श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 154 गउड़ी महला १ ॥ किरतु पइआ नह मेटै कोइ ॥ किआ जाणा किआ आगै होइ ॥ जो तिसु भाणा सोई हूआ ॥ अवरु न करणै वाला दूआ ॥१॥ पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम, जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों के समूह। पइआ = जो मन में इकट्ठा हुआ पड़ा है। किआ जाणा = मैं क्या समझ सकता हूँ? (कोई नहीं समझ सकता)। आगै = आने वाले जीवन काल में। किआ होइ = क्या होगा? 1। अर्थ: जन्मों-जन्मांतरों के किए संस्कारों के समूह जो मन में इकट्ठे हुए पड़े हैं (कर्मों के द्वारा) कोई मनुष्य मिटा नहीं सकता। (इसी तरह आगे के लिए भी कर्म-धर्म के अच्छे नतीजों की आस व्यर्थ है) कोई समझ नहीं सकता कि आने वाले जीवनकाल में क्या घटित होगा। (कर्मों का आसरा छोड़ो, प्रभु की रजा में चलना सीखो) जगत में जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है। प्रभु के बिना और कोई कुछ करने वाला नहीं है (उसी की भक्ति करो)।1। ना जाणा करम केवड तेरी दाति ॥ करमु धरमु तेरे नाम की जाति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ना जाणा करम = मैं अपने (पिछले किए) कर्म नहीं समझ सकता (कर्मों की सही कीमत नही पा सकता, मैं किए कर्मों को ज्यादा महत्वता दे रहा हूँ)। ना जाणा केवड तेरी दाति = हे प्रभु! तेरी कितनी ही बेअंत दातें मुझे मिल रही हैं, उनको मैं नहीं समझ सकता।1। रहाउ। अर्थ: मैं अपने किए कर्मों की ठीक कीमत नहीं जानता (मैं इन्हें बहुत महत्व देता हूँ), (दूसरी तरफ, हे प्रभु!) तेरी बेअंत दातें मुझे मिल रहीं हैं, उन्हें भी मैं नहीं समझ सकता (ये ख्याल मेरी भारी भूल है कि मेरे किए कर्मों के अनुसार मुझे मिल रहा है, ये तो पूरी तरह से तेरी मेहर है मेहर)। तेरा नाम ही मेरी जात है, तेरा नाम ही मेरा कर्म-धर्म है (मुझे तेरे नाम की ही ओट है। ना मान है किसी किए कर्म-धर्म का, ना किसी ऊँची जाति का)।1। रहाउ। तू एवडु दाता देवणहारु ॥ तोटि नाही तुधु भगति भंडार ॥ कीआ गरबु न आवै रासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥२॥ पद्अर्थ: एवडु = इतना बड़ा। भंडार = खजाने। न आवै रासि = रास नहीं आता, फबता नहीं, कुछ सवार नहीं सकता। पिंडु = शरीर। तेरै पासि = तेरे हवाले, तेरे आसरे।2। अर्थ: हे प्रभु! तू दातें देने वाला इतना बड़ा दाता है (भक्ति की दात भी तू स्वयं ही देता है) तेरे खजानों में भक्ति (की दात) की कोई कमी नहीं है, (अपने किसी अच्छे आचरण के बारे में मनुष्य का) किया हुआ अहंकार कुछ सवार नहीं सकता। मनुष्य की जीवात्मा और शरीर सब कुछ तेरे आसरे ही है। (जैसे तू शरीर की परवरिश के लिए रोजी देता है, वैसे ही जीवात्मा को भी भक्ति की खुराक देने वाला तू ही है)।2। तू मारि जीवालहि बखसि मिलाइ ॥ जिउ भावी तिउ नामु जपाइ ॥ तूं दाना बीना साचा सिरि मेरै ॥ गुरमति देइ भरोसै तेरै ॥३॥ पद्अर्थ: मरि = मेरा स्वैभाव मार के। जीवालहि = तू आत्मिक जीवन देता है। बखशि = बख्श के, मेहर करके। मिलाइ = (अपने चरणों में) जोड़ के। जिउ भावी = जैसे तूझे ठीक लगता है। जपाइ = जपा के। दाना = (मेरे दिल की) जानने वाला। बीना = (मेरे कामों को) देखने वाला। सियति = सिर पर। देइ = दे के।3। अर्थ: (हे प्रभु!) तू खुद ही मुझे गुरु की मति दे के, मेरे पर मेहर करके मुझे अपने चरणों में जोड़ के, मेरा स्वैभाव मार के, और जैसे तूझे ठीक लगता है मुझे अपना नाम जपा के मुझे आत्मिक जीवन देता है। तू मेरे दिल की जानता है, तू (मेरी हालत) देखता है, तू मेरे सिर पर (रक्षक) है। मैं सदा तेरे ही आसरे हूँ (मुझे अपने किसी कर्म का आसरा नहीं है)।3। तन महि मैलु नाही मनु राता ॥ गुर बचनी सचु सबदि पछाता ॥ तेरा ताणु नाम की वडिआई ॥ नानक रहणा भगति सरणाई ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: श्राता = रंगा हुआ। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। ताणु = ताकत, आसरा।4। अर्थ: (हे प्रभु!) जिनका मन (तेरे प्यार में) रंगा हुआ है, उनके शरीर में विकारों की मैल नहीं। गुरु के वचन पर चल के गुरु के शब्द में जुड़ के उन्होंने तूझे सदा कायम रहने वाले को पहचान लिया है (तेरे साथ सांझ डाल ली है), (कर्मों का आसरा लेने की जगह) उन्हें तेरे नाम का ही आसरा है, वे सदा तेरे नाम की ही उपमा करते हैं। हे नानक! (कह:) वे मनुष्य प्रभु की भक्ति में रते रहते हैं, वे प्रभु की शरण में रहते हैं।4।10। गउड़ी महला १ ॥ जिनि अकथु कहाइआ अपिओ पीआइआ ॥ अन भै विसरे नामि समाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव) ने। अकथु = (वह प्रभु) जिसके सारे गुण बयान ना हो सकें। कहाइआ = कहा और कहाया, खुद स्मरण किया व और लोगों को स्मरण करने की प्रेरणा की। अपिओ = अमृत नाम। पाआइआ = पीया और पिलाया, खुद पीया व और लोगों को पिलाया। अन भै = (दुनिया वाले) और-और डर।1। अर्थ: (गुरु के शब्द में जुड़ के) जिस मनुष्य ने अकथ प्रभु को (खुद स्मरण किया है और) और लोगों को स्मरण के लिए प्रेरित किया है। उसने खुद नाम-अमृत पीया है तथा और लोगों को भी पिलाया है। उसे (दुनिया वाले) और सारे सहम भूल जाते हैं क्योंकि वह (सदैव प्रभु के) नाम में लीन रहता है।1। किआ डरीऐ डरु डरहि समाना ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ डरीऐ = डरने की जरूरत नहीं रहती, नहीं डरता। डरु = (दुनिया वाला) डर। डरहि = डर में, परमात्मा के उर अदब में। पछाना = जिसने पहचान लिया, जिसने प्रभु के साथ जान-पहिचान डाल ली।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह (दुनिया के झमेलों में) सहमता नहीं। उसका (दुनिया वाला) सहम (परमात्मा वास्ते उसके हृदय में टिके हुए) डर अदब में समाप्त हो जाता है।1। रहाउ। जिसु नर रामु रिदै हरि रासि ॥ सहजि सुभाइ मिले साबासि ॥२॥ पद्अर्थ: जिसु नर रिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। सहजि = सहज में (टिके रह के), अडोल अवस्था में (टिके रहने के कारण)। सुभाइ = प्रभु के प्रेम में (जुड़े रहने करके)।2। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में हरि परमात्मा की नाम-रस पूंजी है, वह (माया की खातिर नहीं डोलता, वह) अडोल अवस्था में टिका रहता है। वह प्रभु के प्यार में जुड़ा रहता है। उसे (प्रभु के दर से) आदर मिलता है।2। जाहि सवारै साझ बिआल ॥ इत उत मनमुख बाधे काल ॥३॥ पद्अर्थ: जाहि = जो लोगों को। सवारै = सुलाए, माया की नींद में सुलाए रखता है। साझ = सांझ, शाम। बिआल = सवेरे। साझ बिआल = सवेरे शाम, हर वक्त। इत = यहां, इस लोक में। उते = वहां, परलोक में। बाधे काले = मौत (के सहम) के बंधे हुए।3। अर्थ: (पर) जिस मनुष्यों को प्रभु हर वक्त (सवेरे शाम) माया की नींद में ही सुलाए रखता है, वे सदा अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य लोक परलोक में ही मौत के सहम के साथ बंधे रहते हैं (जितना समय वे यहां हैं मौत का सहम उनके सिर पे सवार रहता है। इसके बाद भी जनम मरण के चक्र में धक्के खाते हैं)।3। अहिनिसि रामु रिदै से पूरे ॥ नानक राम मिले भ्रम दूरे ॥४॥११॥ पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। रिदै = हृदय में। पूरे = पूर्ण। भ्रम = भटकना।4। अर्थ: हे नानक! जिनके हृदय में दिन रात (हर वक्त) परमात्मा बसता है, वह पूर्ण मनुष्य हैं (वे डावाँडोल नहीं होते)। जिन्हें परमात्मा मिल गया उनकी सब भटकनें खत्म हो जाती हैं।4।11। गउड़ी महला १ ॥ जनमि मरै त्रै गुण हितकारु ॥ चारे बेद कथहि आकारु ॥ तीनि अवसथा कहहि वखिआनु ॥ तुरीआवसथा सतिगुर ते हरि जानु ॥१॥ पद्अर्थ: त्रै गुण हितकारु = त्रैगुणी संसार के साथ हित करने वाला। जनमि मरै = पैदा हो के मरता है, पैदा होता मरता रहता है। कथहि = जिक्र करते हैं। आकारु = त्रैगुणी दिखाई देता संसार। कहहि वखिआनु = व्याख्यान कहते हैं, जिक्र करते हैं। तीनि अवसथा = (मन के) तीन हालात। तुरीआवसथा = तुरीय अवस्था, वह हालत जब जीवात्मा और परमात्मा एक रूप हो जाते हैं, जब जीवात्मा प्रभु में लीन हो जाती है। ते = से। सतिगुरु ते = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। जानु = पहचान, गहरी सांझ बना लो।1। अर्थ: चारों वेद जिस त्रैगुणी संसार का जिक्र करते हैं (जो मनुष्य प्रभु भक्ति से वंचित है और) उसी त्रैगुणी संसार के साथ ही हित करता है वह पैदा होता मरता रहता है। (वह जनम मरण के चक्रव्यूह में पड़ा रहता है)। (ऐसे मनुष्य) जो भी व्याख्या करते हैं मन की तीन अवस्थाओं का ही जिक्र करते हैं (जिस अवस्था में जीवात्मा परमात्मा के साथ एक रूप हो जाती है वह बयान नहीं की जा सकती)। गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ गहरी जान पहिचान बना लो- यह है तुरीया अवस्था।1। राम भगति गुर सेवा तरणा ॥ बाहुड़ि जनमु न होइ है मरणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तरणा = तैर सकते हैं (जनम मरन के चक्र रूप समुंदर में से)।1। रहाउ। अर्थ: (जनम मरन का चक्र, जैसे एक चक्रव्यूह है, इस में से) परमात्मा की भक्ति और गुरु की बताई हुई कार करके पार लांघ जाते हैं (जो पार लांघ जाता है उसे) फिर ना जनम होता है ना मौत। (उस अवस्था को तुरीया अवस्था कह लो)।1। रहाउ। चारि पदारथ कहै सभु कोई ॥ सिम्रिति सासत पंडित मुखि सोई ॥ बिनु गुर अरथु बीचारु न पाइआ ॥ मुकति पदारथु भगति हरि पाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। सभ कोई = हरेक (विचारवान) मनुष्य। मुखि = मुंह में। अरथु बीचारु = अनुभवी ज्ञान, (मुक्ति पदार्थ का) अर्थ व विचार। मुकति = मुक्ति, खलासी, मन के तीनों ही हालातों से आजादी।2। अर्थ: हरेक जीव धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष (मुक्ति) इन चार पदार्थों का जिक्र तो करता है, सिम्रितियों-शास्त्रों के पण्डितों के मुंह से भी यही सुनते हैं। पर, मुक्ति पदार्थ क्या है (वह अवस्था कैसी है जहाँ जीव तीन गुणों के प्रभाव से निर्लिप हो जाता है) गुरु की शरण पड़े बिना इसका अनुभव नहीं हो सकता। ये पदार्थ परमात्मा की भक्ति करने से मिलते हैं।2। जा कै हिरदै वसिआ हरि सोई ॥ गुरमुखि भगति परापति होई ॥ हरि की भगति मुकति आनंदु ॥ गुरमति पाए परमानंदु ॥३॥ पद्अर्थ: मुकति आनंदु = आत्मिक स्वतंत्र अवस्था का आनन्द।3। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है उसे भक्ति की प्राप्ति हो गई। और ये भक्ति गुरु के द्वारा ही मिलती है। परमात्मा की भक्ति के द्वारा मुक्ति पदार्थ का आनंद लेते हैं। ये सर्वोच्च आनन्द गुरु की शिक्षा पर चलने से ही मिलता है।3। जिनि पाइआ गुरि देखि दिखाइआ ॥ आसा माहि निरासु बुझाइआ ॥ दीना नाथु सरब सुखदाता ॥ नानक हरि चरणी मनु राता ॥४॥१२॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरि दिखाइआ = जिसे गुरु ने दिखा दिया। निरासु = आशा से स्वतंत्र रहना।4। अर्थ: जिस मनुष्य ने मुक्ति का आनंद हासिल कर लिया, गुरु ने सर्व सुखदाता दीनानाथ प्रभु खुद देख के जिस मनुष्य को दिखा दिया, उसे दुनिया की आशाओं के अंदर रहते हुए भी आसों उम्मीदों से उपराम रहने की विधि गुरु सिखा देता है। हे नानक! उस मनुष्य का मन प्रभु चरणों (के प्यार) में रंगा रहता है।3। गउड़ी चेती महला १ ॥ अम्रित काइआ रहै सुखाली बाजी इहु संसारो ॥ लबु लोभु मुचु कूड़ु कमावहि बहुतु उठावहि भारो ॥ तूं काइआ मै रुलदी देखी जिउ धर उपरि छारो ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रित = (अपने आप को) अमर समझने वाली। काइआ = काया, देह। सुखाली = सुख+आलय, सुख का घर, सुख भोगने वाली। बाजी = खेल। मुचु = बहुत। कमावहि = (हे काया!) तू कमाती है। तूं = तूझे। काइआ = हे काया! धर = धरती। छारो = छार, राख।1। अर्थ: ये शरीर अपने आप को अमर जान के सुख भोगने में ही लगा रहता है (ये नहीं समझता कि) ये जगत (एक) खेल (ही) है। हे मेरे शरीर! तू लब-लोभ कर रहा है। तू बहुत झूठ कमा रहा है (व्यर्थ की दौड़-भाग ही कर रहा है), तू (अपने ऊपर लब-लोभ-झूठ आदि के असर में गलत कामों का) भार उठाता जा रहा है। हे मेरे शरीर! मैंने तेरे जैसे ऐसे भटकते देखें हैं जैसे धरती पर राख।1। सुणि सुणि सिख हमारी ॥ सुक्रितु कीता रहसी मेरे जीअड़े बहुड़ि न आवै वारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिख = शिक्षा। सुक्रितु = सु+कृत, नेक कमाई। रहसी = साथ निभेगी। बहुड़ि = पुनः , मुड़ के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी जीवात्मा! मेरी शिक्षा ध्यान से सुन। की हुई नेक कमाई ही तेरे साथ निभेगी। (अगर ये मानव जनम गवा लिया), तो दुबारा (जल्दी) वारी नहीं मिलेगी।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |