नावै की ओट ॥ पापु पुंनु बीज की पोट ॥ कामु क्रोधु जीअ महि चोट ॥ नामु विसारि चले मनि खोट ॥२॥ पद्अर्थ: बीज का पोट = बीज की पोटली (नोट: जो भी अच्छा बुरा कर्म मनुष्य करता है, उसका संस्कार मन में टिक जाता है। वह संस्कार भविष्य में वैसे ही और कर्म करने को प्रेरित करता है। सो, वह किया हुआ अच्छा-बुरा कर्म बीज का काम देता है। जैसा बीज बीजें, वैसा फल तैयार हो जाता है)। पद्अर्थ: जीअ महि = (जो मनुष्यों के) हृदय में। चले = (जगत में से) चले जाते हैं। मनि = मन में (खोट विकार)।2। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का आसरा (इस तरह लो जैसे) खेती को, व्यापार को अपने शारीरिक निर्वाह का सहारा बनाते हो। (कोई भी किया हुआ) पाप या पुन्न कर्म (हरेक जीव के लिए भविष्य के लिए) बीज की पोटली बन जाता है। (वह अच्छा-बुरा किया कर्म मन के अंदर संस्कार रूप में टिक के वैसे कर्म करने के लिए प्रेरणा करता रहता है)। जिस लोगों के हृदय में (प्रभु के नाम की जगह) काम-क्रोध (आदि विकार) चोट मारते रहते हैं (प्रेरित करते रहते हैं) वे लोग प्रभु का नाम विसार के (यहां) मन में (विकारों की) खोट लेकर ही चले जाते हैं।2। साचे गुर की साची सीख ॥ तनु मनु सीतलु साचु परीख ॥ जल पुराइनि रस कमल परीख ॥ सबदि रते मीठे रस ईख ॥३॥ पद्अर्थ: परीख = परख, पहिचान। पुराइनि = चौपक्ती। रस कमल = जल का कमल फूल। रस ईख = गन्ने का रस।3। अर्थ: जिस लोगों को सच्चे सतिगुरु की सच्ची शिक्षा प्राप्त होती है, उनका मन शांत रहता है (भाव, उनकी ज्ञाने्रद्रियां विकारों से बची रहती हैं)। वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पहिचान लेते हैं (सांझ पा लेते हैं)। जैसे पानी की चौपक्ति, पानी का कमल फूल (पानी के बिना जीवित नहीं रह सकते, वैसे ही उनकी जिंद प्रभु नाम का विछोड़ा बर्दाश्त नहीं कर सकती)। वे गुरु के शब्द में रंगे रहते हैं, वे मीठे स्वाभाव वाले होते हैं, जैसे गन्ने का रस मीठा है।3। हुकमि संजोगी गड़ि दस दुआर ॥ पंच वसहि मिलि जोति अपार ॥ आपि तुलै आपे वणजार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥५॥ पद्अर्थ: हुकमि = प्रभु के हुक्म में। संजोगी = संजोगों अनुसार, पूर्वले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। गढ़ि = गढ़ में, शरीर रूपी किले में। दस दुआरि गढ़ि = दसों द्वारों वाले शरीर रूपी गढ़ में। पंच = संत जन। मिलि = मिल के। तुलै = तुलता है। आपे = स्वयं ही। वणजार = व्यापारी। नामि = नाम में (जोड़ के)।4। अर्थ: प्रभु के हुक्म में पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार संत जन अपार प्रभु की ज्योति से मिल के इस दस-द्वारी शरीर-किले में बसते हैं (काम क्रोध आदि कोई विकार इस किले में उनपे चोट नहीं करता। उनके अंदर) प्रभु खुद (नाम-वस्तु) बन के वणजित हो रहा है, और, हे नानक! (उन संत जनों को) अपने नाम में जोड़ के (खुद ही) उनका जीवन उत्तम बनाता है।4।5। नोट: इस शब्द के शीर्षक को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है। शब्द ‘दखणी’ को ‘गउड़ी’ के साथ इस्तेमाल करना है। रागनी ‘गउड़ी’ की ‘दखणी’ किस्म है। इसी तरह पन्ना 929 पर शीर्षक है “रामकली महला १ दखणी ओअंकारु”। यहां भी शब्द ‘दखणी’ को शब्द ‘रामकली’ के साथ प्रयोग करना है। वाणी का नाम है “ओअंकारु”। “दखणी ओअंकारु” कहना गलत है। गउड़ी महला १ ॥ जातो जाइ कहा ते आवै ॥ कह उपजै कह जाइ समावै ॥ किउ बाधिओ किउ मुकती पावै ॥ किउ अबिनासी सहजि समावै ॥१॥ पद्अर्थ: जातो जाइ = (कैसे) जाना जाए, कैसे समझा जाए? (“तेरा कीता जातो नाही”)। कह उपजै = कहां से पैदा होती है (कामना)? किउ बाधियो = कैसे (कामना में) बंध जाता है? मुकती = खलासी, आजादी। अबिनासी सहजि = अटल सहज में, सदा स्थिर रहने वाली अडोल अवस्था में।1। अर्थ: (पर) ये कैसे समझ आए कि (यह वासना) कहां से आती है, (वासना) कहां से पैदा होती है, कहां जा के समाप्त हो जाती है? मनुष्य कैसे इस वासना में बंध जाता है? कैसे इससे मुक्ति हासिल करता है? (मुक्ति पा के) कैसे अटल अडोल अवस्था में टिक जाता है?।1। नामु रिदै अम्रितु मुखि नामु ॥ नरहर नामु नरहर निहकामु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। नरहर नामु = परमातमा का नाम। निहकामु = कामना रहित, वासना रहित।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-अमृत बसता है, जो मनुष्य मुंह से प्रभु का नाम उचारता है, वह प्रभु का नाम ले के प्रभु की तरह कामना रहित (वासना रहित) हो जाता है।1। रहाउ। सहजे आवै सहजे जाइ ॥ मन ते उपजै मन माहि समाइ ॥ गुरमुखि मुकतो बंधु न पाइ ॥ सबदु बीचारि छुटै हरि नाइ ॥२॥ पद्अर्थ: सहजे = कुदरती नियम अनुसार। आवै = (वासना) पैदा होती है। मन ते = मन से। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है। मुकतो = वासना से मुक्त। बंधु = वासना की कैद। बीचारि = विचार के। नाइ = नाम के द्वारा।2। अर्थ: (गुरु के सन्मुख होने से ये समझ आती है कि) वासना कुदरती नियम अनुसार पैदा हो जाती है। कुदरती नियम अनुसार ही समाप्त हो जाती है। (मनमुखता की हालत में) मन से पैदा होती है (गुरु के सन्मुख होने से) मन में ही खत्म हो जाती है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह वासना से बचा रहता है। वासना (उसके राह में) रुकावट नहीं डाल सकती। गुरु के शब्द को विचार के वह मनुष्य प्रभु के नाम के द्वारा वासना (के जाल) में से बच जाता है।2। तरवर पंखी बहु निसि बासु ॥ सुख दुखीआ मनि मोह विणासु ॥ साझ बिहाग तकहि आगासु ॥ दह दिसि धावहि करमि लिखिआसु ॥३॥ पद्अर्थ: तरवर पंखी बहु = वृक्षों पे अनेक पंछी। निसि = रात के समय। विणासु = आत्मिक मौत। साझ = शाम। बिहाग = सवेर। तकहि = देखते हैं। दहदिसि = दसों ओर। करमि = किए कर्मों के अनुसार। करमि लिखिआसु = किए कर्मों के अनुसार जो संस्कार मन में उकरे हुए होते हैं।3। अर्थ: (जैसे) रात को अनेक पक्षी पेड़ों पर बसेरा कर लेते हैं (वैसे ही जीव जगत में रैन-बसेरे के लिए आते हैं), कोई सुखी है कोई दुखी है। कईयों के मन में माया का मोह बन जाता है और वे आत्मिक मौत गले लगा लेते हैं। पक्षी शाम को पेड़ों पर आ टिकते हैं, सवेरे आकाश को देखते हैं (उजाला देख के) दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही जीव किए कर्मों के सेंस्कारों के अनुसार दसों दिशाओं में भटकते फिरते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |