श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 163 आपे ही प्रभु देहि मति हरि नामु धिआईऐ ॥ वडभागी सतिगुरु मिलै मुखि अम्रितु पाईऐ ॥ हउमै दुबिधा बिनसि जाइ सहजे सुखि समाईऐ ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे नाइ लाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: देहि = तू देता है (देइ = देय, देता है)। मुखि = मुंह में। दुबिधा = दुचित्तापन, डाँवाडोल मानसिक अवस्था। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। सुखि = आत्मिक आनंद में। नाइ = नाम में।2। अर्थ: (हे परमात्मा!) तू स्वयं ही (सब जीवों का) मालिक है। जिस जीव को तू स्वयं ही मति देता है, उसीसे हरि नाम स्मरण किया जा सकता है। जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरु मिल जाता है, उसके मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पड़ता है। उस मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। उसकी मानसिक डाँवाडोल दशा समाप्त हो जाती है। वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। वह आत्मिक आनंद में मगन रहता है। (हे भाई!) हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं मौजूद है। वह स्वयं ही जीवों कोअपने नाम में जोड़ता है।2। मनमुखि गरबि न पाइओ अगिआन इआणे ॥ सतिगुर सेवा ना करहि फिरि फिरि पछुताणे ॥ गरभ जोनी वासु पाइदे गरभे गलि जाणे ॥ मेरे करते एवै भावदा मनमुख भरमाणे ॥३॥ पद्अर्थ: गरबि = अहंकार के कारण। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। गरभे = गर्भ में। एवै = इस तरह।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ज्ञान से हीन होते हैं (जीवन जुगति से) अंजान होते हैं। वे अहंकार में रहते हैं उन्हें परमात्मा का मेल नहीं होता। वे (अपने गुमान में रह के) सतिगुरु की शरण नहीं पड़ते (गलत रास्ते पर पड़ के) बार बार पछताते रहते हैं। वे मनुष्य जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। इस चक्कर में उनका आत्मिक जीवन गल जाता है। मेरे कर्तार को यही अच्छा लगता है कि अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में भटकते रहें।3। मेरै हरि प्रभि लेखु लिखाइआ धुरि मसतकि पूरा ॥ हरि हरि नामु धिआइआ भेटिआ गुरु सूरा ॥ मेरा पिता माता हरि नामु है हरि बंधपु बीरा ॥ हरि हरि बखसि मिलाइ प्रभ जनु नानकु कीरा ॥४॥३॥१७॥३७॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। धुरि = धुर से, अपनी हजूरी से। मसतकि = माथे पे। सूरा = सूरमा। बंधपु = रिश्तेदार। बीरा = वीर, भाई। प्रभ = हे प्रभु! कीरा = कीड़ा, नाचीज, विनम्र भाव में।4। अर्थ: (जिस भाग्यशाली मनुष्य के) माथे पे मेरे हरि प्रभु ने अपनी धुर दरगाह से (बख्शिश का) अटल लेख लिख दिया, उसे (सब विकारों से हाथ दे के बचाने वाला) शूरवीर गुरु मिल जाता है, (गुरु की कृपा से) वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम ही मेरा पिता है नाम ही मेरी माँ है। परमात्मा (का नाम) ही मेरा संबंधी है मेरा भाई है। (मैं सदा परमात्मा के दर पर ही आरजू करता हूँ कि) हे प्रभु! हे हरि! ये नानक तेरा निमाणा दास है, इस पे बख्शिश कर और इसे (अपने चरणों में) जोड़े रख! 4।13।17।37। गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते गिआनु पाइआ हरि ततु बीचारा ॥ मति मलीण परगटु भई जपि नामु मुरारा ॥ सिवि सकति मिटाईआ चूका अंधिआरा ॥ धुरि मसतकि जिन कउ लिखिआ तिन हरि नामु पिआरा ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = परमात्मा की जान पहिचान, गहरी सांझ। ततु = असलियत। बीचारा = विचारु। परगटु भई = प्रगट हुई। मुरारा = मुरारि (मुर+अरि, मुर दैंत का वैरी) परमात्मा। सिवि = शिव ने, कल्याण स्वरूप प्रभु ने। सकति = शक्ति, माया। धुरि = धुर से।1। अर्थ: जिस मनुष्यों ने गुरु से (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ (डालनी) सीख ली, (जगत के) मूल परमात्मा (के गुणों) को विचारना (सीख लिया)। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के उनकी मति (जो पहले विकारों के कारण) मैली (हुई पड़ी थी) निखर उठी। कल्याण-स्वरूप परमात्मा ने (उनके अंदर से) माया का (प्रभाव) मिटा दिया, (उनके अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर हो गया। (पर) परमात्मा का नाम उन्हें ही प्यारा लगता है जिनके माथे पे धुर से ही (खुद परमात्मा ने अपने नाम की दाति का लेख) लिख दिया।1। हरि कितु बिधि पाईऐ संत जनहु जिसु देखि हउ जीवा ॥ हरि बिनु चसा न जीवती गुर मेलिहु हरि रसु पीवा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कितु = किस के द्वारा? कितु बिधि = किस तरीके से? देखि = देख के। हउ = मैं। जीवा = जी पड़ता है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। चसा = पल का तीसवां हिस्सा, समय, रत्ती भर भी। गुर मेलहु = गुरु (से) मिला दो।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा का दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (बताओ) उसे किस तरीके से मिला जा सकता है? उस प्रभु से बिछुड़ के मैं रत्ती भर समय के लिए भी (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकती। (हे संत जनों!) मुझे गुरु (से) मिलाओ (ता कि गुरु की कृपा से) मैं परमात्मा के नाम का रस पी सकूँ।1। रहाउ। हउ हरि गुण गावा नित हरि सुणी हरि हरि गति कीनी ॥ हरि रसु गुर ते पाइआ मेरा मनु तनु लीनी ॥ धनु धनु गुरु सत पुरखु है जिनि भगति हरि दीनी ॥ जिसु गुर ते हरि पाइआ सो गुरु हम कीनी ॥२॥ पद्अर्थ: गावा = मैं गाऊँ। सुणी = मैं सुनूँ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। ते = से। लीनी = लीन हो गया। धनु धनु = सलाहने योग (ष्)। जिनि = जिसने।2। अर्थ: (हे संत जनों! प्यारे गुरु की मेहर से) मैं नित्य परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ। मैं नित्य परमात्मा का नाम सुनता रहता हूँ। उस परमात्मा ने मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श दी है। गुरु के द्वारा मैंने परमात्मा के नाम का स्वाद हासिल किया है, (अब) मेरा मन मेरा तन (उस स्वाद में) मगन रहता है। (हे संत जनो!) जिस गुरु ने (मुझे) परमात्मा की भक्ति (की दाति) दी है (मेरे वास्ते तो वह) सत्पुरख गुरु (सदा ही) सलाहने योग्य है। जिस गुरु के द्वारा मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त किया है उस गुरु को मैंने अपना बना लिया है।2। गुणदाता हरि राइ है हम अवगणिआरे ॥ पापी पाथर डूबदे गुरमति हरि तारे ॥ तूं गुणदाता निरमला हम अवगणिआरे ॥ हरि सरणागति राखि लेहु मूड़ मुगध निसतारे ॥३॥ पद्अर्थ: मूढ़ मुगध = मूर्ख, महा मूर्ख। निसतारे = निस्तारा, पार लंघाना।3। अर्थ: (हे भाई! सारे जगत का) शहनशाह परमात्मा (सब जीवों को सब) गुणों की दाति देने वाला है। हम (जीव) उवगुणों से भरे रहते हैं। (जैसे) पत्थर (पानी में डूब जाते हैं, वैसे ही हम) पापी (जीव विकारों के समुंदर में) डूबे रहते हैं। परमात्मा (हमें) गुरु की मति दे कर (उस समुंदर से) पार लंघाता है। हे प्रभु! तू पवित्र स्वरूप है। तू गुण बख्शने वाला है। हम जीव अवगुणों से भरे पड़े हैं। हे हरि! हम तेरी शरण आए हैं, (हमें अवगुणों से) बचा ले। (हम) मूर्खों को महामूर्खों को (विकारों के समुंदर में से) पार लंघा ले।3। सहजु अनंदु सदा गुरमती हरि हरि मनि धिआइआ ॥ सजणु हरि प्रभु पाइआ घरि सोहिला गाइआ ॥ हरि दइआ धारि प्रभ बेनती हरि हरि चेताइआ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन जिन सतिगुरु पाइआ ॥४॥४॥१८॥३८॥ पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। घरि = घर में, हृदय घर में। सोहिला = महिमा के गीत, खुशी के गीत। प्रभु = हे प्रभु! नानक मंगै = नानक मांगता है (नानक = हे नानक!)। जिन = जिन्होंने।4। नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, ‘जिनि’ एकवचन है। अर्थ: जिस मनुष्यों ने परमात्मा को (अपने) मन में (सदा) स्मरण किया है, वे गुरु की मति पर चल कर सदैव आत्मिक अडोलता में रहते हैं, (आत्मिक) आनंद लेते हैं। जिन्हें हरि प्रभु सज्जन मिल जाता है, वह अपने हृदय घर मेंपरमात्मा के महिमा के गीत गाते रहते हैं। हे हरि! हे प्रभु! मिहर कर, (मेरी) विनती (सुन)। (मुझे) अपने नाम का स्मरण दे। (हे प्रभु! तेरा) दास नानक (तेरे दर से) उन मनुष्यों के चरणों की धूल मांगता है जिन्हें (तेरी मेहर से) गुरु मिल गया है।4।4।18।38। नोट:
गउड़ी गुआरेरी महला ४ चउथा चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पंडितु सासत सिम्रिति पड़िआ ॥ जोगी गोरखु गोरखु करिआ ॥ मै मूरख हरि हरि जपु पड़िआ ॥१॥ पद्अर्थ: गोरखु = जोगी मति के गुरु। जपु पढ़िआ = जप करना ही सीखा है।1। अर्थ: पण्डित शास्त्र-स्मृतियां (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ता है (और इस विद्ववता का गुमान करता है। जोगी (अपने गुरु) गोरख (के नाम का जाप) करता है (और उसकी बताई समाधियों को आत्मिक जीवन की टेक बनाए बैठा है), पर, मुझ मूर्ख ने (पंडितों और जोगियों के हिसाब से मूर्ख ने) परमात्मा के नाम का जप करना ही (अपने गुरु से) सीखा है।1। ना जाना किआ गति राम हमारी ॥ हरि भजु मन मेरे तरु भउजलु तू तारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ना जाना = मैं नहीं जानता। गति = हालत। राम = हे राम! हमारी = मेरी। मन = हे मन! तरु = पार हो। भउजलु = संसार समुंदर। तारी = बेड़ी, जहाज (तारि)।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! (किसी को धर्म-विद्या का गुरूर, किसी को समाधियों का सहारा, पर) मुझे समझ नहीं आती (कि अगर मैं तेरा नाम भुला दूँ तो) मेरी कैसी आत्मिक दशा हो जाएगी। (हे राम! मैं तो अपने मन को यही समझाता हूँ) हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर (और) संसार समुंदर से पार लांघ जा, (परमात्मा का नाम ही संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) बेड़ी है।1। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |