श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करि पट्मबु गली मनु लावसि संसा मूलि न जावसिता ॥ एकसु चरणी जे चितु लावहि लबि लोभि की धावसिता ॥३॥

पद्अर्थ: पटंबु = ठगी, दिखावा। गली = बातों से। मनु = लोगों का मन। लावसि = तू लगाता है। मूलि न = बिल्कुल नहीं। की धावसिता = क्यूँ दौड़ेगा? नहीं भटकेगा।3।

अर्थ: हे जोगी! तू (योग का) दिखावा करके निरी बातों से ही लोगों का मनोरंजन करता है, पर तेरी अपनी संशय रक्ती मात्र भी दूर नहीं होता। अगर तू एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े, तो लब और लोभ के कारण बनी हुई तेरी भटकना दूर हो जाए।3।

जपसि निरंजनु रचसि मना ॥ काहे बोलहि जोगी कपटु घना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रचसि मना = मन रचा के, मन जोड़ के। कपटु = ठगी, झूठ फरेब।1। रहाउ।

अर्थ: हे जोगी! ज्यादा ठगी-फरेब के बोल क्यूँ बोलता है? अपना मन जोड़ के माया-रहित प्रभु का नाम स्मरण कर।1। रहाउ।

काइआ कमली हंसु इआणा मेरी मेरी करत बिहाणीता ॥ प्रणवति नानकु नागी दाझै फिरि पाछै पछुताणीता ॥४॥३॥१५॥

पद्अर्थ: कमली = पगली। हंसु = जीवात्मा। बिहाणीता = (उम्र) गुजर रही है। नागी = नंगी काया। दाझै = जलती है। पाछै = समय बीत जाने के बाद में।4।

अर्थ: जिस मनुष्य का शरीर पागल हुआ हुआ हो (जिसकी ज्ञानेंद्रियां विकारों में पागल हुई पड़ी हों) जिसकी जीवात्मा अंजान हो (जिंदगी का सही रास्ता ना समझता हो) उसकी सारी उम्र माया की ममता में बीत जाती है। (तथा) नानक बिनती करता है कि जब (ममता के सारे पदार्थ जगत में ही छोड़ के) शरीर अकेला ही (शमशान में) जलता है। समय व्यर्थ में गवा के जीव पछताता है।4।3।15।

गउड़ी चेती महला १ ॥ अउखध मंत्र मूलु मन एकै जे करि द्रिड़ु चितु कीजै रे ॥ जनम जनम के पाप करम के काटनहारा लीजै रे ॥१॥

पद्अर्थ: अउखध = दवा। अउखध मूलु = दवाओं का मूल, सबसे बढ़िया दवाई। मंत्र मूलु = सबसे बढ़िया मंत्र। एकै = एक ही, परमात्मा का नाम ही। द्रिढ़ु = पक्का। हे = हे भाई! पाप करम = बुरे कर्म, विकार।1।

अर्थ: हे भाई! अगर तू जनमों जन्मांतजरों के किये बुरे कर्मों के संस्कारों को काटने वाले परमात्मा का नाम लेता रहे, अगर तू (उसके नाम के स्मरण में) अपने चिक्त को पक्का कर ले, तो (तुझे यकीन आ जाएगा कि) मन के रोग दूर करने वाली सबसे बढ़िया दवा प्रभु का नाम ही है। मन को वश में करने वाला सबसे बढ़िया मंत्र परमात्मा का नाम ही है।1।

मन एको साहिबु भाई रे ॥ तेरे तीनि गुणा संसारि समावहि अलखु न लखणा जाई रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाई रे = हे भाई! मन साहिबु = मन का मालिक, मन को विकारों से बचा के रखने वाला मालिक। तीनि गुणा = तीनों गुण, तीनों गुणों में प्रवृत शारीरिक इंद्रियां। संसारि समावहि = संसार में उलझे हुए हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (विकारों से बचा सकने वाला) मन का रक्षक एक प्रभु का नाम ही है (उसके गुण पहिचान), पर जितने समय तक तेरी त्रिगुणी इंद्रियां संसार (के मोह) में खचित हैं, उस अलख परमात्मा को समझा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

सकर खंडु माइआ तनि मीठी हम तउ पंड उचाई रे ॥ राति अनेरी सूझसि नाही लजु टूकसि मूसा भाई रे ॥२॥

पद्अर्थ: तनि = तन में। पंड = माया की गठड़ी। उचाई = उठाई हुई है। लजु = उम्र की लज्जा। मूसा = चूहा, यम, बीत रहा समय।2।

अर्थ: हे भाई! हम जीवों ने ता माया की गठड़ी (हर वक्त सिर पर) उठाई हुई है। हमें तो माया, अपने अंदर शक्कर जैसी मीठी लग रही है, (हमारे लिए तो माया के मोह की) अंधेरी रात पड़ी हुई है (जिसमें हमें कुछ दिखता ही नहीं) और (उधर से) यम रूपी चूहा हमारी उम्र की लज्जा कतरता जा रहा है (उम्र घटती जा रही है)।2।

मनमुखि करहि तेता दुखु लागै गुरमुखि मिलै वडाई रे ॥ जो तिनि कीआ सोई होआ किरतु न मेटिआ जाई रे ॥३॥

पद्अर्थ: मनमुखि = जिन्हों का मुख अपने मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलते हैं। तेता = उतना ही। तिनि = उस (परमात्मा) ने। किरतु = जनम जन्मांतरों के किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चल के मनुष्य जितने भी उद्यम करते हैं, उतने ही दुख घटित होते हैं। (लोक परलोक में) शोभा उन्हीं को मिलती है जो गुरु के सन्मुख रहते हैं। जो (नियम) उस परमात्मा ने बना दिया है वही घटित होता है। (उस नियम के अनुसार) जनमों जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के समूह को (जो हमारे मन में टिका हुआ है, अपने मन के पीछे चल के) मिटाया नहीं जा सकता।3।

सुभर भरे न होवहि ऊणे जो राते रंगु लाई रे ॥ तिन की पंक होवै जे नानकु तउ मूड़ा किछु पाई रे ॥४॥४॥१६॥

पद्अर्थ: सुभर = नाकोनाक। पंक = चरण धूल। मूढ़ा = मूर्ख।4।

अर्थ: नानक (कहता है) जो मनुष्य प्रभु के चरणों में प्रीत जोड़ के उसके प्रेम में रंगे रहते हैं, उनके मन प्रेम रस के साथ लबा-लब भरे रहते हैं। वह (प्रेम से) खाली नहीं होते। अगर (हमारा) मूर्ख (मन) उनके चरणों की धूल बने, तो इसे भी कुछ प्राप्ति हो जाए।4।4।16।

गउड़ी चेती महला १ ॥ कत की माई बापु कत केरा किदू थावहु हम आए ॥ अगनि बि्मब जल भीतरि निपजे काहे कमि उपाए ॥१॥

पद्अर्थ: कत की = कब की? केरा = का। कत केरा = कब का? किदू = किससे? किदू थावहु = किस जगह से? बिंब = मण्डल (बिम्ब = a jar) अगनि बिंब = माँ के पेट की आग, जठराग्नि। जल = पिता का वीर्य। निपजे = माँ के पेट में टिकाए गए। काहे कंमि = किस वास्ते? 1।

अर्थ: (हे मेरे साहिब! अनगिनत अवगुणों के कारण ही हमें अनेको योनियों में भटकना पड़ता है, हम क्या बताएं कि) कब की हमारी (कोई) माँ है। कब का (भाव, किस जून का) हमारा कोई बाप है किस किस जगह से (जूनियों में से हो के) हम (अब इस मनुष्य जनम में) आए हैं? (इन अवगुणों के कारण ही हमें ये भी नहीं सूझता कि) हम किस उद्देश्य उद्देश्य के लिए पिता के वीर्य से माँ के पेट की आग में तपे, और किस वास्ते पैदा हुए।1।

मेरे साहिबा कउणु जाणै गुण तेरे ॥ कहे न जानी अउगण मेरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जाणै = गहरी सांझ डाल सकता है। कहे न जानी = गिने नहीं जाते।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे अंदर इतने अवगुण है कि वे गिने नहीं जा सकते। (और, जिस जीव के अंदर अनगिनत अवगुण हों, वह ऐसा) कोई भी नहीं होता जो तेरे गुणों के साथ गहरी सांझ डाल सके (जो तेरी महिमा में जुड़ सके)।1। रहाउ।

केते रुख बिरख हम चीने केते पसू उपाए ॥ केते नाग कुली महि आए केते पंख उडाए ॥२॥

पद्अर्थ: चीने = देखे। नाग = सांप। पंख = पक्षी।2।

अर्थ: (अनगिनत अवगुणों के कारण) हमने अनेक रुखों, वृक्षों की जूनियां देखीं। अनेक बार पशू जून में हम जन्मे। अनेक बार साँपों की कुलों में पैदा हुए, और अनेक बार पंछी बन बन के उड़ते रहे।2।

हट पटण बिज मंदर भंनै करि चोरी घरि आवै ॥ अगहु देखै पिछहु देखै तुझ ते कहा छपावै ॥३॥

पद्अर्थ: पटण = शहर। बिज = पक्के। मंदर = घर।3।

अर्थ: (जनमों जन्मांतरों में किये कुकर्मों के असर में ही) मनुष्य शहरों की दुकानें तोड़ता है, पक्के घर तोड़ता है (सेंध लगाता है), चोरी करके (माल ले के) अपने घर आता है, (चोरी का माल लाता) आगे-पीछे देखता है (कि कोई देख ना ले, पर मूर्ख ये नहीं समझता कि हे प्रभु!) तेरे से कहीं छुपा नहीं रह सकता।3।

तट तीरथ हम नव खंड देखे हट पटण बाजारा ॥ लै कै तकड़ी तोलणि लागा घट ही महि वणजारा ॥४॥

पद्अर्थ: नवखंड = नौ खण्डों वाली सारी धरती। घट ही महि‘अपने अंदर ही।4।

अर्थ: (इन किए कुकर्मों को धोने के लिए हम जीव) सारी धरती के सारे तीर्थों के दर्शन करते फिरते हैं। सारे शहरों, बाजारों की दुकान-दुकान देखते हैं (भाव, भीख मांगते फिरते हैं, पर ये कुकर्म फिर भी नहीं मिटते)। (जब कोई भाग्यशाली जीव-) वणजारा (तेरी मेहर के सदका) अच्छी तरह परख विचार करता है (तो उसे समझ आती है कि तू तो) हमारे हृदय में ही बसता है।4।

जेता समुंदु सागरु नीरि भरिआ तेते अउगण हमारे ॥ दइआ करहु किछु मिहर उपावहु डुबदे पथर तारे ॥५॥

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। नीरि = नीर से, पानी से। तेते = उतने, बेअंत।5।

अर्थ: (हे मेरे साहिब!) जैसे (अनमापे, अथाह) पानी के साथ समुंदर भरा हुआ है, वैसे ही हम जीवों के अनगिनत ही अवगुण हैं। (हम इन्हें धो सकने में अस्मर्थ हैं), तू खुद ही दया करके मेहर कर। तू तो डूबते पत्थरों को भी उबार सकता है।5।

जीअड़ा अगनि बराबरि तपै भीतरि वगै काती ॥ प्रणवति नानकु हुकमु पछाणै सुखु होवै दिनु राती ॥६॥५॥१७॥

पद्अर्थ: वगै = चल रही है। काती = छुरी, तृष्णा की छुरी।6।

अर्थ: (हे मेरे साहिब!) मेरी जीवात्मा आग की तरह तप रही है। मेरे अंदर तृष्णा की छुरी चल रही है। नानक विनती करता है: जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है, उसके अंदर दिन रात (हर वक्त ही) आत्मिक आनंद बना रहता है।6।5।17।

गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥ हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: रैणि = रात। दिवसु = दिन। खाइ = खा के। बदले = बदले में, एव्ज में।1।

अर्थ: (हे मूर्ख!) तू रात सो के गुजारता जा रहा है और दिन खा खा के व्यर्थ बिताता जाता है। तेरा ये मानव जन्म हीरे जैसा कीमती है, पर (स्मरण हीन होने के कारण) कउड़ी के मोल जा रहा है।1।

नामु न जानिआ राम का ॥ मूड़े फिरि पाछै पछुताहि रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नामु न जानिआ = नाम की कद्र ना पाई, नाम के साथ गहरी सांझ नही डाली। रे मूढ़े = हे मूर्ख!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ नहीं डाली। (ये मानव जीवन ही स्मरण के लिए समय है, जब ये उम्र स्मरण के बगैर गुजर गई तो) फिर समय बीत जाने पे अफसोस करेगा।1। रहाउ।

अनता धनु धरणी धरे अनत न चाहिआ जाइ ॥ अनत कउ चाहन जो गए से आए अनत गवाइ ॥२॥

पद्अर्थ: अनता धनु = अनंत धन। धरणी धरे = धरती में रखता है, एकत्र करता है। अनत = अनंत प्रभु। अनत न चाहिआ जाइ = अनंत प्रभु के नाम जपने की चाहत नहीं उपजती। अनत कउ = बेअंत धन को। अनत गवाइ = परमात्मा की याद गवा के।2।

अर्थ: जो मनुष्य (सिर्फ) बेअंत धन ही इकट्ठा करता रहता है, उसके अंदर बेअंत प्रभु को स्मरण करने की तमन्ना पैदा नहीं हो सकती। जो जो भी बेअंत दौलत की लालच में दौड़े फिरते हैं, वे बेअंत प्रभु के नाम धन को गवा लेते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh