श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भगति करहि मूरख आपु जणावहि ॥ नचि नचि टपहि बहुतु दुखु पावहि ॥ नचिऐ टपिऐ भगति न होइ ॥ सबदि मरै भगति पाए जनु सोइ ॥३॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपु जणावहि = अपने आप को भक्त जाहर करते हैं। मरै = स्वै भाव की ओर से मरता है। सोइ = वह ही।3।

अर्थ: मूर्ख लोग रास डालते हैं और अपने आप को भक्त जतलाते हैं, (वे मूर्ख रास डालने के वक्त) नाच नाच के कूदते हैं (पर अंतरात्मे अहंकार के कारण आत्मिक आनंद की जगह) दुख ही दुख पाते हैं। नाचने-कूदने से भक्ति नहीं होती। परमात्मा की भक्ति वही मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो गुरु के शब्द में जुड़ के (स्वैभाव, अहम् से) स्वयं को मार लेता है।3।

भगति वछलु भगति कराए सोइ ॥ सची भगति विचहु आपु खोइ ॥ मेरा प्रभु साचा सभ बिधि जाणै ॥ नानक बखसे नामु पछाणै ॥४॥४॥२४॥

पद्अर्थ: वछलु = (वात्सल्य) प्यार करने वाला। सची = सदा स्थिर रहने वाली, स्वीकार। सभ बिधि = हरेक ढंग।4।

अर्थ: (पर जीवों के भी क्या बस?) भक्ति से प्यार करने वाला वह परमात्मा सब जीवों के ढंग जानता है (कि ये भक्ति करते हैं या पाखण्ड)। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु कृपा करता है वह मनुष्य उसके नाम को पहचानता है (नाम के साथ) गहरी सांझ डाल लेता है।4।4।24।

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनु मारे धातु मरि जाइ ॥ बिनु मूए कैसे हरि पाइ ॥ मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: मारे = बस में कर लेता है। धातु = भटकना (संस्कृत: धा)।1।

नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबोधक ‘नो’ के कारण अलोप हो गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के जो मनुष्य अपने) मन को काबू कर लेता है, उस मनुष्य की (माया वाली) भटकन समाप्त हो जाती है। मन वश में आए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसी मनुष्य का मन बस में आता है, जो इसे वश में लाने की दवा जानता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) वही समझता है कि मन गुरु के शब्द में जुड़ने से ही वश में आ सकता है।1।

जिस नो बखसे दे वडिआई ॥ गुर परसादि हरि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पे परमात्मा मेहर करता है उसे (ये) आदर देता है (कि) गुरु की कृपा से वह प्रभु उसके मन में आ बसता है।1। रहाउ।

गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥

पद्अर्थ: करणी = (करणीय) करतब, आचरण। मै मतु = मय मस्त, शराब से मस्त। मै = मय,शराब। मिकदारा = की तरह। अंकसु = अंकुश, कुंडा (जिससे हाथी को चलाया जाता है)।2।

अर्थ: जब मनुष्य गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों वाला आचरण बनाने की कार करता है, तब उसको इस मन (के स्वभाव) की समझ आ जाती है, (तब वह समझ लेता है कि) मन अहम् में मस्त रहता है जैसे कोई हाथी शराब में मस्त हो। गुरु ही (आत्मिक मौत मरे हुए इस मन को अपने शब्द का) अंकुश मार के (पुनः) आत्मिक जीवन देने के समर्थ है।2।

मनु असाधु साधै जनु कोइ ॥ अचरु चरै ता निरमलु होइ ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजे विकार ॥३॥

पद्अर्थ: कोइ = कोई, विरला। अचरु = (अचर = immovable) अमोड़पन। चरै = (चर = to consume) खत्म कर लेता है।3।

अर्थ: (ये) मन (आसानी से) वश में नहीं आ सकता। कोई विरला मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के इसे) वश में लाता है। जग मनुष्य (गुरु की सहायता से अपने मन के) अमोड़ पने को खत्म कर लेता है,तब मन पवित्र हो जाता है। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य इस मन को सुंदर बना लेता है। वह (अपने अंदर से) अहंकार त्याग के विकारों को छोड़ देता है।3।

जो धुरि राखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे ही जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥५॥२५॥

पद्अर्थ: राखिअनु = राखे उनि, उस (प्रभु) ने रख लिए। कला = ताकत,शक्ति।4।

अर्थ: जिस मनुष्यों को परमात्मा ने अपनी धुर दरगाह से ही गुरु के चरणों में जोड़ के (विकारों से) बचा लिया है, वह गुरु के शब्द में लीन रह के कभी उस परमात्मा से विछड़ते नहीं। हे नानक! परमात्मा अपनी ये असीम ताकत खुद ही जानता है। (ये बात प्रत्यक्ष है कि) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के नाम को पहचान लेता है (नाम के साथ गहरी सांझ बना लेता है)।4।5।25।

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ हउमै विचि सभु जगु बउराना ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाना ॥ बहु चिंता चितवै आपु न पछाना ॥ धंधा करतिआ अनदिनु विहाना ॥१॥

पद्अर्थ: बउराना = बउरा, पागल हो रहा है। भाइ = भाउ के कारण। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। भरमि = भटकन में (पड़ कर)। भुलाना = कुमार्ग पर पड़ गया है। चिन्ता चितवै = सोचें सोचता है। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हरेक दिन।1।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु नाम से वंचित हो के) अहंकार में (फंस के) सारा जगत झल्ला (बउरा) हो रहा है, माया के मोह के कारण भटकना में पड़ के गलत रास्ते पे जा रहा है। और ही कई प्रकार की सोचें सोचता रहता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता। (इस तरह) माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए (मायाधारी जीव का) हरेक दिन बीत रहा है।1।

हिरदै रामु रमहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि रसना हरि रसन रसाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रमहु = स्मरण करो। भाई = हे भाई! रसना = जीभ। रसाई = रसीली बना।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे भाई! अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ के अपनी जीभ को परमात्मा के नाम रस से रसीली बना।1। रहाउ।

गुरमुखि हिरदै जिनि रामु पछाता ॥ जगजीवनु सेवि जुग चारे जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ क्रिपा करे प्रभ करम बिधाता ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जगजीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। जाता = प्रगट हो गया। करम बिधाता = (जीवों के किए) कर्मों अनुसार पैदा करने वाला।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर अपने हृदय में परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह मनुष्य जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा की सेवा भक्ति करके सदा के लिए प्रगट हो जाता है। (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (जीवों को) पैदा करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर कृपा करता है वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के साथ) सांझ डाल लेता है।2।

से जन सचे जो गुर सबदि मिलाए ॥ धावत वरजे ठाकि रहाए ॥ नामु नव निधि गुर ते पाए ॥ हरि किरपा ते हरि वसै मनि आए ॥३॥

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर प्रभु का रूप। वरजे = रोक ले। ठाकि = रोक के। नव निधि = नौ खजाने।3।

अर्थ: जिस मनुष्यों को परमात्मा गुरु के शब्द से जोड़ता है, जिनको माया के पीछै दौड़ने से वर्जता है और रोक के रखता है, वे मनुष्य परमातमा का रूप हो जाते हैं। वे मनुष्य गुरु से परमात्मा का नाम हासिल कर लेते हैं जो उनके वास्ते (जैसे, धरती के) नौ ही खजाने हैं। अपनी मेहर से परमात्मा उनके मन में आ बसता है।3।

राम राम करतिआ सुखु सांति सरीर ॥ अंतरि वसै न लागै जम पीर ॥ आपे साहिबु आपि वजीर ॥ नानक सेवि सदा हरि गुणी गहीर ॥४॥६॥२६॥

पद्अर्थ: सुखु = आत्मिक आनंद। न लागै = नहीं छू सकता। जम पीर = यम का दुख। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, जिगरे वाला।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से शरीर को आनंद मिलता है शांति मिलती है। जिस मनुष्य के अंदर (हरि-नाम) आ बसता है, उसे जम का दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो परमात्मा खुद जगत का मालिक है और खुद ही (जगत की पालना आदि करने में) सलाह देने वाला है। जो सारे गुणों का मालिक है जो बड़े जिगरे वाला है, तू सदा उसकी सेवा-भक्ति कर।4।6।26।

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सो किउ विसरै जिस के जीअ पराना ॥ सो किउ विसरै सभ माहि समाना ॥ जितु सेविऐ दरगह पति परवाना ॥१॥

पद्अर्थ: सो = वह (परमात्मा)। जीअ पराना = जिंद प्राण। माहि = में। जितु = जिसके द्वारा। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा भक्ति करने से। पति = इज्जत। परवाना = स्वीकार।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के दिए हुए ये जिंद-प्राण हैं जो परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, जिसकी सेवा-भक्ति करने से उसकी दरगाह में आदर मिलता है, दरगाह में स्वीकार हो जाते हैं, उसे कभी भी (मन से) भुलाना नहीं चाहिए।1।

हरि के नाम विटहु बलि जाउ ॥ तूं विसरहि तदि ही मरि जाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: विटहु = से। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। मरि जाउ = मैं मर जाता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: मैं परमात्मा के नाम से (सदा) सदके जाता हूँ। (हे प्रभु!) जब तू मुझे बिसर जाता है, उस वक्त मेरी आत्मिक मौत हो जाती है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh