श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 157 आपण लीआ जे मिलै ता सभु को भागठु होइ ॥ करमा उपरि निबड़ै जे लोचै सभु कोइ ॥३॥ पद्अर्थ: आपण लीआ = निरी लोचना से, सिर्फ इच्छा करने से। जे मिलै = अगर (नाम धन) मिल सके। सभु को = हरेक जीव। भागठु = धनाढ, नाम खजाने का मालिक। करम = अमल, आचरण। निबड़ै = फैसला होता है। जे = चाहे जैसे भी। लोचे = चाह करे।3। अर्थ: (पर) अगर सिर्फ इच्छा करने से ही नाम धन मिल सकता हो, तो हरेक जीव नाम-धन खजानों का मालिक बन जाए। हलांकि, यद्यपि हरेक मनुष्य (सिर्फ जबानी जबानी) नाम धन की लालसा करे, पर ये हरेक जीव के अमलों पर फैसला होता है (कि किस को प्राप्ति होगी। सो, निरा दुनिया की खातर ना भटको)।3। नानक करणा जिनि कीआ सोई सार करेइ ॥ हुकमु न जापी खसम का किसै वडाई देइ ॥४॥१॥१८॥ नोट: इस शब्द के आखिरी अंकों को देखिए। अंक 4 बताता है कि शब्द के 4 बंद हैं। अंक18 बताता है कि राग गउड़ी में श्री गुरु नानक देव जी का यह 18वां शब्द है। इससे पहले ‘गउड़ी चेती’ में 5 शब्द आ चुके हैं। अब ये “गउड़ी बैरागणि” का पहला शब्द है, जिसके लिए अंक 1 लिखा गया है। पद्अर्थ: करणा = जगत। जिनि = जिस (परमातमा) ने। सार = संभाल। करेइ = करता है। न जापी = समझ में नहीं आ सकता। देइ = देता है।4। अर्थ: हे नानक! (उद्यम करते हुए भी हक नहीं जतलाया जा सकता। ये नहीं कहा जा सकता कि किस को मिलेगा। उद्यम का गर्व ही सारे उद्यम को व्यर्थ कर देता है)। जिस परमातमा ने ये जगत रचा है, वह हरेक जीव की संभाल करता है। (उद्यम के फल के बारे में) उस प्रभु पति का हुक्म समझा नहीं जा सकता। (ये पता नही लग सकता कि) किस मनुष्य को वह (नाम जपने की) बड़ाई देता है (हम जीव किसी मनुष्य के दिखाई देते कर्मों पर गलती खा सकते हैं। इसलिए उद्यम करते हुए भी प्रभु से मेहर की दाति मांगते रहें)।4।1।18। गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ हरणी होवा बनि बसा कंद मूल चुणि खाउ ॥ गुर परसादी मेरा सहु मिलै वारि वारि हउ जाउ जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: बनि = वन में, जंगल में। बसा = मैं बसूँ। कंद मूल = घास बूटे (फल फूल)। चुणि = चुन के। खाउ = मैं खाऊँ। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। वारि वारि = सदके सदके। हउ = मैं। जाउ = जाऊँ।1। अर्थ: (हिरनी जंगल में घास-तृण खाती है और मौज में फुदकती फिरती है) हे प्रभु! तेरा नाम मेरी जीवात्मा के लिए खुराक बने, जैसे हिरनी के लिए कंद-मूल है। मैं तेरे नाम रस को प्रीति से खाऊँ। मैं संसार-वन में बेफिक्र हो के विचरूँ, जैसे जंगल में हिरनी। अगर गुरु की कृपा से मेरा पति प्रभु मुझे मिल जाए, तो मैं बारंबार उससे सदके जाऊँ।1। मै बनजारनि राम की ॥ तेरा नामु वखरु वापारु जी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बनजारनि = वणज करने वाली। वखरु = सौदा।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं तेरे नाम की वंजारन बन जाऊूं। तेरा नाम मेरा सौदा बने, तेरे नाम को ही फैलाऊँ।1। रहाउ। कोकिल होवा अ्मबि बसा सहजि सबद बीचारु ॥ सहजि सुभाइ मेरा सहु मिलै दरसनि रूपि अपारु ॥२॥ पद्अर्थ: अंबि = आम (के पौधे) पर। सहजि = अडोल अवस्था में (टिक के), मस्त हो के। सबद बीचारु = शब्द का विचार। दरसनि = दर्शनीय, सोहना, सुंदर। रूपि = रूप वाला। अपारु = बेअंत प्रभु।2। अर्थ: (कोयल की आम से प्रीति प्रसिद्ध है। आम के वृक्ष पर बैठ के कोयल मीठी मस्त सुर में कू-कूह करती है। अगर मेरी प्रीति प्रभु से वैसी हो जाए जैसी कोयल की आम के साथ है तो) मैं कोयल बनूँ, आम पे बैठूँ (भाव, प्रभु नाम को अपनी जिंदगी का सहारा बना लूँ) और मस्त अडोल हालत में टिक के प्रभु की महिमा के शब्द की विचार करूँ (शब्द में चित्त जोड़ दूँ)। मस्त अडोल अवस्था में टिकने से, प्रेम में जुड़ने से ही प्यारा दर्शनीय, सोहना बेअंत प्रभु पति मिलता है।2। मछुली होवा जलि बसा जीअ जंत सभि सारि ॥ उरवारि पारि मेरा सहु वसै हउ मिलउगी बाह पसारि ॥३॥ पद्अर्थ: जलि = जल में। सभि = सारे। सारि = सार लेता है, संभालता है। उरवारि = इस पार। पारि = उस पार। पसारि = पसार के, बिखेर के।3। अर्थ: (मछली पानी के बिना नहीं जी सकती। प्रभु के साथ अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए तो) मैं मछली बन जाऊँ। सदैव उस जल-प्रभु में टिकी रहूँ जो सारे जीव-जंतुओं की संभाल करता है। प्यारा प्रभु पति (इस संसार समुंदर के अथाह जल के) इस पार और उस पार (हर जगह) बसता है (जैसे मछली अपने बाजू पसार के पानी में तैरती है) मैं भी अपनी बाँहें पसार के (भाव निसंग हो के) उसे मिलूँगी।3। नागनि होवा धर वसा सबदु वसै भउ जाइ ॥ नानक सदा सोहागणी जिन जोती जोति समाइ ॥४॥२॥१९॥ पद्अर्थ: नागनि = नागिन। धर = धरती में। जिन = जिस की। जोती = ज्योति स्वरूप प्रभु में।4। अर्थ: (नागिन बीन पर मस्त होती है। प्रभु से अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए, तो) मैं नागिन बनूँ। धरती पे बसूँ (भाव, सबकी चरणधूड़ बनूँ, मेरे अंदर प्रभु की महिमा वाला) गुरु शब्द बसे (जैसे बीन में मस्त हो के सपनी को वैरी की सुध-बुधि भूल जाती है) मेरा भी (दुनिया वाला सारा) डर-भय दूर हो जाए। हे नानक! जिस जीव-स्त्रीयों की ज्योति (तवज्जो) सदा ज्योति रूप प्रभु में टिकी रहती है, वह बड़ी भाग्यशाली हैं।4।2।19। गउड़ी पूरबी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नोट: इस शब्द के आखिरी अंक पढ़ें: अंक 4 शब्द के बंदों की गिनती है। अंक 20बताता है कि ‘गउड़ी’ में गुरु नानक देव जी का 20वां शब्द है। पिछले शब्द के आखिरी अंक।4।2।19 बताता है कि ‘गउड़ी बैरागणि’ में गुरु नानक देव जी के 2 शब्द हैं। अब रागिनी फिर बदल गई है, और इस रागिनी गउड़ी पूरबी दीपकी’ में गुरु नानक देव जी का1 (एक) शब्द है। इस शब्द के शुरू में लिखा मूल मंत्र भी यही संकेत करता है कि रागिनी बदल गई है। नोट: इस शब्द और सोहिले में आए इस शब्द में थोड़ा सा फर्क है। पाठक ध्यान से देख लें। जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरहु सिरजणहारो ॥१॥ पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर में, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, शोभा, महिमा। तितु घरि = उस सत्संग घर में। सोहिला = सुहाग का गीत, यश, महिमा, प्रभु पति से मिलने की चाहत के शब्द।1। नोट: लड़की के विवाह पे जो गीत रात को औरतें मिल के गाती हैं, उन्हें सोहिला या सुहाग कहते हैं। इन गीतों में कुछ तो विछोड़े का जज्बा होता है जो लड़की के बिहाए जाने पे माता-पिता व सहेलियों से पड़ना होता है और कुछ आसीसें आदि होती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे। अर्थ: जिस (साधु-संगत) घर में (परमात्मा की) महिमा होती है और कर्तार के गुणों की विचार होती है (हे जीवात्मा कन्या!) उस सत्संग घर में (जा के तू भी) परमातमा के महिमा के गीत (सुहाग मिलाप की चाहत के शब्द) गा। और अपने पैदा करने वाले प्रभु को याद कर।1। तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जाउ जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। जितु सोहिले = जिस सोहिले से।1। रहाउ। अर्थ: (हे जीवात्मा!) तू (सतसंगियों के साथ मिल के) प्यारे निरभउ (पति) की कीर्ति के गीत गा। (और कह:) मैं सदके हूँ उस कीर्ति के गीत से जिसकी इनायत से सदा का सुख मिलता है।1। रहाउ। नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥ पद्अर्थ: समालीअनि = संभालते हैं। देखैगा = संभाल करेगा। तेरे = तेरी ओर से (हे जीवात्मा!)। दानै कीमति = दान का मूल्य। सुमारु = अंदाजा, अंत।2। अर्थ: (हे जीवात्मा! जिस पति की हजूरी में) सदा ही जीव की संभाल हो रही है। जो दातें देने वाला मालिक (हरेक जीव की) संभाल करता है। (जिस दातार की) दातों का मूल्य (हे जीवात्मा!) तेरे पास नहीं पड़ सकता, उस दातार का क्या अंदाजा (तू लगा सकती है)? (भाव, वह दातार प्रभु बहुत बेअंत है)।2। स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण आसीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥ पद्अर्थ: संबति = साल। साहा = ब्याहे जाने वाला दिन। लिखिया = निश्चित हुआ। मिलि करि = मिल के। पावहु तेल = तेल डालो।3। नोट: शादी के कुछ दिन पहले शादी वाली कन्या को माईएं डालते हैं। जिसमें चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिलके उसके सिर पर तेल डालती हैं और आर्शीवाद भरे गीत गाती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे। अर्थ: (सत्संग में जा के हे जीवात्मा! अरजोई किया कर) वह साल, वह दिन (जो पहले ही) निश्चित है (जब पति के देश जाने के लिए मेरे वास्ते मौत पाहोचा आना है। हे सत्संगी सहेलियो!) मिल के मुझे माईएं डालो! और हे सज्जन (सहेलियो!) मुझे शुभाशीशें भी दो (भाव, मेरे लिए प्रार्थना भी करो) जिससे पति प्रभु से मेरा मेल हो जाए।3। घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥२०॥ पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में। पाहुचा = आमंत्रण। पवंनि = पड़ते हैं। दिह = दिन। आवंनि = आते हैं।4। नोट: विवाह का साहा और लगन निश्चित होने पे लड़के वालों का नाई बारात की गिनती तथा और जरूरी संदेश लेकर लड़की वालों के घर जाता है। उसे पहोचे वाला नाई कहते हैं। नोट: विवाह के समय माईएं की रस्म की जाती है। चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिल के विवाह वाली लड़की के सिर पर तेल डालती हैं, उसे स्नान कराती हैं, और साथ-साथ सुहाग के गीत गाती हैं। पति के घर जा के सुखी बसने की आसीसें देती हैं। उन्हीं दिनों में रात को गाने बैठी औरतें भी सोहिलड़े व सुहाग के गीत गाती हैं। इनमें आर्शीवाद के गीत भी होते हैं और वैराग के भी। क्योंकि, एक तरफ लड़की ने ब्याह के बाद अपने पति के घर जाना है। दूसरी तरफ, उस लड़की का माँ बाप, बहिन भाईयों, सहेलियों, चाचियों ताईयों, भाभियों आदि से विछोड़ा भी होना होता है। इन गीतों में ये दोनों मिलवें भाव होते हैं। जैसे विवाह के लिए समय महूरत निश्चित किया जाता है और उस निहित समय में ही विवाह परिणय आदि को सम्पन्न करने की पूरी कोशिश की जाती है। इस तरह हरेक जीव कन्या का वह समय भी पहले ही निश्चित किया जा चुका है जब मौत पहोचा आता है, और इसने साक-संबंधियों से विछुड़ के इस जगत-पिता के घर को छोड़ के परलोक में जाना है। इस शब्द में जीवात्मा लड़की को समझाया है कि सत्संग में सुहाग के गीत गा और सुन। सत्संग, जैसे, माईएं पड़ने का स्थान है। सत्संगी सहेलियां यहां एक दूसरी सहेली को आशीशें देती हैं। प्रार्थना करती हैंकि परलोक जाने वाली सहेली को पति प्रभु का मेल हो। अर्थ: (परलोक में जाने के लिए मौत रूप) ये पहोचा हरेक घर में आ रहा है। ये आमंत्रण नित्य आ रहे हैं। (हे सत्संगियो!) उस निमंत्रण भेजने वाले पति प्रभु को याद करना चाहिए। (क्योंकि) हे नानक! (हमारे भी) वह दिन (नजदीक) आ रहे हैं।4।1।20। रागु गउड़ी गुआरेरी ॥ गुरि मिलिऐ हरि मेला होई ॥ आपे मेलि मिलावै सोई ॥ मेरा प्रभु सभ बिधि आपे जाणै ॥ हुकमे मेले सबदि पछाणै ॥१॥ पद्अर्थ: चउपदे = चउ+पदे, चार बंदों वाले शब्द। गुरि मिलिऐ = यदि गुरु मिल जाए। मेला = मिलाप। आपे = (प्रभु) खुद ही। बिधि = (मिलने का) ढंग। सबदि = शब्द के द्वारा।1। अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा से मिलाप हो जाता है। वह परमात्मा स्वयं ही (जीव को गुरु से) मिला के (अपने चरणों में) मिला लेता है। प्यारा प्रभु स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में मिलाने के) सारे तरीके जानता है। (जिस मनुष्य को परमात्मा अपने) हुक्म अनुसार (गुरु के साथ) मिलाता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा से सांझ पा लेता है।1। सतिगुर कै भइ भ्रमु भउ जाइ ॥ भै राचै सच रंगि समाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भइ = भय में, डर अदब में। भ्रम = भटकना। जाइ = दूर हो जाता है।1। रहाउ। अर्थ: गुरु के डर अदब में रहने से (दुनियावी) भटकना दूर हो जाती है। जो मनुष्य (गुरु के) डर अदब में मगन रहता है वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के (प्रेम) रंग में समाया रहता है।1। रहाउ। गुरि मिलिऐ हरि मनि वसै सुभाइ ॥ मेरा प्रभु भारा कीमति नही पाइ ॥ सबदि सालाहै अंतु न पारावारु ॥ मेरा प्रभु बखसे बखसणहारु ॥२॥ पद्अर्थ: सुभाइ = (स्वभावेन) अपनी प्यार-रुची के कारण। भारा = बहुत गुणों का मालिक।2। अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा (भी अपनी) प्यार रुची के कारण (मनुष्य के) मन में आ बसता है। प्यारा प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है। कोई जीव उसका मूल्य नहीं पा सकता (अर्थात, ये नहीं बता सकता कि दुनिया के किसी पदार्थ के बदले परमात्मा मिल सकता है)। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के उस परमात्मा की महिमा करता है जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता जिसकी हस्ती का इस पार व उस पार का छोर नहीं ढूँढा जा सकता। बख्शनहार प्रभु (उसके सारे गुनाह) बख्श लेता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |