श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 153

नाम संजोगी गोइलि थाटु ॥ काम क्रोध फूटै बिखु माटु ॥ बिनु वखर सूनो घरु हाटु ॥ गुर मिलि खोले बजर कपाट ॥४॥

पद्अर्थ: नाम संजोगी = नाम की सांझ बनाने वाले। गोइलि = गोइल में। थाटू = स्थान। गोइल = नदी के किनारे का वह हरियाली जगह, जहां सूखे के समय लोग अपने मवेशियों को हरा घास चराने के लिए लाते थे। ये प्रबंध आरजी होता था, क्योंकि जब बरसात वगैरा होती थी तो लोग अपने-अपने घरों को वापस चले जाते थे। बिखु माटु = विषौला मटका। फूटै = फूट जाता है। सूनो = सूना, सन्नाटा। हाटु = हाट, हृदय। गुर मिलि = गुरु को मिल के। बजर = करड़े। कपाट = किवाड़, भित्त।4।

अर्थ: जैसे मुश्किल आने पे (सूखे की हालत में) लोग दरियाओं के किनारे हरियाली वाली जगहें में कुछ दिनों का ठिकाना बना लेते हैं, वैसे ही प्रभु के नाम के साथ सांझ पाने वाले लोग जगत में चंद-रोजा ठिकाने की हकीकत को समझते हैं। उनके अंदर से काम-क्रोध के विषौला मटका टूट जाता है (भाव, उनके अंदर कामादिक विकार जोर नहीं डालते)। जो मनुष्य नाम-वस्तु से वंचित रहते हैं उनकी हृदय रूपी हाट (दुकान) खाली रहती है (उनके खाली हृदय-घर को जैसे ताले लगे रहते हैं)। गुरु को मिल के वह करड़े किवाड़ खुल जाते हैं।4।

साधु मिलै पूरब संजोग ॥ सचि रहसे पूरे हरि लोग ॥ मनु तनु दे लै सहजि सुभाइ ॥ नानक तिन कै लागउ पाइ ॥५॥६॥

पद्अर्थ: साधु = गुरु। पूरब संजोग = पूर्वले किए कर्मों के संस्कार उघड़ने से। सचि = सत्य में, सदा स्थिर प्रभु में। रहसे = खिड़े हुए, प्रसन्न। दे = दे कर, अर्पण करके। लै = (जो) लेते हैं (नाम)। सहजि = सहज में, अडोलता में (टिक के)। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)। लागउ = मैं लगता हूं। पाइ = पैरों पे।5।

अर्थ: जिस मनुष्यों को पूर्बले किए कर्मों के संस्कार अंकुरित होने से गुरु मिलता है, वे पूरे पुरुष सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के खिले रहते हैं।

हे नानक! (कह:) जो मनुष्य, मन गुरु के हवाले करके, शरीर गुरु के हवाले करके, अडोलता में टिक के, प्रेम में जुड़ के (नाम की दाति गुरु से) लेते हैं, मैं उनके चरणों में नत्मस्तक होता हूँ।5।6।

गउड़ी महला १ ॥ कामु क्रोधु माइआ महि चीतु ॥ झूठ विकारि जागै हित चीतु ॥ पूंजी पाप लोभ की कीतु ॥ तरु तारी मनि नामु सुचीतु ॥१॥

पद्अर्थ: झूठ विकारि = झूठ बोलने का विकार। जागै = तत्पर हो जाता है। हित = मोह, आकर्षण। जागै हित = प्रेरणा होती है, खीच पड़ती है। तरु = तुलहा। तारी = बेड़ी, नाव। सुचीतु = चिक्त को पवित्र करने वाला।1।

अर्थ: (मेरे अंदर) काम (प्रबल) है, क्रोध (प्रबल) है। मेरा चिक्त माया में (मगन रहता) है। झूठ बोलने की बुराई में मेरा हित जागता है मेरा चिक्त तत्पर होता है। मैंने पाप व लोभ की राशि पूंजी एकत्र की हुई है। (तेरी मेहर से अगर मेरे) मन में तेरा पवित्र करने वाला नाम (बस जाए तो यही मेरे लिए) तुलहा है, बेड़ी है।1।

वाहु वाहु साचे मै तेरी टेक ॥ हउ पापी तूं निरमलु एक ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वाहु = आश्चर्य। निरमलु = पवित्र। तूं एक = सिर्फ तू ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले प्रभु! तू आश्चर्य है तू आश्चर्य है। (तेरे जैसा और कोई नहीं); (कामादिक विकारों से बचने के लिए) मुझे सिर्फ तेरा ही आसरा है। मैं पापी हूँ, सिर्फ तू ही पवित्र करने के समर्थ है।1। रहाउ।

अगनि पाणी बोलै भड़वाउ ॥ जिहवा इंद्री एकु सुआउ ॥ दिसटि विकारी नाही भउ भाउ ॥ आपु मारे ता पाए नाउ ॥२॥

पद्अर्थ: भड़वाउ = भैड़ा वाक्य, बुरे बोल। एक सुआउ = एक-एक चस्का। दिसटि = दृष्टि, नजर, रूची। विकारी = विकार भरी रूची वाला। आपु = स्वैभाव।2

अर्थ: (जीव के अंदर कभी) आग (का जोर पड़) जाता है (कभी) पानी (प्रबल हो जाता) है (इस वास्ते ये) गर्म-सर्द बोल बोलता रहता है। जीभ आदि हरेक इंद्रिय को अपना अपना चस्का (लगा हुआ) है। निगाहें विकारों में रहती हैं। (मन में) ना डर है ना प्रेम है (ऐसी हालत में प्रभु का नाम कैसे मिले?)। जीव अहम्भाव को कम करे, तो ही परमात्मा का नाम प्राप्त कर सकता है।2।

सबदि मरै फिरि मरणु न होइ ॥ बिनु मूए किउ पूरा होइ ॥ परपंचि विआपि रहिआ मनु दोइ ॥ थिरु नाराइणु करे सु होइ ॥३॥

पद्अर्थ: मरै = स्वैभाव को मार ले, विनम्र। मरणु = आत्मिक मौत। पूरा = पूर्ण, मुकम्मल, त्रुटि रहित। परपंच = परपंच में, जगत खेल में। दोइ = द्वैत में, मेर तेर में। थिरु = स्थिर, अडोल चिक्त। सु = वह मनुष्य।3।

अर्थ: जब मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के अहम् भाव को खत्म करता है, तो उसे आत्मिक मौत नहीं होती। स्वैभाव के खत्म हुए बिना मनुष्य पूर्ण नहीं हो सकता। (कमियों से बच नहीं सकता, बल्कि) मन माया के छल के द्वैत में फंसा रहता है। (जीव के भी क्या वश?) जिसको परमात्मा खुद अडोल चिक्त करता है वही होता है।3।

बोहिथि चड़उ जा आवै वारु ॥ ठाके बोहिथ दरगह मार ॥ सचु सालाही धंनु गुरदुआरु ॥ नानक दरि घरि एकंकारु ॥४॥७॥

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज में, नाम जहाज में। वार = वारी, अवसर। ठाके = रोके हुए। सालाही = मैं सलाह सकता हूँ, स्तुति। धंनु = (excellent) श्रेष्ठ। दरि = (गुरु के) दर पे (गिरने से)। घरि = हृदय में।4।

अर्थ: मैं (प्रभु के नाम) जहाज में (तभी) चढ़ सकता हूँ, जब (उसकी मेहर से) मुझे बारी मिले। जिस लोगों को नाम जहाज पर चढ़ना नहीं नसीब होता, उन्हें प्रभु की दरगाह में खुआरी मिलती है (धक्के पड़ते है, प्रभु का दीदार नसीब नहीं होता)। (असल बात ये है कि) गुरु का दर सबसे श्रेष्ठ है। (गुरु के दर पर रह के ही) मैं परमात्मा की महिमा कर सकता हूँ। हे नानक! (गुरु के) दर पे रहने से हृदय में परमात्मा के दर्शन होते हैं।4।7।

गउड़ी महला १ ॥ उलटिओ कमलु ब्रहमु बीचारि ॥ अम्रित धार गगनि दस दुआरि ॥ त्रिभवणु बेधिआ आपि मुरारि ॥१॥

पद्अर्थ: उलटिओ = वापस आया है, माया के मोह से पलटा है। कमलु = हृदय कमल। ब्रहमु बीचारि = ब्रहम को विचार के, परमात्मा के महिमा में चिक्त जोड़ने से। अंम्रित धार = अमृत की धारा, नाम अमृत की वर्षा। गगनि = गगन में, आकाश में, चिक्त रूपी आकाश में, चिदाकाश में। दस दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग में। अम्रितधार दस दुआरि = दिमाग़ में नाम की वर्षा होती है, दिमाग़ में ठंड पड़ती है (भाव, दिमाग़ में पहले दुनिया के झमेलों की उलझन थी, महिमा की इनायत से शांत हो गई)। त्रिभवणु = तीन भवन, सारा संसार। बेधिआ = बेध दिया, व्यापक। मुरारि = (मुर का अरी) परमात्मा।1।

अर्थ: परमात्मा की महिमा में चिक्त जोड़ने से हृदय कमल माया के मोह की तरफ से हट जाता है। दिमाग़ में भी (महिमा की इनायत से) नाम अमृत की वर्षा होती है (और माया वाले झमेलों की अशांति मिट के ठण्ड पड़ जाती है)। (फिर दिल को भी और दिमाग को भी ये यकीन हो जाता है कि) प्रभु खुद सारे जगत (के जर्रे-जर्रे) में मौजूद है।1।

रे मन मेरे भरमु न कीजै ॥ मनि मानिऐ अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरमु = भटकना, माया की दौड़ भाग। मनि मानीऐ = अगर मन मान जाए, अगर मन नाम रस में टिक जाए। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीजै = पी लेते हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! (माया की खातिर) भटकना छोड़ दे (और प्रभु की महिमा में जुड़)। (हे भाई!) जब मन को परमात्मा की महिमा अच्छी लगने लग पड़ती है, तब ये महिमा का स्वाद लेने लग पड़ता है।1। रहाउ।

जनमु जीति मरणि मनु मानिआ ॥ आपि मूआ मनु मन ते जानिआ ॥ नजरि भई घरु घर ते जानिआ ॥२॥

पद्अर्थ: जीति = जीत के। जनमु जीति = जनम जीत के, मानव जनम का उद्देश्य हासिल करके। मरणि = मरने में, स्वार्थ की मौत में। मनु मानिआ = मन पतीज जाता है। मरणि मनु मानिआ = अहम् की मौत में मन पतीज जाता है, मन को ये बात पसंद आ जाती है कि स्वार्थ ना रहे। आपि = स्वै भाव की ओर से। मन ते = मन से, अंदर से ही। जानिआ = समझ आ जाती है। नजरि = प्रभु के मेहर की नजर। घरु = परमात्मा का ठिकाना, प्रभु चरणों में टिकाव। घर ते = घर से, हृदय में ही।2।

अर्थ: (महिमा में जुड़ने से) जनम उद्देश्य प्राप्त करके मन को स्वार्थ का समाप्त हो जाना पसंद आ जाता है। इस बात की सूझ मन के अंदर ही पड़ जाती है कि स्वैभाव समाप्त हो गया है। जब प्रभु की मेहर की नजर होती है तो हृदय में ही ये अनुभव हो जाता है कि तवज्जो प्रभु चरणों में जुड़ी हुई है।2।

जतु सतु तीरथु मजनु नामि ॥ अधिक बिथारु करउ किसु कामि ॥ नर नाराइण अंतरजामि ॥३॥

पद्अर्थ: जतु = इंद्रियों को रोकना। सतु = पवित्र आचरण। मजनु = चुभ्भी, स्नान। नामि = नाम में। अधिक = बहुत। कराउ = कराऊँ, मैं करूँ। किसु कामि = किस काम के लिए? किस लिए? नर नाराइणु = परमात्मा। अंतरजामि = दिलों की जानने वाला।3।

अर्थ: परमात्मा के नाम में जुड़ना ही जत, सत व तीर्थ स्नान (का उद्यम) है। मैं (जत-सत आदि वाला) बहुत फैलाव भी क्यूँ फैलाऊँ? (ये सारे उद्यम तो लोक-दिखावे के ही हैं), और परमात्मा हरेक के दिल की जानता है।3।

आन मनउ तउ पर घर जाउ ॥ किसु जाचउ नाही को थाउ ॥ नानक गुरमति सहजि समाउ ॥४॥८॥

पद्अर्थ: आन = कोई और (आसरा)। मनउ = अगर मैं मानूँ। पर घरि = दूसरे घर में, किसी और जगह। जाउ = जाऊँ, मैं जाऊँ। जाचउ = मैं मांगू। सहजि = सहज में, अडोलता में। समाउ = मैं लीन होता हूँ।4।

अर्थ: (माया वाली भटकना मिटाने के लिए प्रभु दर के बिना और कोई जगह नहीं, सो) मैं तभी किसी और जगह जाऊँ अगर मैं (प्रभु के बिना) कोई और जगह मान ही लूँ। कोई और जगह है ही नहीं, मैं किससे ये मांग मांगू (कि मेरा मन भटकने से हट जाए)? हे नानक! (मुझे यकीन है कि गुरु का उपदेश हृदय में बसा के) उस आत्मिक अवस्था में लीन रह सकते हैं (जहां माया वाली भटकना का अस्तित्व नहीं है) जहां अडोलता है।4।8।

गउड़ी महला १ ॥ सतिगुरु मिलै सु मरणु दिखाए ॥ मरण रहण रसु अंतरि भाए ॥ गरबु निवारि गगन पुरु पाए ॥१॥

पद्अर्थ: सु मरणु = वह मौत, (विकारों की ओर से) वह मौत। मरणु दिखाए = विकारों की ओर से मौत दिखा देता है, विकारों की ओर से मौत जिंदगी के तजरबे में ला देता है। मरणु रसु = (जिस) मौत का आनंद, विकारों की ओर से जिस मौत का आनंद। अंतरि = हृदय में। भाए = प्यारा लगता है। गरबु = अहंकार, (धरती के पदार्थों का) अहंकार। गगन पुर = आकाश का शहर, वह शहर जहाँ तवज्जो आकाश में चढ़ी रहे, वह आत्मिक अवस्था जहाँ तवज्जो ऊँची आत्मिक उड़ान लगाती रहे।1।

अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है उसे वह मौत दिखा देता है (उसकी जीवनशैली में विकारों की मौत हो जाती है) जिस मौत का आनंद (और उससे पैदा हुए) चिरंकाल का आत्मिक जीवन आनंद उस मनुष्य को अपने हृदय में प्यारा लगने लगता है। वह मनुष्य (शरीर आदि का) अहंकार दूर करके वह आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है जहाँ तवज्जो ऊँची उड़ाने लगाती रहे।1।

मरणु लिखाइ आए नही रहणा ॥ हरि जपि जापि रहणु हरि सरणा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मरणु = मौत, शरीर की मौत। नही रहणा = शारीरिक तौर पर सदा टिके नहीं रहना। जपि = जप के स्मरण करके। जापि = जाप करके। रहणु = रिहाइश, सदीवी आत्मिक जीवन, सदा की रहाइश।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! सारे जीव शारीरिक) मौत रूपी हुक्म (प्रभु की हजूरी में से) लिखा के पैदा होते हैं। (भाव, यही ईश्वरीय नियम है कि जो पैदा होता है उसने मरना भी जरूर है)। सो, यहां शारीरिक तौर पर किसी ने सदा नहीं टिके रहना। (हां) प्रभु की महिमा करके, प्रभु की शरण में रह के सदीवी आत्मिक जीवन मिल जाता है।1। रहाउ।

सतिगुरु मिलै त दुबिधा भागै ॥ कमलु बिगासि मनु हरि प्रभ लागै ॥ जीवतु मरै महा रसु आगै ॥२॥

पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन, मेर तेर। कमलु = हृदय का कमल फूल। बिगासि = खिल के। जीवतु = जीवित ही, दुनिया के कार व्यवहार करते हुए ही। मरै = माया के मोह की ओर से मरे (निर्मोही)। आगै = सामने, प्रत्यक्ष।2।

अर्थ: अगर सतिगुरु मिल जाए, तो मनुष्य की दुबिधा दूर हो जाती है। हृदय का कमल फूल खिल के उसका मन प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है। मनुष्य दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा रहता है। उसे प्रत्यक्ष तौर पर परमात्मा के स्मरण का महा आनंद अनुभव होता है।2।

सतिगुरि मिलिऐ सच संजमि सूचा ॥ गुर की पउड़ी ऊचो ऊचा ॥ करमि मिलै जम का भउ मूचा ॥३॥

पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए। सच संजमि = सत्य के संयम में (रह के)। सूचा = पवित्र। पउड़ी = स्मरण रूपी सीढ़ी। ऊचो ऊची = ऊँचा ही ऊँचा। करमि = प्रभु की मेहर से। मूचा = समाप्त हो जाता है।3।

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य नाम जपने की जुगति में रह कर पवित्र आत्मा बन जाता है। गुरु की बताई हुई सीढ़ी के सहारे (आत्मिक जीवन में) ऊँचा ही ऊँचा होता जाता है। (पर, ये स्मरण प्रभु की) मेहर से मिलता है, (जिसे मिलता है उसका) मौत का डर उतर जाता है।3।

गुरि मिलिऐ मिलि अंकि समाइआ ॥ करि किरपा घरु महलु दिखाइआ ॥ नानक हउमै मारि मिलाइआ ॥४॥९॥

पद्अर्थ: मिलि = (प्रभु की याद में) मिल के, जुड़ के। अंकि = प्रभु के अंक में, प्रभु के चरणों में। महलु = प्रभु का निवास स्थान, वह अवस्था जहां प्रभु का मिलाप हो जाए। मारि = मार के।4।

अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ के प्रभु के चरणों में लीन हुआ रहता है। गुरु मेहर करके उसे वह आत्मिक अवस्था दिखा देता है जहां प्रभु का मिलाप हुआ रहे। हे नानक! उस मनुष्य के अहम् को दूर करके गुरु उसको प्रभु से एक-मेक कर देता है।4।9।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh