श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 155 हउ तुधु आखा मेरी काइआ तूं सुणि सिख हमारी ॥ निंदा चिंदा करहि पराई झूठी लाइतबारी ॥ वेलि पराई जोहहि जीअड़े करहि चोरी बुरिआरी ॥ हंसु चलिआ तूं पिछै रहीएहि छुटड़ि होईअहि नारी ॥२॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। निंदा चिंदा = निंदा का चिंतन। लाइतबारी = ऐतबार हटाने वाला कर्म, चुगली। वेलि = स्त्री। जोहहि = तू देखता है। बुरिआई = बुराई। हंसु = जीवात्मा।2। अर्थ: हे मेरे शरीर! मैं तुझे समझाता हूँ, मेरी नसीहत सुन। तु पराई निंदा का ध्यान रखता है, तू (औरों की) झूठी निंदा करता रहता है। हे जीव! तू पराई स्त्री को (बुरी निगाह से) देखता है, तू चोरियां करता है, और बुराईआं करता है। अर्थ: हे मेरी काया! जब जीवात्मा चली जाएगी, तू यहां ही रह जाएगा, तू तब त्यागी हुई स्त्री की तरह हो जाएगा।2। तूं काइआ रहीअहि सुपनंतरि तुधु किआ करम कमाइआ ॥ करि चोरी मै जा किछु लीआ ता मनि भला भाइआ ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई अहिला जनमु गवाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: सुपनंतरि = स्वप्न+अंतरि, सुपने में, नींद में, सोई हुई। मनि = मन में। भला भाइआ = अच्छा लगा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। अहिला = उत्तम।3। अर्थ: हे मेरे शरीर! तू (माया की) नींद में ही सोया रहा (तुझे समझ ही नहीं आई कि) तू क्या करतूतें करता रहा। चोरी आदि करके जो धन माल मैं लाता रहा, तुझे वह मन में पसंद आता रहा। (इस तरह) ना इस लोक में शोभा कमायी, ना परलोक में आसरा (मिलने का प्रबंध) मिला। कीमती मानव जनम व्यर्थ गवा डाला।3। हउ खरी दुहेली होई बाबा नानक मेरी बात न पुछै कोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: खरी दुहेली = बहुत दुखी। बाबा = हे बाबा! बात = बातचीत।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जीवात्मा के चले जाने पर अब) मैं काया बहुत दुखी हुई हूँ। हे नानक! मेरी अब कोई बात नहीं पूछता।1। रहाउ। ताजी तुरकी सुइना रुपा कपड़ केरे भारा ॥ किस ही नालि न चले नानक झड़ि झड़ि पए गवारा ॥ कूजा मेवा मै सभ किछु चाखिआ इकु अम्रितु नामु तुमारा ॥४॥ पद्अर्थ: तजी = घोड़े। केरे = के। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! कूजा = मिश्री।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मूर्ख! बढ़िया घोड़े, सोने-चांदी, कपड़ों के ढेर- कोई भी चीज (मौत के समय) किसी के साथ नहीं जाती। सब यहीं ही रह जाता है। मिश्री, मेवे आदि भी मैंने सब कुछ चख के देख लिया है। (इनमें भी इतना स्वाद नहीं जितना हे प्रभु!) तेरा नाम मीठा है।4। दे दे नीव दिवाल उसारी भसमंदर की ढेरी ॥ संचे संचि न देई किस ही अंधु जाणै सभ मेरी ॥ सोइन लंका सोइन माड़ी स्मपै किसै न केरी ॥५॥ पद्अर्थ: नीव = नींव। दिवाल = दिवार। भस = राख। संचे = खजाने। माढ़ी = महल। संपै = धन। केरी = की।5। अर्थ: नींव रख-रख के मकानों की दीवारें खड़ी कीं, पर (मौत आने पर) ये राख की ढेरी की तरह हो गए। इकट्ठे किए हुए (माया के) खजाने किसी को हाथ से नहीं देता, मूर्ख समझता है कि ये सब कुछ मेरा है (पर ये नहीं जानता कि) सोने की लंका सोने का महल (रावण के भी ना रहे, तू क्या बेचारा है) ये धन किसी का नहीं बना रहता।5। सुणि मूरख मंन अजाणा ॥ होगु तिसै का भाणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हागु = होएगा। भाणा = रजा।1। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख अन्जान मन! सुन। उस परमात्मा की रजा ही चलेगी (लब-लोभ आदि को त्याग के उसकी रजा में चलना सीख)।1। रहाउ। साहु हमारा ठाकुरु भारा हम तिस के वणजारे ॥ जीउ पिंडु सभ रासि तिसै की मारि आपे जीवाले ॥६॥१॥१३॥ नोट: इस शब्द के आखिरी अंक देखो! अंक 6 बताता है कि शब्द के 6 बंद हैं। अंक 13 बताता है कि गउड़ी राग में गुरु नानक देव जी का ये 13वां शब्द है। अंक 1 नया आया है। ये संकेत है कि कोई नई तब्दीली आई है। अब तक शब्द ‘गउड़ी’ के थे। पर शब्द नंबर 13 ‘गउड़ी चेती’ का है। ‘गउड़ी चेती’ का ये पहला ही शब्द है। 12 शब्द ‘गउड़ी’ के 1 शब्द ‘गउड़ी चेती’ का, कुल 13 शब्द। ‘गउड़ी चेती’ के कुल 5 शब्द हैं। वहां आखिरी जोड़ है।5।17। भाव, 12 शब्द ‘गउड़ी’ के 5 शब्द ‘गउड़ी चेती’ का, जोड़ 17। इस शब्द में कभी काया को संबोधन किया गया है तो कभी जीवात्मा को। पद्अर्थ: वणजारे = व्यापार करने वाले। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। मारि = मार के।6। अर्थ: हमारा मालिक प्रभु बड़ा शाहूकार है। हम सारे जीव उसके भेजे हुए वणजारे व्यापारी है (यहां नाम का व्यापार करने आए हुए हैं)। ये जीवात्मा ये शरीर उसी शाह की दी हुई राशि-पूंजी है। वह स्वयं ही मारता और स्वयं ही जीवन देता है।6।1।13। गउड़ी चेती महला १ ॥ अवरि पंच हम एक जना किउ राखउ घर बारु मना ॥ मारहि लूटहि नीत नीत किसु आगै करी पुकार जना ॥१॥ पद्अर्थ: अवरि = और, विरोधी, दुश्मन। पंच = पाँच। हम = मैं। एक जना = अकेला। किउ राखउ = मैं कैसे बचाऊँ? घर बारु = घर घाट, सारा घर। मना = हे मेरे मन! नीत नीत = सदा ही। करी = मैं करूँ। जना = हे भाई!।1। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन। अर्थ: हे मेरे मन! मेरे वैरी (कामादिक) पाँच हैं। मैं अकेला हूँ। मैं (इनसे) सारा घर कैसे बचाऊँ? हे भाई! ये पाँचों मुझे नित्य मारते लूटते रहते हैं, मैं किस के पास शिकायत करूँ?।1। स्री राम नामा उचरु मना ॥ आगै जम दलु बिखमु घना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उचरु = उचार, बोल। आगै = सामने। जम दलु = यम का दल, यमराज की फौज। बिखमु = मुश्किल (करने वाला)। घना = बहुत।1। रहाउ। अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर, सामने यमराज की तगड़ी फौज दिख रही है (भाव, मौत आने वाली है)।1। रहाउ। उसारि मड़ोली राखै दुआरा भीतरि बैठी सा धना ॥ अम्रित केल करे नित कामणि अवरि लुटेनि सु पंच जना ॥२॥ पद्अर्थ: मड़ोली = शरीर-मठ। उसारि = सृजना करके। दुआरा = दरवाजे (कान नाक आदि)। भीतरि = में। सा धन = वह जीव-स्त्री। अंम्रित = अपने आप को अमर जानने वाली। केल = चोज तमाशे, रंग रलियां। कामणि = जीव-स्त्री। लुटेनि = लूटते रहते हैं। सु = वह। पंच जना = कामादिक पाँचों जन।2। अर्थ: परमात्मा ने ये शरीर बना के (इसके नाक-कान आदि) दस दरवाजे बना दिए। (उसके हुक्म अनुसार) इस शरीर में जीव-स्त्री आ टिकी। पर ये जीव-स्त्री अपने आप को अमर जान के सदा (दुनिया वाले) रंग तमाशे करती रहती है, और वह वैरी कामादिक पाँचो जने (अंदर से भले गुण) लुटते जा रहे हैं।2। ढाहि मड़ोली लूटिआ देहुरा सा धन पकड़ी एक जना ॥ जम डंडा गलि संगलु पड़िआ भागि गए से पंच जना ॥३॥ पद्अर्थ: देहुरा = मंदिर। एक जना = अकेली। जम डंडा = यम का डण्डा। गलि = गले में।3। अर्थ: (यम की फौज ने आखिर) शरीर मठ गिरा के मंदिर लूट लिया, जीव-स्त्री अकेली ही पकड़ी गई। जम का डण्डा सिर पर बजा, जम का संगल गले में पड़ा, वह (लूटने वाले) पाँचों जने भाग लिए (साथ छोड़ गए)।3। कामणि लोड़ै सुइना रुपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता ॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता ॥४॥२॥१४॥ पद्अर्थ: कामणि = पत्नी। रुपा = चाँदी। लुड़ेनि = तलाशते हैं, मांगते हैं। खाधाता = खाने के पदार्थ। तिन कारणि = इन स्त्री मित्रों के खातिर। जासी = जाएगा। जमपुरि = यम की नगरी में। बाधाता = बंधा हुआ।4। नोट: अंक “4।2।14” में अंक 2 का भाव है कि ‘गउड़ी चेती’ का यह दूसरा शब्द है। ‘गउड़ी’ के अब तक कुल 14 शब्द हो गए हैं। अर्थ: (सारी उम्र जब तक जीव जीवित रहा) पत्नी सोना-चाँदी (के गहने) मांगती रहती है। संबंधी मित्र, खान-पीने के पदार्थ मांगते रहते हैं। हे नानक! इनकी ही खातिर जीव पाप करता रहता है, आखिर (पापों के कारण) बंधा हुआ यम की नगरी में धकेला जाता है।4।2।14। गउड़ी चेती महला १ ॥ मुंद्रा ते घट भीतरि मुंद्रा कांइआ कीजै खिंथाता ॥ पंच चेले वसि कीजहि रावल इहु मनु कीजै डंडाता ॥१॥ पद्अर्थ: घट भीतरि = हृदय में। मुंद्रा = (बुरी वासनाओं को रोकें = ये) मुंद्रा। कांइआ = शरीर को (नाशवान जानना)। खिंथाता = खिंथा, गठड़ी। ते = वही। पंच चेले = पाँच ज्ञानेंद्रिय रूप चेले। कीजहि = करने चाहिए। रावल = हे रावल! हे जोगी!।1। अर्थ: हे रावल! अपने शरीर के अंदर ही बुरी भावनाओं को रोक - ये है असल मुंद्रां। शरीर को नाशवान समझ-इस यकीन को गुदड़ी बना। हे रावल! (तुम और लोगों को चेले बनाते फिरते हो) अपने पाँचों, ज्ञानेंद्रियों को वश में करो- चेले बनाओ। अपने मन को डण्डा बनाओ (और हाथ में पकड़ो। भाव, काबू करो)।1। जोग जुगति इव पावसिता ॥ एकु सबदु दूजा होरु नासति कंद मूलि मनु लावसिता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोग जुगति = योग साधना का जुगती। इव = इस तरह। पावसिता = पावसि, तू पा लेगा। नासति = नास्ति, नहीं है। लावसिता = लावसि, अगर तू लगा ले।1। रहाउ। अर्थ: (हे रावल!) तू गाजर मूली आदि खाने में मन जोड़ता फिरता है। पर, अगर तू उस गुरु शब्द में मन जोड़े (जिस के बिना) कोई और (जीवन-राह दिखाने में समर्थ) नहीं है। तो तू इस तरह जोग (प्रभु चरणों में जुड़ने) का तरीका ढूँढ लेगा।1। रहाउ। मूंडि मुंडाइऐ जे गुरु पाईऐ हम गुरु कीनी गंगाता ॥ त्रिभवण तारणहारु सुआमी एकु न चेतसि अंधाता ॥२॥ पद्अर्थ: मूंडि मुंडाइऐ = सिर मुंडाने से। मूंडि = सिर।2। अर्थ: अगर (गंगा के किनारे) सिर मुण्डन से गुरु मिलता है (भाव, तुम तो गंगा के तट पर सिर मुंडवा के गुरु धारण करते हो) तो हमने तो गुरु को ही गंगा बना लिया है, (हमारे लिए गुरु ही महा पवित्र तीर्थ है)। अंधा (रावल) उस एक मालिक को नहीं स्मरण करता जो तीनों भवनों (के जीवों) को उबारने के समर्थ है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |