श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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संनिआसी बिभूत लाइ देह सवारी ॥ पर त्रिअ तिआगु करी ब्रहमचारी ॥ मै मूरख हरि आस तुमारी ॥२॥

पद्अर्थ: बिभूत = राख। देह = शरीर। पर त्रिय त्यागु = पराई स्त्री का त्याग। हरि = हे हरि!।2।

अर्थ: सन्यासी ने राख मल के अपने शरीर को सवारा हुआ है। उसने पराईस्त्री का त्याग करके ब्रह्मचर्य धारण किया हुआ है। (उसने निरे ब्रह्मचर्य को ही अपने आत्मिक जीवन का सहारा बनाया हुआ है, उसकी निगाहों में मेरे जैसा गृहस्थी मूर्ख है, पर) हे हरि! मैं मूर्ख को तो तेरे नाम का ही आसरा है।2।

खत्री करम करे सूरतणु पावै ॥ सूदु वैसु पर किरति कमावै ॥ मै मूरख हरि नामु छडावै ॥३॥

पद्अर्थ: करम = (शूरवीरों वाले) काम। सूरतणु = शूरवीरों (वाली मशहूरी)। पर किरति = दूसरों की सेवा।3।

अर्थ: (स्मृतियों के धर्म अनुसार) क्षत्रीय (वीरता भरे) काम करता है और शूरवीरता की प्रसिद्धि कमाता है। (वह इसी को जीवन निशाना समझता है), शूद्र दूसरों की सेवा करता है, वैश्य भी (व्यापार आदि) कर्म करता है (शूद्र भी और वैश्य भी अपनी अपनी कृत में मग्न है। पर मैं निरे कर्म को जीवन उद्देश्य नहीं मानता, इनकी नजरों में) मैं मूर्ख हूँ (पर मुझे यकीन है कि) परमात्मा का नाम (ही संसार समुंदर के विकारों से) बचाता है।3।

सभ तेरी स्रिसटि तूं आपि रहिआ समाई ॥ गुरमुखि नानक दे वडिआई ॥ मै अंधुले हरि टेक टिकाई ॥४॥१॥३९॥

नोट: अंक ४ को चौथा पढ़ना है। इस तरह ‘महला १’ को ‘महला पहिला’, २ को दूजा, ३ को तीजा, ५ को पाँचवा।

पद्अर्थ: सभ = सारी। दे = देता है। टेक = आसरा।4।

अर्थ: (पर, हे प्रभु!) ये सारी सृष्टि तेरी रची हुई है। (सब जीवों में) तू स्वयं ही व्यापक है (जो कुछ तू सुझाता है उन्हें वही सूझता है)। हे नानक! (जिस किसी पर प्रभु मेहर करता है उसे) गुरु की शरण में डाल के (अपने नाम का) आदर बख्शता है। (इन लोगों के लिए मैं अंधा हूँ, पर) पर, मैं अंधे ने परमात्मा के नाम का आसरा लिया हुआ है।4।1।39।

गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ निरगुण कथा कथा है हरि की ॥ भजु मिलि साधू संगति जन की ॥ तरु भउजलु अकथ कथा सुनि हरि की ॥१॥

पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। भजु = स्मरण कर। तरु = पार हो। अकथ कथा = उस परमात्मा की महिमा जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।1।

अर्थ: परमात्मा की महिमा की बातें तीनों गुणों से ऊपर हैं (दुनिया के लोगों की प्रशंसा की कहानियों से बहुत ऊँची हैं)।

(हे भाई!) साधु जनों की संगति में मिल के (उस परमात्मा का) भजन करा कर। उस परमात्मा की महिमा सुना कर, जिसके गुण बताए नहीं जा सकते (और, महिमा की इनायत से) संसार समुंदर से पार गुजर।1।

गोबिंद सतसंगति मेलाइ ॥ हरि रसु रसना राम गुन गाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! रसु = स्वाद। रसना = जीभ। गाइ = गाए।1। रहाउ।

अर्थ: हे गोबिंद! (मुझे) साधु-संगत का मिलाप बख्श (ताकि मेरी) जीभ हरि नाम का स्वाद ले के हरि गुण गाती रहे।1। रहाउ।

जो जन धिआवहि हरि हरि नामा ॥ तिन दासनि दास करहु हम रामा ॥ जन की सेवा ऊतम कामा ॥२॥

पद्अर्थ: जो जन = जो लोग। दासनि दास = सेवकों के सेवक। रामा = हे राम! कामा = काम।2।

अर्थ: हे हरि! हे राम! जो मनुष्य तेरा नाम स्मरण करते हैं, मुझे उनके दासों का दास बना। (तेरे) दासों की सेवा (मनुष्य जीवन में सबसे) श्रेष्ठ कर्म है।2।

जो हरि की हरि कथा सुणावै ॥ सो जनु हमरै मनि चिति भावै ॥ जन पग रेणु वडभागी पावै ॥३॥

पद्अर्थ: हमरै मनि चिति = मेरे मन में, मेरे चित्त में। भावै = अच्छा लगता है। पग = पैर। रेणु = धूल। पग रेणु = पैरों की खाक।3।

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (मुझे) परमात्मा (की महिमा) की बातें सुनाता है, वह (मुझे) मेरे मन में मेरे चित्त में प्यारा लगता है। (परमात्मा के) भक्त के पैरों की ख़ाक कोई भाग्यशाली मनुष्य ही हासिल करता है।3।

संत जना सिउ प्रीति बनि आई ॥ जिन कउ लिखतु लिखिआ धुरि पाई ॥ ते जन नानक नामि समाई ॥४॥२॥४०॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ। लिखतु = लेख। धुरि = धुर से। ते जन = वे लोग। समाई = लीनता।4।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु के) संत जनों से (उन मनुष्यों की) प्रीति निभती है, जिस के माथे पे परमात्मा ने धुर से ही (अपनी दरगाह से अपनी बख्शिश का) लेख लिख दिया हो, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा के लिए) लीनता हासिल कर लेते हैं।4।2।40।

गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ माता प्रीति करे पुतु खाइ ॥ मीने प्रीति भई जलि नाइ ॥ सतिगुर प्रीति गुरसिख मुखि पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: प्रीति = खुशी (प्रीति = pleasure, प्री = to take delight)। प्रीति करे = खुशी मनाती है। मीने = मछली। जलि = पानी में। नाइ = नहा के। मुखि = मुंह में।1।

अर्थ: (हरेक) माँ खुशी मनाती है जब उसका पुत्र (कोई अच्छी चीज) खाता है। पानी में नहा के मछली को प्रसन्नता होती है। गुरु को खुशी मिलती है, जब कोई मनुष्य किसी गुरसिख के मुंह में (भोजन) डालता है (जब कोई किसी गुरसिख की सेवा करता है)।1।

ते हरि जन हरि मेलहु हम पिआरे ॥ जिन मिलिआ दुख जाहि हमारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! हम = मुझे।1। रहाउ।

अर्थ: हे हरि! मुझे अपने वह सेवक मिला, जिनके मिलने से मेरे सारे दुख दूर हो जाएं (और मेरे अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाए)।1। रहाउ।

जिउ मिलि बछरे गऊ प्रीति लगावै ॥ कामनि प्रीति जा पिरु घरि आवै ॥ हरि जन प्रीति जा हरि जसु गावै ॥२॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। बछरे = बछरे को। कामनि = स्त्री। पिरु = पति। घरि = घर में।2।

अर्थ: जैसे (अपने) बछड़े को मिल के गाय खुश होती है, जैसे स्त्री को खुशी होती है जब उसका पति घर आता है। (वैसे ही) परमात्मा के सेवक को तभी खुशी मिलती है जब वह परमात्मा की महिमा गाता है।2।

सारिंग प्रीति बसै जल धारा ॥ नरपति प्रीति माइआ देखि पसारा ॥ हरि जन प्रीति जपै निरंकारा ॥३॥

पद्अर्थ: सारिंग = पपीहे को। जल धारा = पानी की धार, बरखा। नरपति = राजा। देखि = देख के।3।

अर्थ: पपीहे को खुशी होती है जब (स्वाति नछत्र में) मूसले धार वर्षा होती है, माया का फैलाव देख के (किसी) राजे-पातशाह को खुशी मिलती है। (वैसे ही) प्रभु के दास को खुशी होती है जब वह प्रभु का नाम जपता है।3।

नर प्राणी प्रीति माइआ धनु खाटे ॥ गुरसिख प्रीति गुरु मिलै गलाटे ॥ जन नानक प्रीति साध पग चाटे ॥४॥३॥४१॥

पद्अर्थ: नर प्राणी = हरेक मनुष्य को। गुरसिख = गुरु के सिख को। गलाटे = गले लगा के। चाटे = चूमने से।4।

अर्थ: हरेक मनुष्य को खुशी होती है जबवह माया अर्जित करता है धन कमाता है। गुरु के सिख को खुशी (महिसूस) होती है जब उसे उसका गुरु गले लगा के मिलता है। हे नानक! परमात्मा के सेवक को खुशी होती है जबवह किसी गुरमुखि के पैर चूमता है।4।3।41।

गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ भीखक प्रीति भीख प्रभ पाइ ॥ भूखे प्रीति होवै अंनु खाइ ॥ गुरसिख प्रीति गुर मिलि आघाइ ॥१॥

पद्अर्थ: भीखक = भिखारी को। प्रीति = खुशी। भीख प्रभ = किसी गृहस्थी के घर से भिक्षा। पाइ = पा के, ले के। प्रभ = किसी घर के मालिक। खाइ = खा के। गुर मिलि = गुरु को मिल के। आघाए = तृप्त होता है, तृष्णा की ओर से तृप्त होता है।1।

अर्थ: भिखारी को (तब) खुशी होती है (जब उसको किसी घर के) मालिक से भिक्षा मिलती है। भूखे मनुष्य को (तब) खुशी मिलती है (जब वह) अन्न खाता है। (इसी तरह) गुरु के सिख को खुशी होती है जब गुरु को मिल के वह माया की तृष्णा से संतुष्ट होता है।1।

हरि दरसनु देहु हरि आस तुमारी ॥ करि किरपा लोच पूरि हमारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि!। लोच = चाहत, तमन्ना।1। रहाउ।

अर्थ: हे हरि! कृपा कर। मेरी तमन्ना पूरी कर, और मुझे दर्शन दे (जीवन के कठिन राह में मुझे) तेरी ही (सहायता की) उम्मीद है।1। रहाउ।

चकवी प्रीति सूरजु मुखि लागै ॥ मिलै पिआरे सभ दुख तिआगै ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लागै ॥२॥

पद्अर्थ: मुखि लागै = मूंह लगता है, दिखाई देता है।2।

अर्थ: चकवी को खुशी होती है जब उसे सूरज दिखता है (क्योंकि सूरज के चढ़ने पर वह अपने) प्यारे (चकवे) को मिलती है (और विछोड़े के) सारे दुख भुलाती है। गुरसिख को खुशी होती है जब उसे गुरु दिखता है।2।

बछरे प्रीति खीरु मुखि खाइ ॥ हिरदै बिगसै देखै माइ ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लाइ ॥३॥

पद्अर्थ: खीरु = दूध। मुखि = मुंह से। बिगसै = खुश होता है, खिलता है। माइ = माँ। मुखि लाइ = देख के।3।

अर्थ: बछड़े को (अपनी माँ का) दूध मुंह से पी के खुशी होती है, वह (अपनी) माँ को देखता है और दिल में प्रसन्न होता है। (इसी तरह) गुरसिख को गुरु का दर्शन करके खुशी होती है।3।

होरु सभ प्रीति माइआ मोहु काचा ॥ बिनसि जाइ कूरा कचु पाचा ॥ जन नानक प्रीति त्रिपति गुरु साचा ॥४॥४॥४२॥

पद्अर्थ: काचा = कच्चा, जल्दी नाश होने वाला। कूरा = कूड़ा, कचरा, झूठा। कचुपाचा = काँच की तरह दिखावा ही। त्रिपति = संतोष, तृप्ति।4।

अर्थ: (गुरु परमात्मा के बिना) और मोह कच्चा है माया की प्रीति सारी नाशवान है। और मोह नाश हो जाते हैं, झूठे हैं, निरे काँच से कच्चे हैं। हे दास नानक! जिसे सच्चा गुरु मिलता है उसे (असल) खुशी होती है (क्योंकि उसे गुरु के मिलने से) संतोष प्राप्त होता है।4।4।42।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh