श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 160 तिन तूं विसरहि जि तुधु आपि भुलाए ॥ तिन तूं विसरहि जि दूजै भाए ॥ मनमुख अगिआनी जोनी पाए ॥२॥ पद्अर्थ: जि = जो लोग। तुधु = तू। दूजै भाए = माया के मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले।2। अर्थ: (हे प्रभु!) जिस लोगों को तूने खुद ही गलत रास्ते पर डाल दिया है, जो (सदा) माया के मोह में ही (फसे रहते हैं) उनके मन से तू बिसर जाता है। उन अपने मन के पीछे चलने वाले ज्ञानहीन लोगों को तू जूनों में डाल देता है।2। जिन इक मनि तुठा से सतिगुर सेवा लाए ॥ जिन इक मनि तुठा तिन हरि मंनि वसाए ॥ गुरमती हरि नामि समाए ॥३॥ पद्अर्थ: इक मनि = खास ज्ञान से। तुठा = प्रसंन्न हुआ। तिन मंनि = उनके मन में। नामि = नाम में।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों पर परमात्मा खास ध्यान से प्रसंन्न होता है, उन्हें वह गुरु की सेवा में जोड़ता है। उनके मन में परमात्मा (अपना आप) बसा देता है। वह मनुष्य गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के नाम में (सदा) लीन रहते हैं।3। जिना पोतै पुंनु से गिआन बीचारी ॥ जिना पोतै पुंनु तिन हउमै मारी ॥ नानक जो नामि रते तिन कउ बलिहारी ॥४॥७॥२७॥ पद्अर्थ: पोतै = पल्ले, खजाने में। पुंन = भलाई, अच्छे भाग्य।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के सौभाग्य होते हैं, वही मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालते है। वही श्रेष्ठ विचार के मालिक बनते हैं। वह (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लेते हैं। हे नानक! (कह:) मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ, जो परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं।4।7।27 गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ तूं अकथु किउ कथिआ जाहि ॥ गुर सबदु मारणु मन माहि समाहि ॥ तेरे गुण अनेक कीमति नह पाहि ॥१॥ पद्अर्थ: अकथु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। मारणु = मसाला।1। अर्थ: हे प्रभु! तू कथन से परे है। तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य के पास गुरु का शब्द रूपी मसाला है (उसने अपने मन को मार लिया है, उसके) मन में तू आ बसता है। हे प्रभु! तेरे अनेक ही गुण हैं, जीव तेरे गुणों का मूल्य नहीं पा सकते।1। जिस की बाणी तिसु माहि समाणी ॥ तेरी अकथ कथा गुर सबदि वखाणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिस की = जिस (परमात्मा) की। बाणी = महिमा की वाणी; महिमा। तिसु माहि = उस (परमात्मा) में। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने।1। रहाउ। (नोट: संबंधक‘की’ के कारण ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा लोप हो गई है, पर संबंध ‘माहि’, ‘तिसु’ पर ऐसा असर नहीं डाल सका। देखें: गुरबाणी व्याकरण)। अर्थ: ये महिमा जिस (परमात्मा) की है उस (परमात्मा) में (ही) लीन रहती है। (भाव, जैसे परमात्मा बेअंत है वैसे ही उसकी महिमा भी बेअंत है, वैसे ही परमात्मा के गुण भी बेअंत हैं)। हे प्रभु! तेरे गुणों की कहानी बयान नहीं हो सकती। गुरु के शब्द ने यही बात बताई है।1। रहाउ। जह सतिगुरु तह सतसंगति बणाई ॥ जह सतिगुरु सहजे हरि गुण गाई ॥ जह सतिगुरु तहा हउमै सबदि जलाई ॥२॥ पद्अर्थ: जह = जहां, जिस हृदय में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: जिस हृदय में सतिगुरु बसता है वहां सत्संगति बन जाती है (क्यूँकि) जिस मनुष्य के हृदय में गुरु बसता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के हरि के गुण गाता है। जिस दिल में गुरु बसता है, उसमें से गुरु के शब्द ने अहंकार जला दिया है।2। गुरमुखि सेवा महली थाउ पाए ॥ गुरमुखि अंतरि हरि नामु वसाए ॥ गुरमुखि भगति हरि नामि समाए ॥३॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। महली = प्रभु की हजूरी में। नामि = नाम में।3। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करके परमात्मा की हजूरी में स्थान प्राप्त कर लेता है। गुरु के सन्मुख रहके मनुष्य अपने अंदर परमात्मा का नाम बसा लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु-भक्ति की बरकत से प्रभु के नाम में (सदा) लीन रहता है।3। आपे दाति करे दातारु ॥ पूरे सतिगुर सिउ लगै पिआरु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥४॥८॥२८॥ पद्अर्थ: दातारु = दातें देने वाला प्रभु। सिउ = साथ। जैकारु = बड़ाई।4। अर्थ: दातें देने वाला समर्थ परमात्मा खुद ही (जिस मनुष्य को महिमा की) दाति देता है उसका प्यार पूरे गुरु से बन जाता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं, उनको (लोक-परलोक में) बड़ाई मिलती है (आदर मिलता है)।4।8।28। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ एकसु ते सभि रूप हहि रंगा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु सभि सहलंगा ॥ भिंन भिंन वेखै हरि प्रभु रंगा ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। एकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभि = सारे। बैसंतरु = आग। सहलंगा = सह+लग्न, मिले हुए, जुड़े हुए। भिंन = भिन्न, अलग।1। अर्थ: (संसार में दिखते ये) सारे (विभिन्न) रूप और रंग उस परमात्मा से ही बने हैं। उस एक से ही हवा पैदा हुई है पानी बना है आग पैदा हुई है और ये सारे (तत्व अलग अलग रूप रंग वाले सब जीवों में) मिले हुए हैं। वह परमातमा (स्वयं ही) विभिन्न रंगों (वाले जीवों) की संभाल करता है।1। एकु अचरजु एको है सोई ॥ गुरमुखि वीचारे विरला कोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।1। रहाउ। अर्थ: ये एक आश्चर्यजनक चमत्कार है कि परमात्मा स्वयं ही (इस बहुरंगी संसार में हर जगह) मौजूद है। कोई विरला मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के (इस आश्चर्यजनक चमत्कार को) विचारता है।1। रहाउ। सहजि भवै प्रभु सभनी थाई ॥ कहा गुपतु प्रगटु प्रभि बणत बणाई ॥ आपे सुतिआ देइ जगाई ॥२॥ पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। कहा = कहां। प्रभि = प्रभु ने। देइ = देता है।2। अर्थ: (अपनी) आत्मिक अडोलता में (टिका हुआ ही वह) परमात्मा सभी जगहों व्यापक हो रहा है। कहीं वह गुप्त है कहीं प्रत्यक्ष है। ये सारा जगत खेल प्रभु ने खुद ही बनाया है। (माया के मोह की नींद में) सोए हुए जीव को वह परमात्मा खुद ही जगा देता है।2। तिस की कीमति किनै न होई ॥ कहि कहि कथनु कहै सभु कोई ॥ गुर सबदि समावै बूझै हरि सोई ॥३॥ पद्अर्थ: किनै = किस (जीव) से। कहि कहि = कह कह के। सभु कोई = हरेक जीव।3। अर्थ: हरेक जीव (अपनी ओर से परमात्मा के गुण) कह कह के (उन गुणों का) वर्णन करता है, पर किसी जीव द्वारा उसका मोल नहीं पड़ सकता। हां, जो मनुष्य सत्गुरू के शब्द में जुड़ता है, वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।3। सुणि सुणि वेखै सबदि मिलाए ॥ वडी वडिआई गुर सेवा ते पाए ॥ नानक नामि रते हरि नामि समाए ॥४॥९॥२९॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। वेखै = संभाल करता है। ते = से। नामि = नाम में।4। अर्थ: (इस बहुरंगी संसार का मालिक परमात्मा हरेक जीव की आरजू) सुन सुन के (हरेक की) संभाल करता है। (और अरदास सुन के ही जीव को) गुरु के शब्द में जोड़ता है। (गुरु-शब्द में जुड़ा मनुष्य) गुरु की बताई हुई सेवा से (लोक परलोक में) बहुत आदर मान प्राप्त करता है। हे नानक! (गुरु के शब्द की इनायत से ही अनेक जीव) परमात्मा के नाम (रंग) में रंगे जाते हैं, परमात्मा के नाम में लीन हो जाते हैं।4।9।29। गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनमुखि सूता माइआ मोहि पिआरि ॥ गुरमुखि जागे गुण गिआन बीचारि ॥ से जन जागे जिन नाम पिआरि ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मोहि = मोह में। पिआरि = प्यार में। बीचारि = विचार में। नामि = नाम में।1। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में माया के प्यार में (आत्मिक जीवन की ओर से) गाफिल हुआ रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुणों के साथ जान पहिचान की विचार में (टिक के माया की तरफ से) सुचेत रहता है। जिस मनुष्य का परमात्मा के नाम में प्यार पड़ जाता है, वह मनुष्य (माया के मोह से) सुचेत रहते हैं।1। सहजे जागै सवै न कोइ ॥ पूरे गुर ते बूझै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। कोइ = कोई विरला।1। रहाउ। अर्थ: जो कोई (भाग्यशाली मनुष्य) पूरे गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत रहता है। वह माया के मोह की नींद में नहीं फंसता।1। रहाउ। असंतु अनाड़ी कदे न बूझै ॥ कथनी करे तै माइआ नालि लूझै ॥ अंधु अगिआनी कदे न सीझै ॥२॥ पद्अर्थ: असंतु = विकारी मनुष्य। अनाड़ी = अमोड़, विकारों से ना पलटने वाला, बेसमझ। तै = और। लूझै = झगड़ता है, खचित होता है। सीझै = कामयाब होता है।2। अर्थ: विकारी मनुष्य, विकारों की ओर अड़ी करने वाले बेसमझ मनुष्य कभी आत्मिक जीवन की समझ प्राप्त नहीं कर सकते। वह ज्ञान की बातें (भी) करते रहते हैं, माया में भी खचित रहते हैं। (ऐसे माया के मोह में) अंधे व ज्ञान हीन मनुष्य (जिंदगी की बाजी में) कभी कामयाब नहीं होते।2। इसु जुग महि राम नामि निसतारा ॥ विरला को पाए गुर सबदि वीचारा ॥ आपि तरै सगले कुल उधारा ॥३॥ पद्अर्थ: इसु जुग महि = इस मनुष्य जनम में। नामि = नाम से।3। अर्थ: इस मनुष्य जनम में आ के परमात्मा के नाम के द्वारा ही (संसार समुंदर से) पार उतारा हो सकता है। कोई विरला मनुष्य ही गुरु के शब्द में जुड़ के ये विचारता है। ऐसा मनुष्य खुद (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है, अपने सारे कुलों को भी पार लंघा लेता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |