श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 166 मेरे राम मै मूरख हरि राखु मेरे गुसईआ ॥ जन की उपमा तुझहि वडईआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै मूरख = मुझ मूर्ख को। गुसईआ = हे गुसाई! हे मालिक! उपमा = बड़ाई, इज्जत।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे मालिक! हे हरि! मुझ मूर्ख को (अपनी शरण में) रख। तेरे सेवक का आदर तेरा ही आदर है।1। रहाउ। मंदरि घरि आनंदु हरि हरि जसु मनि भावै ॥ सभ रस मीठे मुखि लगहि जा हरि गुण गावै ॥ हरि जनु परवारु सधारु है इकीह कुली सभु जगतु छडावै ॥२॥ पद्अर्थ: मंदरि = मंदिर में। घरि = घर में। मनि = मन मे। मुखि = मुंह में। जा = जब। सधारु = (संधु = to support) सहारा। परवारु = (परि वार = a scabbard a sheath) रक्षक।2। अर्थ: जिस मनुष्य को अपने मन में परमात्मा की महिमा अच्छी लगती है, उसके हृदय मंदिर में, हृदय घर में सदा आनंद बना रहता है। जब वह हरि के गुण गाता है (उसे ऐसे प्रतीत होता है जैसे) सारे स्वादिष्ट मीठे रस उसके मुंह में पड़ रहे हैं। परमात्मा का सेवक-भक्त अपने 21 कुलों का रक्षक है आसरा है। परमात्मा का सेवक सारे जगत को ही (विकारों से) बचा लेता है।2। जो किछु कीआ सो हरि कीआ हरि की वडिआई ॥ हरि जीअ तेरे तूं वरतदा हरि पूज कराई ॥ हरि भगति भंडार लहाइदा आपे वरताई ॥३॥ पद्अर्थ: जीअ = सारे जीव। भंडार = खजाने। लहाइदा = दिलाता, मिलाता। वरताई = बाँटता।3। अर्थ: ये सारा जगत जो दिखाई देता है ये सारा परमात्मा ने ही पैदा किया है, ये सारा उसी का ही महान काम है। हे हरि! (सारे जगत के जीव) तेरे ही पैदा किए हुये हैं। (सब जीवों में) एक तू ही मौजूद है। (हे भाई! सब जीवों से) परमात्मा (स्वयं ही अपनी पूजा-भक्ति) करवा रहा है। परमात्मा स्वयं ही अपनी भक्ति के खजाने (सब जीवों को) दिलवाता है, स्वयं ही बाँटता है।3। लाला हाटि विहाझिआ किआ तिसु चतुराई ॥ जे राजि बहाले ता हरि गुलामु घासी कउ हरि नामु कढाई ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि की वडिआई ॥४॥२॥८॥४६॥ पद्अर्थ: लाला = गुलाम। हाटि = दुकान से, मंडी से। विहाझिआ = खरीका हुआ। राजि = राज पर, तख्त पर। घासी = घसियारा। कढाई = मुंह से निकलवाता है, जपाता है।4। अर्थ: अगर कोई गुलाम मंडी में से खरीदा गया हो, उस (गुलाम) की (अपने मालिक के सामने) कोई चालाकी नहीं चल सकती (परमात्मा का सेवक-भक्त सत्संग की दुकान में से परमात्मा का अपना बनाया हुआ होता है, उस सेवक को) अगर परमात्मा राज-तख्त पर बैठा दे, तो भी वह परमात्मा का गुलाम ही रहता है। (अपने बनाए हुये सेवक) घसियारे के मुंह से भी परमात्मा हरि-नाम ही जपाता है। (हे भाई!) दास नानक परमात्मा का (खरीदा हुआ) गुलाम है। ये परमात्मा की मेहर है (कि उसने नानक को अपना गुलाम बनाया हुआ है)।4।2।8।46। गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ किरसाणी किरसाणु करे लोचै जीउ लाइ ॥ हलु जोतै उदमु करे मेरा पुतु धी खाइ ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि जपु करे हरि अंति छडाइ ॥१॥ पद्अर्थ: किरसाणी = खेती का काम। लोचै = उम्मीद करता है। जीउ लाइ = जी लगा के, मेहनत से। जोतै = जोतता है। अंति = अंत में।1। अर्थ: किसान खेती का काम जी लगा के (पूरी मेहनत से) करता है। हल चलाता है, उद्यम करता है और चाह रखता है (कि फसल अच्छी हो, ता कि) मेरा पुत्र मेरी बेटी खाए। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा के नाम का जाप करता है (जिसका नतीजा ये निकलता है कि) अंत समय (जब और कोई साथी नहीं रह जाता) परमात्मा उसे (मोह आदि के पंजे से) छुड़ाता है।1। मै मूरख की गति कीजै मेरे राम ॥ गुर सतिगुर सेवा हरि लाइ हम काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गति = मुक्ति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! मुझ मूर्ख को ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श। मुझे गुरु की सेवा के काम में जोड़।1। रहाउ। लै तुरे सउदागरी सउदागरु धावै ॥ धनु खटै आसा करै माइआ मोहु वधावै ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि बोलता हरि बोलि सुखु पावै ॥२॥ पद्अर्थ: तुरे = घोड़े। धावै = दौड़ता है, जाता है। बोलि = बोल के।2। अर्थ: सौदागर सौदागरी करने के लिए चल पड़ता है (सौदागरी में वह) धन कमाता है (और धन की) उम्मीद करता है (ज्यों ज्यों कमाई करता है त्यों त्यों) माया का मोह बढ़ता जाता है। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा का नाम स्मरण करता है। नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद लेता है।2। बिखु संचै हटवाणीआ बहि हाटि कमाइ ॥ मोह झूठु पसारा झूठ का झूठे लपटाइ ॥ तिउ हरि जनि हरि धनु संचिआ हरि खरचु लै जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: बिखु = (माया) जहर। संचै = संचित करता है, इकट्ठा करता है। हाटि = दुकान में। हरि जनि = हरि के जन ने।3। अर्थ: दुकानदार दुकान में बैठ के दुकान का काम करता है और (माया) एकत्र करता है (जो उसके आत्मिक जीवन के वास्ते) जहर (का काम करती जाती) है (क्योंकि ये तो निरा) मोह का झूठा फैलाव है, झूठ का पसारा है (ज्यों ज्यों इसमें ज्यादा खचित होता जाता है त्यों त्यों) इस नाशवान के मोह में फंसता जाता है। इसी तरह परमात्मा के दास ने (भी) धन एकत्र किया होता है पर वह हरि-नाम का धन है। ये नाम धन वह अपनी जिंदगी के सफर वास्ते खर्च (के तौर पर) ले जाता है।3। इहु माइआ मोह कुट्मबु है भाइ दूजै फास ॥ गुरमती सो जनु तरै जो दासनि दास ॥ जनि नानकि नामु धिआइआ गुरमुखि परगास ॥४॥३॥९॥४७॥ पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार, खिलारा। भाइ दूजै = माया के मोह में, और-और प्यार में। फास = फांसी। जनि नानकि = दास नानक ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। परगास = आत्मिक प्रकाश।4। अर्थ: माया के मोह का ये फैलाव (तो) माया के मोह में फसाने वाली फांसी है। इस में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो गुरु की मति ले के परमात्मा के दासों का दास बनता है। दास नानक ने (भी) गुरु की शरण पड़ के (आत्मिक जीवन के वास्ते) प्रकाश हासिल करके परमात्मा का नाम स्मरण किया है।4।3।9।47। गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ नित दिनसु राति लालचु करे भरमै भरमाइआ ॥ वेगारि फिरै वेगारीआ सिरि भारु उठाइआ ॥ जो गुर की जनु सेवा करे सो घर कै कमि हरि लाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: भरमै = भटकता है। सिरि = सिर पर। घर कै कंमि = घर के काम में, अपने असली काम में।1। अर्थ: जो मनुष्य सदा दिन रात (माया का) लालच करता रहता है। माया के प्रभाव में आ के माया की खातिर भटकता फिरता है, वह उस वैरागी की तरह है जो अपने सिर पर (बेगाना) भार उठा के बेमतलब में व्यस्त है। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है (गुरु की बताई हुई सेवा करता है) उसे परमात्मा ने (नाम स्मरण के) उस काम में लगा दिया है जो उसका असलियत में अपना काम है।1। मेरे राम तोड़ि बंधन माइआ घर कै कमि लाइ ॥ नित हरि गुण गावह हरि नामि समाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गावह = हम गाएं। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! (हम जीवों के) माया के बंधन तोड़ और हमें हमारे असली काम में जोड़। हम हरि-नाम में लीन हो के सदा हरि गुण गाते रहें।1। रहाउ। नरु प्राणी चाकरी करे नरपति राजे अरथि सभ माइआ ॥ कै बंधै कै डानि लेइ कै नरपति मरि जाइआ ॥ धंनु धनु सेवा सफल सतिगुरू की जितु हरि हरि नामु जपि हरि सुखु पाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: नरपति = राजा। अरथि = अर्थ, खातर, वास्ते। कै = या। बंधै = बांध लेता है। डानि = दण्ड, जुर्माना। लेइ = लेता है। जितु = जिस (सेवा) से।2। अर्थ: सिर्फ माया की खातिर कोई मनुष्य किसी राजे-बादशाह की नौकरी करता है। राजा कई बार (किसी खुनामी के कारण उसे) कैद कर देता है या (कोई जुर्माना आदि) सजा देता है, या, राजा (खुद ही) मर जाता है (तो उस मनुष्य की नौकरी ही खत्म हो जाती है)। पर सत्गुरू की सेवा सदा फल देने वाली है सदा सलाहने योग्य है, क्योंकि इस सेवा से मनुष्य परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद पाता है।2। नित सउदा सूदु कीचै बहु भाति करि माइआ कै ताई ॥ जा लाहा देइ ता सुखु मने तोटै मरि जाई ॥ जो गुण साझी गुर सिउ करे नित नित सुखु पाई ॥३॥ पद्अर्थ: कीचै = करते हैं। भाति = भांति, किस्म। कै ताई = की खातिर, वास्ते। जा = जब। मने = मन में।3। अर्थ: माया कमाने की खातिर कई तरह का सदा वणज-व्यवहार भी करते हैं। जब (वणज-व्यापार) नफा देता है तो मन में खुशी होती है, पर घाटा पड़ने पर मनुष्य (सदमे से) मर जाता है। पर, जो मनुष्य अपने गुरु के साथ परमात्मा की महिमा के सौदे की सांझ डालता है, वह सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।3। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |